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Saturday, 30 September 2017

सडक़ दुर्घटनाओं के कारण देश में प्रतिदिन 413 लोगों की हो रही मौत

सडक़ परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय भारत सरकार की सडक़ दुर्घटनाओं को लेकर वर्ष-2016 के जारी आंकडों के अनुसार देश में वर्ष 2016 के दौरान 4,80,652 सडक़ हादसे हुए जिनमें जहां डेढ़ लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई तो वहीं लगभग पांच लाख लोग घायल हुए हैं। देश की सडक़ों में प्रतिदिन 1317 सडक़ हादसे हो रहे हैं तथा 413 लोग प्रतिदिन जबकि प्रतिघंटा 17 लोग सडक़ों पर दम तोड रहे हैं। भले ही वर्ष 2015 के मुकाबले देश में सडक़ हादसों में लगभग 4.1 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई है लेकिन सडक़ हादसों के कारण मरने वाले लोगों के आंकडे में 3.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ऐसे में सडक़ों पर प्रतिदिन सडक़ दुर्घटनाओं के कारण सैंकडों लोगों की जान चली जाना एक बहुत बड़ा चिंतनीय विषय है तथा जिस गति से यह आंकडा बढ़ रहा है सडक़ दुर्घटनाओं को लेकर देश की एक भयावह तस्वीर हमारे सामने प्रस्तुत हो रही है। 
सरकार द्वारा जारी इन्ही आंकडों का आगे विश्लेषण करें तो सबसे चौकाने वाली बात यह सामने आ रही है कि इन सडक़ दुर्घटनाओं के शिकार हो रहे लोगों में से 46.3 फीसदी 18-35 वर्ष आयु वर्ग के युवा हैं जबकि 18-45 वर्ष आयु वर्ग में यह आंकड़ा बढक़र 68.6 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। देश की युवा शक्ति का इस तरह सडक़ दुर्घटनाओं में शिकार हो जाना देश व समाज के लिए एक बहुत बडी त्रासदी कही जा सकती है। आंकड़ों से एक बात यह ऊभर कर सामने आ रही है कि देश में हो रहे सडक़ हादसों में से 33.8 प्रतिशत सडक़ हादसे दुपहिया वाहनों के कारण हो रहे हैं जबकि टैक्सी, जीप, कार की भागीदारी 23.6 प्रतिशत, ट्रक, टैम्पों, ट्रैक्टर इत्यादि की भागीदारी 21 जबकि बसों का आंकडा 7.8 प्रतिशत है। देश में वर्ष 2015 के मुकाबले 2016 में दुपहिया वाहन दुर्घटनाओं का आंकड़ा 28.8 प्रतिशत से बढक़र 33.8 प्रतिशत तक पहुंच गया है। दुपहिया सडक़ दुर्घटना के कारण दस हजार लोगों की मौत इसलिए हो गई कि उन्होने हेल्मेट नहीं पहना था जबकि बिना सीट बेल्ट वाहन चलाने वाले लोगों की यह संख्या पांच हजार से अधिक रही है।
आंकड़ो का आगे विश्लेषण करें तो देश में गत वर्ष नशीले पदार्थों के सेवन के चलते  लगभग 15 हजार सडक़ हादसे हुए जबकि वाहन चलाते समय मोबाईल फोन का इस्तेमाल करते हुए लगभग पांच हजार सडक़ दुर्घटनाएं हुई तथा 2138 लोगों ने अपनी जान गंवाई और लगभग 47 सौ लोग घायल हो गए। आंकडों से एक चौकाने वाली अहम बात यह सामने आ रही है कि देश में हिट व रन के मामलों में भी वृद्धि दर्ज हुई है तथा वर्ष 2016 में कुल सडक दुर्घटनाओं में से 11.6 प्रतिशत हिट व रन के मामले सामने आए जिनके तहत लगभग 23 हजार लोगों को अपनी जान गंवानी पडी है। जबकि ओवरलोडिंग के कारण देश में लगभग 61 हजार सडक़ हादसे हुए जिनमें लगभग 21 हजार लोगों की मौत हो गई। यही नहीं देश में कुल सडक़ हादसों में से 84 प्रतिशत हादसे वाहन चालक की लापरवाही के कारण हो रहे हैं तथा 80 प्रतिशत लोग अपनी जान गंवा रहे हैं। ऐसे में इन आंकडों से यह स्पष्ट हो रहा है कि अधिकतर सडक दुर्घटनाओं के लिए लोग स्वयं ही कारण बन रहे हैं तथा सडक़ पर स्वयं के साथ-साथ दृूसरों की जिंदगी के लिए भी बहुत बड़ा खतरा बन रहे हैं। 
ऐसे में यदि हिमाचल प्रदेश की बात करें तो वर्ष 2016 में 3168 सडक़ हादसे हुए जिनमें वर्ष 2015 के आंकडे 1096 लोगों के मुकाबले 1271 लोगों को अपनी जान गंवानी पडी तथा  5764 लोग घायल हुए जो वर्ष 2015 में यह आंकडा 5108 का था। हिमाचल में ड्राईवरों की लापरवाही के कारण 2274 सडक़ दुर्घटनाएं घटित हुई जिनमें 946 लोगों की मौत हो गई। राष्ट्रीय आंकड़ों की तरह ही हिमाचल में भी हिट व रन के 728 मामले सामने आए जिनमें 207 लोगों की मौत तथा 748 घायल हुए जबकि पैदल चल रहे लोगों को हिट करने का आंकडा 429 रहा जिसमें 101 लोगों की मौत हो गई जबकि 608 लोग घायल हो गए। ऐसे में यह स्पष्ट हो रहा है कि हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्य में भी हिट व रन के मामले लगातार बढ़ रहे है। इसके अतिरिक्त जहां प्रदेश में नशीले पदार्थों के सेवन के कारण हुए 72 हादसों में 17 लोगों की मौत हो गई तो वहीं ओवर स्पीड के  कारण 516 सडक़ हादसों में 187 लोगों की मौत हुई है। यही नहीं प्रदेश में बिना हेल्मेट दुपहिया वाहन हादसों में 125 जबकि बिना सीट बेल्ट के कारण 450 लोगों की मौत सडक़ हादसों में हो गई। प्रदेश में ओवर लोडिंग के कारण 135 सडक़ दुर्घटनाओं के चलते 81 लोग मौत के आगोश में समा गए। 
ऐसे में प्रतिवर्ष देश में सडक़ दुर्घटनाओं के कारण लोगों का असमय ही मौत के मुंह में चले जाना एक बहुत बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी कही जा सकती है। ऐसे में लोगों को सडक़ सुरक्षा के प्रति जागरूक करने के साथ-साथ सडक़ नियमों का पालन करना जरूरी हो जाता है ताकि सडक़ों पर बेमौत मरते लोगों की अनमोल जिंदगी को बचाया जा सके। इसके लिए जरूरी है कि देश के जिम्मेवार नागरिक वाहन चलाते समय सडक़ पर लगी संकेतावली व चिन्हों का गंभीरता से पालन करते हुए स्वयं व दूसरों की अनमोल जिंदगी को बचाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। वाहन चलाते समय लोग सीट बैल्ट का प्रयोग अवश्य करें तथा दुपहिया वाहन चलाते समय अच्छी गुणवत्ता वाला हेल्मेट जरूर पहनें। यही नहीं वाहन चलाते समय मोबाइल फोन के इस्तेमाल से बचें ऐसे करने से न केवल वह स्वयं बल्कि दूसरों को भी सडक़ पर सुरक्षित रख सकते हैं। सडक यातायात में दिन के मुकाबले रात में घातक दुर्घटनाएं होने की संभावना 3-4 गुणा अधिक होती है। इसलिए रात्रि के समय वाहन चलाते समय अतिरिक्त सावधानी व सत्तर्कता अपनाएं तथा पैदल चलने वाले यात्रियों, साइकिल सवारों, पशुओं इत्यादि के प्रति सावधान रहें। साथ ही रेट्रो-रिफलैक्टिव शीटों व टेपों का व्यापक इस्तेमाल करें।
देश में वाहनों की ओवरलोडिंग भी सडक़ दुर्घटनाओं का एक बहुत बडा कारण है इसलिए ओवर लोडिंग से जहां सडकों को क्षति पहुंचती है तो वहीं वाहनों को नुकसान होता है। ऐसे में वाहन चालकों को ओवरलोडिंग से बचना चाहिए। इसके अलावा वाहन चालकों को वाहन चलाते समय शराब व नशीले पदार्थों का सेवन करने से बचना चाहिए। देश में 85 फीसदी सडक दुर्घटनाओं के लिए वैध ड्राईविंग लाईसैंस धारी चालक ही कारण बन रहे हैं, ऐसे मेें जरूरी है कि वाहन चालकों का समय-समय पर सडक़ सुरक्षा के प्रति औचक परीक्षण भी होना चाहिए ताकि वाहन चालक सडक़ नियमों के प्रति सचेत बने रहें।
ऐसे में यदि हम बढ़ते सडक़ हादसों के प्रति समय रहते सचेत नहीं हुए तो प्रतिवर्ष हमारी सडक़ों पर मौत यह तांडव इसी तरह जारी रहेगा तथा असमय की लाखों लोग अपनी अनमोल जिंदगी को गंवाते रहेंगें।


(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 4 अक्तूबर, 2017 एवं दैनिक आपका फैसला, 12 अक्तूबर, 2017 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)


Monday, 28 August 2017

हिमाचल प्रदेश के 18.6 लाख बच्चों को लगेगा खसरा-रूबैला का टीका

हिमाचल प्रदेश में 30 अगस्त से शुरू हो रहा खसरा-रूबैला टीकाकरण अभियान
हिमाचल प्रदेश में बच्चों को खसरा जैसी जानलेवा बीमारी से पूरी तरह बचाव के लिए 30 अगस्त से खसरा-रूबैला विशेष टीकाकरण अभियान की शुरूआत होने जा रही है। इस अभियान के माध्यम से प्रदेश के सभी 9 माह से 15 वर्ष तक आयु वाले लगभग 18.6 लाख बच्चों का खसरा-रूबैला का टीकाकरण किया जाएगा। पूरे प्रदेश में इस अभियान को सफल बनाने के लिए स्वास्थ्य विभाग ने लगभग 2760 टीमों का गठन किया है। इस अभियान के तहत पूरे देश में दो वर्षों के भीतर लगभग 41 करोड बच्चों का टीकाकरण किया जाएगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भारत सरकार के संयुक्त प्रयासों से देश में पहले चरण में पांच राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों जिसमें कर्नाटक, तमिलनाडू, पुडूच्चेरी, गोवा तथा लक्षद्वीप शामिल के लगभग 3.33 करोड बच्चों को खसरा-रूबैला का यह टीका सफलतापूर्वक लगाया जा चुका है। जबकि दूसरे चरण में देश के आठ राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों जिनमें आंध्रप्रदेश, चंडीगढ़, हिमाचल, केरल, तेलंगाना, उत्तराखंड, दादरा एवं नगर हवेली तथा दमण व द्वीव शामिल है के लगभग 3.40 करोड बच्चों को खसरा-रूबैला का यह टीका लगाया जा रहा है।
भारत में पूरे विश्व के मुकाबले लगभग 37 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु खसरा की बीमारी के कारण हो जाती है। भले ही भारत सरकार ने खसरा से होने वाली मृत्यु के आंकडे को वर्ष 2000 के आंकडे एक लाख बच्चों के मुकाबले वर्ष 2015 में 49 हजार तक ला दिया हो, लेकिन देश में खसरे के कारण बच्चों की होने वाली मृत्यु का यह आंकडा अभी भी बहुत बडा है। इसी तरह रूबैला के कारण देश में प्रतिवर्ष लगभग 40 हजार बच्चे जन्मजात बहरेपन व अंधेपन का शिकार हो रहे हैं। 
इस अभियान को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रतिनिधि डॉ0 निधि दंवर का कहना है कि भारत सरकार द्वारा पोलियो मुक्ति के बाद बच्चों को खसरा-रूबैला से बचाव के लिए यह विशेष टीकाकरण अभियान चलाया जा रहा है। इसके माध्यम से सरकार ने देश को वर्ष 2020 तक खसरा से मुक्ति तथा रूबैला से होने वाली बच्चों में जन्मजात विकृतियों को नियंत्रित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। उन्होने बताया कि नियमित टीकाकरण के अंतर्गत खसरा वैक्सीन का 9 माह तथा डेढ़ वर्ष की आयु पर टीका लगाया जाता है। लेकिन इस विशेष अभियान के दौरान 9 माह से 15 वर्ष तक आयु वाले सभी बच्चों को खसरा-रूबैला का टीका एक अतिरिक्त खुराक के तौर पर लगाया जाएगा तथा भविष्य में खसरा-रूबैला का टीका नियमित टीकाकरण में शामिल हो जाएगा।
डॉ0 निधि का कहना है कि खसरा एक अत्यन्त संक्रामक रोग है जिसके कारण भारत बर्ष में प्रतिवर्ष 50 हजार से ज्यादा बच्चों की मृत्यु हो जाती है। उन्होने बताया कि यदि गर्भवती माता गर्भावस्था के दौरान रूबैला से संक्रमित होती है तो गर्भस्थ शिशु में कई जन्मजात बीमारियां होने का खतरा पैदा हो जाता है, जिनमें बहरापन, अंधापन, मंदबुद्धि तथा ह्रदय रोग इत्यादि शामिल है। इसके अलावा गर्भ में बच्चे की मृत्यु तक हो जाती है। जबकि खसरे का टीका न लगने के कारण बच्चे न्युमोनिया, डायरिया सहित अन्य बीमारियों के जल्द शिकार हो सकते हैं। खसरा-रूबैला वैक्सीन के टीकाकरण से इन बीमारियों से बचा जा सकता है तथा भारत में खसरा पर नियंत्रण करने के लिए रूबैला वैक्सीन पहली बार खसरा-रूबैला के नाम से संयुक्त रूप से आरम्भ की जा रही है। उन्होने बताया कि यह टीका पूरी तरह से सुरक्षित है तथा इसे स्वास्थ्य विभाग की प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी द्वारा ही बच्चों को लगाया जाएगा।
ऐसे में यदि जिला ऊना की बात करें तो जिला में लगभग एक लाख 28 हजार बच्चों को खसरा-रूबैला का टीका लगाया जाएगा। इसके लिए स्वास्थ्य विभाग ने जिला में 940 स्कूलों को चिन्हित कर लिया गया है। जिनमें 761 सरकारी, 157 निजी, आठ विशेष स्कूल, सात क्रैच व प्ले स्कूल तथा एक मदरसा शामिल है। इसके अतिरिक्त 1344 आंगनवाडी केन्द्रों को भी शामिल किया गया है। मुख्य चिकित्सा अधिकारी ऊना डॉ0 प्रकाश दडोच का कहना है कि विभाग ने अभियान के दृष्टिगत 190 टीमों का गठन कर लिया है तथा एक टीम द्वारा एक दिन में कम से कम दो सौ बच्चों का टीकाकरण किया जाएगा। टीकाकरण के दौरान बच्चों को कम से कम आधे घंटे तक विशेष निगरानी में रखा जाएगा तथा कोई भी समस्या होने पर संबंधित बच्चे को तुरन्त प्राथमिक उपचार मुहैया करवाया जाएगा। इस दौरान किसी भी आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए सभी टीमों को आवश्यक दवाईयों के साथ-साथ अन्य जरूरी सामान व जानकारी मुहैया करवाई गई है। इसके अलावा जिला के सभी प्राथमिक, सामुदायिक, सिविल तथा जोनल अस्पताल में भी खसरा-रूबैला टीकाकरण को लेकर भी सभी आवश्यक प्रबंध कर लिए गए हैं। खसरा-रूबैला अभियान को लेकर जिला स्वास्थ्य विभाग ने एक हेल्पलाइन नम्बर भी जारी किया गया है जिसका नम्बर 92184-30213 है, जिस पर इस अभियान से जुडी कोई भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। 
इस तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन व भारत सरकार के संयुक्त प्रयासों से देश को 2020 तक खसरा-रूबैला से पूर्णत मुक्ति के लिए समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी साकारात्मक भूमिका निभाए। साथ ही इस अभियान के दौरान 9 माह से 15 वर्ष तक आयु वाले सभी बच्चों के अभिभावकों से भी आहवान है कि वह बच्चों को खसरा-रूबैला का टीका अवश्य लगावाएं ताकि हमारे बच्चे खसरे जैसी जानलेवा बीमारी से मुक्त हो सकें।

(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 28 अगस्त, 2017 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)

Tuesday, 1 August 2017

बरसात में स्क्रब टाइफस, मलेरिया व डेंगू से रहें सावधान

बरसात के मौसम के दौरान मच्छरों तथा पिस्सुओं के काटने से मलेरिया, डेंगू व स्क्रब टाइफस जैसी बीमारियां होने का ज्यादा खतरा बना रहता है। ऐसे में इन बीमारियों के बचाव के लिए जरूरी है कि लोग घर के चारों ओर घास, खरपतवार इत्यादि न उगने दें, घर के अंदर कीटनाशक दवाओं का छिडकाव करें तथा गडडों इत्यादि में पानी को जमा न होने दें ताकि उसमें मच्छर न पनप सकें। 
इस संबंध में मुख्य चिकित्सा अधिकारी ऊना डॉ0 प्रकाश दडोच ने लोगों को परामर्श जारी करते हुए आहवान किया है कि बरसात में मलेरिया, डेंगू तथा स्क्रब टाइफस जैसी बीमारियों से बचाव के लिए लोग विशेष एहतियात बरतें तथा इन बीमारियों से जुडा कोई भी लक्षण दिखे तो तुरन्त नजदीकी स्वास्थ्य संस्थान में उपचार के लिए पहुंचें। 
उन्होने बताया कि मलेरिया मादा एनाफिल्ज नामक मच्छर के काटने से होता है।  यह मच्छर खड़े पानी में अंडे देता है तथा इस मच्छर के काटने से मलेरिया होने का खतरा बना रहता है। उन्होने बताया कि व्यक्ति को मलेरिया होने पर ठंड लगकर बुखार आता है तथा समय पर मलेरिया का इलाज न हो तो यह कई बार जानलेवा भी साबित हो सकता है। 
सीएमओ ने बताया कि एडीज नाम मच्छर के काटने से डेंगू की बीमारी होती है। उन्होने बताया कि यह मच्छर भी साफ पानी में अंडे देता है तथा दिन के समय काटता है। डेंगू होने पर पीडित व्यक्ति को तेज बुखार, जोडों में दर्द, आंखों के पीछे दर्द तथा आंतरिक्त रक्त स्त्राव होता है। डेंगू होने पर प्रभावित व्यक्ति के शरीर में प्लेटलेट्स की कमी हो जाती है तथा यदि समय पर डेंगू का ईलाज न किया जाए तो यह भी जानलेवा साबित हो सकता है। 
उन्होने बताया कि स्क्रब टाइफस एक जीवाणु विशेष (रिकेटशिया) से संक्रमित पिस्सु (माइट) के काटने से फैलता है जो खेतों, झाडियों व घास में रहने वाले चूहों में पनपता है। शरीर को काटने पर यह जीवाणु चमड़ी के माध्यम से शरीर में प्रवेश करता है तथा स्क्रब टाईफस बुखार पैदा करता है जो जोडों में दर्द व कंपकपी के साथ 104 या 105 डिग्री फॉरेनहाइट तक जा सकता है। इसके अलावा शरीर में ऐंठन, अकडऩ या शरीर टूटा हुआ लगना स्क्रब टाइफस के लक्षणों में शामिल है।
स्क्रब टाइफस, डेंगू व मलेरिया के बचाव के लिए ये रखें सावधानियां
डॉ0 प्रकाश दडोच ने स्क्रब टाइफस, डेंंगू व मलेरिया से बचाव के लिए कुछ एहतियात बरतने की भी सलाह दी है। उन्होने बताया कि लोग अपने घरों के आसपास साफ-सफाई बनाए रखें, घर के चारों ओर घास, खरपतवार नहीं उगने दें, घर के अंदर कीटनाशक दवाओं का छिडक़ाव करें, पानी को गडडों इत्यादि में जमा न होने दें ताकि उसमें मच्छर न पनप सकें। लोग अपने बदन को ढक़ कर रखें तथा सप्ताह में कम से कम एक या दो बार कूलर, एसी तथा टंकी का पानी जरूर बदलें। टूटे हुए बर्तन, पुराने टायर, टूटे हुए घड़े इत्यादि को घर में न रखें ताकि उनमें पानी न ठहर सके। इसके अतिरिक्त मच्छरों से बचाव के लिए मच्छरदानी का उपयोग करें तथा बुखार होने पर अपने रक्त की तुरन्त जांच करवाएं। उन्होने कहा कि यदि स्क्रब टाइफस, मलेरिया या डेंगू से जुडे कोई भी लक्षण व्यक्ति में दिखाई दें तो प्रभावित को तुरन्त उपचार के लिए अस्पताल लेकर जाएं।










Saturday, 1 July 2017

सर्पदंश होने पर झाडफूंक के बजाए सीधे अस्पताल पहुंचें

हिमाचल प्रदेश में गत 6 वर्षों में चार हजार लोग बने सर्पदंश का शिकार
हिमाचल प्रदेश में बरसात के मौसम के दौरान सर्पदंश के मामले भी बढऩे लगते हैं, ऐसे में लोगों को इस मौसम के दौरान विशेष एहतियात बरतनी चाहिए। यदि किसी व्यक्ति को सर्पदंश हो जाए तो उसे झाडफूंक के बजाए उपचार के लिए सीधे सरकारी अस्पताल में ले जाया जाना चाहिए। ऐसा करने से प्रभावित व्यक्ति को न केवल तुरन्त उपचार मिलेगा बल्कि अनमोल जिन्दगी को भी बचाया जा सकेगा।
ऐसे में यदि आंकडों की बात करें तो सर्पदंश को लेकर 108 नेशनल एंबुलेंस सेवा द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2011 से लेकर 2016 के दौरान 4037 लोग सर्पदंश का शिकार हो चुके हैं। जिनमें वर्ष 2011 में 476, 2012 में 487, 2013 में 571, 2014 में 728, 2015 में 790 तथा वर्ष 2016 में 878 लोग शामिल हैं। ऐसे में जिलावार इन आंकडों का विश्लेषण करें तो कांगडा में सबसे अधिक 905 जबकि लाहुल एवं स्पिति में सबसे कम दो मामले सर्पदंश के गत 6 वर्षों के दौरान सामने आए हैं। इसके अतिरिक्त जिला मंडी में 473, सोलन में 467, हमीरपुर में 436, शिमला में 398, चंबा में 378, बिलासपुर में 312, सिरमौर में 279, ऊना में 224, कुल्लू में 135 तथा किन्नौर जिला में 28 मामले सर्पदंश के सामने आ चुके हैं। अगर आंकडों की बात करें तो वर्ष 2011 से लेकर 2016 तक प्रदेश में सर्पदंश के मामलों में लगभग एक सौ फीसदी की वृद्धि दर्ज की हुई है। ऐसे में कहा जा सकता है कि प्रदेश में सर्पदंश के मामले लगातार बढ़ रहे हैं तथा सर्पदंश को लेकर लोगों को जागरूक होने की बेहद जरूरत है। 
सर्वेक्षण की ही बात करें तो प्रदेश मेें जून से नवम्बर माह के दौरान सर्पदंश के अधिकत्तर मामले सामने आ रहे हैं। ऐसे में इन महीनों के दौरान लोगों को विशेष एहतियात बरतने की जरूरत है। विशेषकर बरसात के मौसम के दौरान लोगों को चप्पल पहनकर जंगलों व खेतों में घास काटने से परहेज करना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि लोग जूतों के साथ-साथ पूरी बाहों की कमीज पहनकर खेतों व घासनियों में काम करने जाएं। अंधेरे में बाहर जाने पर टॉर्च को साथ रखें तथा रोशनी के लिए इसका इस्तेमाल करें। इसके अतिरिक्त भूमि पर सोने से भी सर्पदंश का खतरा बना रहता है इसलिए जमीन पर सोने से परहेज करना चाहिए। यदि किसी भी व्यक्ति को सर्पदंश हो जाए तो पीडित का झांडफूंक के बजाए सीधे अपने नजदीकी अस्पताल ले जाकर ईलाज करवाना चाहिए। स्वास्थ्य संस्थानों में सर्पदंश के लिए एंटीस्नेक वेलम उपलब्ध रहती है। इसके अलावा 108 एंबुलेंस को भी तुरन्त सूचित करना चाहिए, क्योंकि 108 एंबुलेंस में सांप के काटने पर लगने वाला एंटी स्नेक टीका उपलब्ध रहता है तथा प्रभावित व्यक्ति का अस्पताल पहुंचने से पहले ही तुरंत ईलाज आरंभ हो जाता है।
सर्पदंश को लेकर चिकित्सकों का कहना है कि सांप के काटने पर उस जगह को बांधना नहीं चाहिए, क्योंकि बांधने से खून का प्रवाह रुक जाता है, जिससे जहर उस जगह पर ज्यादा असर करता है। साथ ही सर्पदंश की जगह पर किसी चाकू या ब्लेड से कोई चीरफाड़ नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से जहर जल्दी फैलता है। काटने वाली जगह के नजदीकी जोड़ को हिलाना नहीं चाहिए और बिना समय बर्वाद किये पीडित व्यक्ति को नजदीकी स्वास्थ्य केन्द्र में पहुंचाया जाना चाहिए। 
चिकित्सकों का कहना है कि काटने वाली जगह पर दर्द, खून का बहना, गले या पेट में दर्द, आंखें खोलने में परेशानी, बेहोशी, पेशाव कम आना या सांस का रुकना इत्यादि सर्पदंश के मुख्य लक्ष्णों में शामिल हैं। चिकित्सकों का यह भी मानना है कि बहुत से सांप जहरीले नहीं होते, लेकिन कई बार सांप के काटने पर घबराहट से दिल की धडकऩ बढ़ जाने से गंभीर स्थिति उपत्पन्न हो जाती है।
इसलिए यदि कोई भी व्यक्ति सर्पदंश का शिकार होता है तो ऐसे व्यक्ति को झाडफूंक पर समय बर्बाद करने के बजाए चिकित्सा उपचार के लिए तुरंत नजदीकी स्वास्थ्य केन्द्र में ले जाया जाना चाहिए ताकि सर्पदंश के कारण अनमोल जिंदगी को बचाया जा सके।


Wednesday, 14 June 2017

मुख्य मंत्री राज्य स्वास्थ्य देखभाल योजना के तहत जिला ऊना में 15815 व्यक्ति पंजीकृत

सामान्य बीमारी में तीस हजार जबकि गंभीर बीमारी में पौने दो लाख तक का मिलता है फ्री ईलाज 
हिमाचल प्रदेश सरकार ने प्रदेश के ऐसे हजारों अस्थाई कर्मचारियों के लिए बीमारी जैसी मुश्किल घडी में राहत प्रदान करने के लिए मुख्य मंत्री राज्य स्वास्थ्य देखभाल बीमा योजना को लागू किया है जिन्हे सरकारी स्तर पर स्वयं या परिजनों को चिकित्सा सुविधा के लिए न तो चिकित्सा भत्ता प्रदान किया जाता है न ही नियमित कर्मचारियों की तर्ज पर उनके चिकित्त्सा बिलों का भुगतान हो पाता है। इसी योजना के अंतर्गत जिला ऊना में अब तक लगभग 15815 कर्मचारियों व व्यक्तियों को पंजीकृत किया जा चुका है। जिनमें हरोली ब्लॉक में 2077, अंब में 3918, बंगाणा में 2739, ऊना में 5362 तथा गगरेट ब्लॉक में 1719 कर्मचारियों का पंजीकरण शामिल है। 
शतप्रतिशत राज्य सरकार द्वारा पोषित मुख्य मंत्री राज्य स्वास्थ्य देखभाल योजना के तहत प्रदेश की ऐसी 9 विभिन्न श्रेणीयों जिनमें 80 वर्ष से अधिक उम्र के वरिष्ठ नागरिक, ऐसी एकल महिलाएं जो विधवा, तलाकशुदा, परित्यक्त, पति लापता या अविवाहित हो, विभिन्न सरकारी विभागों, निगमों, बोर्डो इत्यादि में कार्यरत दैनिक वेतनभोगी व अंशकालिक कर्मचारी, आंगनवाडी वर्कर व हैल्पर, मिड-डे-मील वर्कर, राज्य सरकार के विभिन्न विभागों, निगमों, बोर्डों इत्यादि में अनुबंध पर कार्यरत कर्मचारी एवं 70 प्रतिशत से अधिक दिव्यांगता वाले व्यक्तियों को शामिल किया गया है। इस योजना के तहत पात्र परिवार के पांच व्यक्तियों जिसमें परिवार का मुखिया, उसकी पत्नी तथा उन पर आश्रित तीन सदस्य शामिल है को प्रदेश सरकार द्वारा चिन्हित अस्पातलों व स्वास्थ्य संस्थानों में सामान्य बीमारी में भर्ती होने पर प्रति परिवार प्रतिवर्ष अधिकत्तम तीस हजार रूपये जबकि गंभीर बीमारी में एक लाख पचहत्तर हजार रूपये तक का नि:शुल्क (कैशलेस) ईलाज की सुविधा इस योजना के तहत जारी स्मार्ट कार्ड के माध्यम से दी जा रही हैं।
इस योजना का लाभ प्राप्त करने के लिए पात्र व्यक्ति को तीस रूपये शुल्क अदा कर स्मार्ट कार्ड जारी किया जा रहा जो पांच वर्षों के लिए मान्य होगा जबकि तीन वर्ष बाद इसका नवीनीकरण किया जाएगा। इस योजना के अंतर्गत जारी स्मार्ट कार्ड के माध्यम से ही चिन्हित स्वास्थ्य संस्थानों में नि:शुल्क (कैशलेस) चिकित्सा सुविधा का लाभ दिया जा रहा है। स्मार्ट कार्ड में किसी भी सदस्य का नाम हटाना या जोडना हो तो लाभार्थी बीमा कम्पनी द्वारा स्थापित जिला कियोस्क केन्द्र जिसे क्षेत्रीय अस्पताल ऊना में स्थापित है में जाकर परिवर्तन करा सकता है। 
इस योजना के तहत सामान्य बीमारी होने पर प्रदेश के 174 अस्पतालों को चिन्हित किया गया है, जहां पर किसी भी बीमारी के दौरान भर्ती होने पर फ्री (कैशलेस) चिकित्त्सा सुविधा मिलेगी। जबकि किसी भी गंभीर बीमारी के दौरान यह सुविधा आईजीएमसी शिमला, डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल टांडा कांगडा तथा पीजीआई चंडीगढ़ शामिल है में मिलेगी।
क्या कहते हैं अधिकारी
मुख्य चिकित्सा अधिकारी ऊना डॉ0 प्रकाश दडोच ने बताया कि मुख्य मंत्री स्वास्थ्य देखभाल योजन के तहत जिला में पात्र व्यक्तियों का पंजीकरण किया जा रहा है तथा अबतक 15815 लोगों को इस योजना के तहत जोडा जा चुका है। उन्होने बताया कि जिला में यदि कोई भी पात्र व्यक्ति इस योजना के तहत अभी तक पंजीकृत नहीं हुआ है तो वह निर्धारित प्रपत्र पर मांगी गई संपूर्ण जानकारी के साथ अपना आवेदन संबंधित विभाग से सत्यापित करवाकर जिला अस्पताल में स्थापित विशेष कक्ष में प्रस्तुत कर सकता है। उन्होने बताया कि इस संबंध में पात्र व्यक्ति क्षेत्रीय अस्पताल ऊना में स्थापित कियोस्क केन्द्र से अधिक जानकारी हासिल कर सकते हैं।







Saturday, 3 June 2017

धार्मिक आस्था एवं सांस्कृतिक मिलन का प्रतीक है ऐतिहासिक पिपलू मेेला

इस वर्ष 4 से 6 जून तक मनाया जा रहा जिला स्तरीय पिपलू मेला
हिमाचल प्रदेश के ऊना जिला के बंगाणा से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर प्रतिवर्ष लगने वाला वार्षिक पिपलू मेला जहां हमारी धार्मिक आस्था व श्रद्धा का प्रतीक है तो वहीं प्राचीन समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी सदियों से संजोए हुए है। बदलते वक्त के साथ-साथ हमारे प्राचीन मेलों का स्वरूप भले ही बदला हो लेकिन ऐतिहासिक पिपलू मेला आज भी अपनी प्राचीन सांस्कृतिक स्वरूप में कुछ हद तक यथावथ देखा जा सकता है। पिपलू गांव में पिपल के पेड के नीचे शीला के रूप में विराजमान भगवान नरसिंह के दर्शनों के लिए मेला अवधि के दौरान हजारों लोग शिरकत करते हैं तथा भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
पिपलू गांव में भगवान नरसिंह से जुड़ी अनेक जनश्रुतियां प्रचलित है जिनमें से एक जनश्रुति के अनुसार पास के हटली गांव में एक उतरू नाम का किसान अपने खेत में काम कर रहा था। लेकिन अचानक उसकी दराती मली के एक पौधे में फंस गई तदोपरान्त पौधे को साफ करते हुए उसके नीचे एक शीला दिखाई दी। लेकिन उतरू ने शिला की ओर कोई ध्यान नहीं दिया तथा खेत को साफ कर वहां से चला गया। परन्तु रात्रि स्वपन्न में उसने देखा की भगवान विष्णु उससे कह रहे हैं, मुझे खेत में नग्र छोडक़र तुम स्वयं बड़े आनंद से यहां सो रहे हो। उन्होने कहा कि मुझे अब वहां धूप और ठंड लगेगी साथ ही मुझ पर बारिश भी गिरेगी। दूसरे दिन उतरू फिर उसी खेत में पहुंचा तथा वहां से शिला को उठाकर पशुशाला में रख दिया और स्वयं चारपाई में जाकर सोने लगा। परन्तु अभी वह मुश्किल से चारपाई पर सोया ही था कि वह चारपाई से नीचे गिर पडा। जैसे ही वह चारपाई में सोने का प्रयास करता वैसे ही वह नीचे गिर पडता। इस दौरान पशुशाला में उसके पशु भी जोर-जोर से चिल्लाने लग पडे। तब उसने भगवान विष्णु को याद किया तथा दर्शन देने की प्रार्थना करने लगा। भगवान विष्णु ने दर्शन देकर कहा कि तुम मेरी पिंडी को बाजे बजाते हुए सूखे पीपल पेड के नीचे रख दो।
भगवान नरसिंह के दर्शनों के लिए पहुंचे श्रद्धालु (फाईल फोटो)
दतोपरांत उतरू सूखा पीपल का पेड़ ढ़ूढ़ते-ढूढ़ते झगरोट गांव आ पहुंचा जहां उसे सूखा पीपल का पेड़ दिखाई दिया। उतरू ने शीला को पीपल के पेड़ के नीचे स्थापित करवा दिया तथा स्थापना के आठवें दिन सूखे पीपल से कोंपलें फूटने लगीं और कुछ ही दिनों में यह पेड़ हरा-भरा हो गया। उतरू ने प्रतिदिन यहां आकर पूजा-अर्चना आरंभ कर दी तथा धीरे-धीरे इस स्थान का नाम पिपलू पड़ गया और लोगों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होने लग पड़ीं।
प्रदेश के तीन जिलों की सांस्कृतिक मिलन का प्रतीक यह मेला आज भी प्राचीन रंग में रंगा हुआ नजर आता है तथा लोगों की आस्था में वह जोश आज भी यथावथ बना हुआ है। प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की निर्जला एकादशी को आयोजित होने वाले इस मेले में ऊना, हमीरपुर तथा कांगड़ा जिलों के अतिरिक्त प्रदेश व प्रदेश के बाहर से हजारों श्रद्धालु भगवान नरसिंह के दर्शनों के लिए यहां पहुंचते हैं। मेले के दौरान जहां स्थानीय लोग अपनी नई फसल को भगवान नरसिंह के चरणों में चढ़ाते हैं तो वहीं भगवान का आशीर्वाद भी प्राप्त कर धन्य होते हैं। 
मेले के दौरान टमक बजाता श्रद्धालु (फाईल फोटो)
मेले के दौरान सदियों से बजती आ रही टमक की धमक आज भी पिपलू मेला में वैसे ही है जैसे सैंकडों वर्ष पूर्व रही है। लोग आज भी टमक की मधुर धुन में रंगे हुए नजर आते हैं। मेले के दौरान इलाके के विभिन्न स्थानों से नाचने गाने वालों की अलग-अलग टोलियां वाद्ययंत्रों के साथ एक दूसरे को ललकारती हुई पीपल की परिक्रमा करती थी, परन्तु आज वर्षों पुरानी यह परंपरा भी अब लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है। मेले के दौरान जगह-जगह लोगों द्वारा छबीलें भी लगाई जाती हैं। भले ही आज बदलते वक्त के साथ-साथ हमारी परंपराएं काफी तेजी से बदली है लेकिन पिपलू मेला अभी भी अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोए हुए है।
मेले के स्वरूप को बढ़ावा देने के लिए कुछ वर्ष पूर्व इसे प्रदेश सरकार ने जिला स्तरीय मेला घोषित कर दिया। अब मेले के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त विभिन्न खेल स्पर्धाएं भी अयोजित की जाती हैं। इस वर्ष मेले का आयोजन 4 से 6 जून के दौरान किया जा रहा है।









Friday, 5 May 2017

स्वयं सहायता समूह बनाकर देहलां की महिलाओं ने स्वावलंबन की ओर बढ़ाए कदम

गांव में ही वाशिंग पाऊडर बनाकर आर्थिकी को प्रदान कर रही है मजबूती
कहावत है यदि व्यक्ति के मन में कुछ करने की चाह हो तो विकट परिस्थितियां भी उसे आगे बढऩे से नहीं रोक सकती हैं। कमोवेश कुछ यही कर दिखाया है ऊना विकास खंड की ग्राम पंचायत लोअर देहलां की 20 ग्रामीण महिलाओं ने। गांव की यह 20 महिलाएं कपडे धोने का वाशिंग पाऊडर (सर्फ) बनाकर न केवल सरकार के महिला शक्तिकरण के उदेश्य को साकार करने में एक कदम आगे बढ़ी है बल्कि साबित कर दिया है कि यदि थोडी सी हिम्मत के साथ सकारात्मक प्रयास किए जाएं तो कुछ करना असंभव नहीं है। आज गांव की यह 20 महिलाएं मिलकर वाशिंग पाऊडर (सर्फ) तैयार कर अपनी सफलता की कहानी को खुद लिखने जा रही हैं।
यह कहानी है ऊना विकास खंड के अंतर्गत ग्राम पंचायत लोअर देहलां की 20 महिलाओं की है। इन महिलाओं ने कृषि विभाग के सहयोग से वर्ष 2016 में बाबा भाई पैहलों स्वयं सहायता समूह बनाया। समूह बनने के बाद सभी महिलाओं ने एक सौ रूपये प्रतिमाह की दर से बचत शुरू की तथा बचत को रखने के लिए स्थानीय कांगडा सहकारी बैंक की शाखा में बचत खाता खोल दिया। महिलाओं ने एक दूसरे की आर्थिक मदद करने के लिए दो प्रतिशत पर इंटरलोनिंग तथा समूह से बाहर के लोगों को पांच प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण मुहैया करवाने की शुरूआत की। इससे न केवल समूह बल्कि गांव की अन्य महिलाओं को जरूरत पडने पर सस्ती ब्याज दरों पर ऋण की सुविधा गांव में ही उपलब्ध हो गई। लेकिन समूह की महिलाओं में इससे भी आगे बढक़र कुछ बेहतर करने का जज्बा था, लेकिन सही मार्गदर्शन न होने के कारण वह अनिर्णय की स्थिति में रही। लेकिन समूह के हौंसले को उस वक्त एक नया लक्ष्य मिल गया जब फरवरी, 2017 में उन्हे कृषि विभाग के सौजन्य से एक दिन का कपडे धोने का वाशिंग पाऊडर तैयार करने का प्रशिक्षण हासिल हुआ। प्रशिक्षण के बाद समूह की सभी महिलाओं ने सर्फ तैयार करने का निर्णय लिया। आज समूह की महिलाएं गांव में ही वाशिंग पाऊडर (सर्फ) तैयार कर धीरे-धीरे अपनी आर्थिकी को मजबूती प्रदान करने में लगी हैं।
स्वयं सहायता समूह की महिलाएं तैयार वाशिंग पाउडर के साथ
जब इस बारे समूह की प्रधान अनीता कुमारी से बातचीत की तो उनका कहना है कि समूह की सभी महिलाएं स्थानीय मंदिर में महीने या फिर दो सप्ताह बाद इक्टठी होकर वाशिंग पाउडर को तैयार करती हैं तथा एक बार में कम से कम एक क्विटल तक वाशिंग पाऊडर तैयार किया जाता है। उनका कहना है कि समूह ने फरवरी, 2017 से अब तक लगभग पांच क्विंटल वाशिंग पाऊडर तैयार किया है जिसमें से लगभग साढ़े चार क्विंटल तक बिक चुका है। उनका कहना है कि उनका सर्फ प्रति किलो 45 रूपये की दर से गांव व आसपास के क्षेत्रों में बिक रहा है। उनका कहना है कि वाशिंग पाऊडर तैयार करने के लिए कच्चे माल को प्रदेश के बाहर जाकर लुधियाना या फिर दूसरे शहरों से लाना पडता है जिससे डिटर्जेंट तैयार करने की न केवल लागत बढ़ जाती है बल्कि मुनाफे में भी कमी आती है। उनका कहना है कि आज समूह के लिए सबसे बडी समस्या सर्फ की पैकेजिंग की है। उनका कहना है कि यदि सरकार उन्हे पैकेजिंग की ट्रेनिंग मुहैया करवा दे तो वह अपने उत्पाद को बडी कंपनियों की तर्ज पर मार्केट में उतार सकती हैं। उन्होने इस बारे महिलाओं को ग्रामीण स्तर पर ही बेहतर प्रशिक्षण करवाने की वकालत भी की ताकि समूह वर्तमान बाजार की जरूरतों के आधार पर वाशिंग पाऊडर का उत्पादन कर सके।
जब इस बारे स्थानीय पंचायत प्रधान देवेन्द्र कुमार से बातचीत की तो उन्होने समूह के प्रयासों की सराहना की तथा कहा कि समूह द्वारा तैयार उत्पाद ग्रामीण स्तर पर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे इसके लिए पंचायत उन्हे डिटर्जेंट विक्रय के लिए एक बेहतर स्थान मुहैया करवाने का प्रयास करेगी। उन्होने बताया कि पंचायत में महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से सशक्त बनाने के लिए अबतक राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम) के तहत 10 समूहों का गठन कर लिया गया है।







Monday, 27 March 2017

प्रतिस्पर्धा के माहौल में बच्चों से अत्यधिक अपेक्षाएं कितनी उचित

देश में प्रतिवर्ष मार्च व अप्रैल महीनों में परीक्षाओं का दौर शुरू होते ही छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं भी बढ़ जाती हैं। इन वार्षिक एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव के चलते व उससे उत्पन्न होने वाले मानसिक तनाव के कारण प्रतिवर्ष सैंकडों छात्र आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठा लेते हैं। ऐसे में यदि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट का विश्लेषण करें तो वर्ष 2014 के दौरान देश में कुल आत्महत्याओं में से 1.8 फीसदी आत्महत्याएं परीक्षाओं में फेल होने के कारण सामने आई है जबकि यही आंकडा वर्ष 2015 में बढक़र 2 फीसदी हो गया। वर्ष 2014 में परीक्षाओं में फेल होने के कारण 2403 के मुकाबले 2015 में 2646 मामले आत्महत्या के सामने आए हैं। जिनमें से आधे से अधिक मामले 18 वर्ष के कम आयु वाले बच्चों व किशोरों के हैं।
ऐसे में देश के बुद्धिजीवियों व चिंतकों के सामने यह प्रश्न आकर खडा हो जाता है कि आखिर देश के बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति के लिए क्या हमारी परीक्षा प्रणाली दोषी है या फिर बदलते परिवेश में हमारा पारिवारिक व सामाजिक ढ़ांचा उन्हे ऐसे आत्मघाती पग उठाने के लिए बाध्य करता है। ऐसे में यदि स्कूली स्तर की परीक्षाओं की बात करें तो वर्ष भर की पढ़ाई का मूल्यांकन तीन घंटों में कर लिया जाता है। दूसरा बच्चा वर्ष भर नियमित तौर पर कक्षाएं लगाता है तथा परीक्षा के दौरान बीमारी या अन्य पारिवारिक समस्या के कारण ठीक से परीक्षा नहीं दे पाता है तो स्वभाविक है कि वर्ष भर की मेहनत चंद घंटों में ही धराशायी हो जाती है। तीसरा प्रमुख कारण बदलते सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मां-बाप की ऊंची व बढ़ती अपेक्षाओं का दबाव भी बच्चों को झेलना पड रहा है। ऐसे में यदि किसी एक कारण से भी बच्चा वार्षिक परीक्षाओं में बेहतर न कर पाए तो प्रतिभाशाली व होनहार बच्चा भी मानसिक व सामाजिक दबाव का शिकार आसानी से हो सकता है। जिसका नतीजा कई बार बच्चों द्वारा आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने के तौर पर सामने आता रहता है।
ऐसे में समय-समय पर हुए शैक्षिक अध्ययनों की बात करें तो परीक्षाओं के दौरान बेहतर प्रदर्शन करने तथा मनचाहे प्रोफैशनल कोर्स में दाखिला पाने को लेकर बच्चों पर मानसिक तनाव के चलते आत्महत्या करने के मामले बढ़ जाते हैं। ऐसे अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि बच्चों में मानसिक दबाव के लिए परिवार और समाज का बेहताशा प्रतिस्पर्धी माहौल भी कम जिम्मेदार नहीं रहता है। इसके अलावा सामाजिक ढ़ांचे में आ रहे बदलाव, संयुक्त परिवारों का लगातार बिखराव, शहरों में मां-बाप का नौकारीपेशा होना इत्यादि कारणों से बच्चे लगातार उपेक्षा के शिकार होते हैं। संयुक्त परिवारों के कारण बुजुर्गों की उपलब्धता जहां बच्चों को कई तरह के मानसिक दबाव झेलने में कारगर साबित होती हैं तो वहीं समय-समय मार्गदर्शन भी मिलता रहता है। लेकिन बदलते दौर में न्युक्लियर परिवारों के बढ़ते चलन के कारण न केवल बच्चे मानसिक तनाव को झेलने में कमजोर पडते दिखाई दे रहे हैं बल्कि अभिभावकों की बच्चों से उनकी क्षमताओं व रूचिओं के विपरीत बढ़ती अपेक्षाएं आग में घी का काम कर रही हैं। साथ ही बच्चों का खेल मैदान से दूर होना, टीवी व मोबाइल में अधिक समय तक कार्यशील रहना इत्यादि भी बच्चों को मानसिक व शारीरिक तौर पर कमजोर बना रहा है। 
ऐसी परिस्थितियों में शिक्षा ढांचे से जुडे तमाम एजैन्सियों के साथ-साथ समाज व अभिभावकों का व्यापक तौर पर जागरूक होना लाजमी हो जाता है। हमें अपनी भावी पीढ़ी को जीवन के उस सत्य से रू-ब-रू करवाने में किसी प्रकार की झिझक नहीं होनी चाहिए जिसने जिंदगी को केवल परीक्षाओं में उच्च अंक व मनचाहे प्रोफैशन तक ही सीमित कर दिया है। हमें भावी पीढ़ी को इस बात से बखूवी परिचय करवाना चाहिए कि व्यक्ति का जीवनकाल अपने आप में एक बहुत बडी परीक्षा है जिसका वह पग-पग पर सामना करते हुए जीवन के संघर्ष में विजयी होता है। बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ-साथ उस व्यावहारिक ज्ञान की जरूरत है जिससे हमारी नौजवान पीढ़ी लगातार अनभिज्ञ होती जा रही है। युवाओं में कडी मेहनत के साथ-साथ जीवन में संपूर्ण निष्ठा, तप, त्याग, लगन, धैर्य, ईमानदारी तथा इन सबसे ऊपर नैतिकता व आदर्शों का सोपान करवाना होगा जिसे हमने बनावटी जीवन की चकाचौंध में कहीं पीछे छोड दिया है। आज हमने जीवन की सफलता को महज अंकों, ऊंचे पद व मनचाहे प्रोफैशन को पाने तक ही सीमित कर दिया है, लेकिन जीवन का वास्तविक सत्य इनसे भी कहीं आगे है। जरूरत है बच्चों व युवाओं को उन महान हस्तियों की जीवनी से अवगत करवाने की जो जिन्दगी के शुरूआती दौर में असफलता के बावजूद जिंदगी के अंतिम मुकाम में सफल होकर दुनिया के लिए मिसाल बन गए।
ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि जहां हमारे शिक्षण संस्थानों को बच्चों में कठिन परिश्रम, ईमानदारी व उच्च मूल्यों एवं आदर्शों का समावेश गंभीरता से करना होगा तो वहीं अभिभावकों को भी बच्चों की रूचि, क्षमता व योग्यता को ध्यान में रखकर ही लक्ष्यों का निर्धारण करना चाहिए। अन्यथा क्षमता से अधिक महत्वकांक्षा प्रतिवर्ष सैंकडों बच्चों को असमय ही मौत के आगोश में समाने को मजबूर करती रहेगी।


(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 7 मार्च, 2017 एवं दैनिक आपका फैसला, 15 मार्च, 2018 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)

Wednesday, 22 February 2017

जिला ऊना में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान के आ रहे सकारात्मक परिणाम

राष्ट्रीय स्तर पर कन्याओं को बचाने के लिए बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान को चलाया गया जिसके तहत देश भर के उन चुनिंदा जिलों को शामिल किया गया है जहां बेटियों की संख्या बेटों के मुकाबले लगातार कम हुई है। इसी अभियान के तहत प्रथम चरण में हिमाचल प्रदेश के जिला ऊना को शामिल किया गया है, जहां वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर 0-6 वर्ष आयु वर्ग में कन्या शिशु लिंगानुपात प्रति हजार लडकों पर  870 दर्ज किया गया है। जिला ऊना का शिशु लिंगानुपात न केवल राष्ट्रीय औसत 914 से कम आंका गया है बल्कि हिमाचल प्रदेश के औसत शिशु लिंगानुपात 906 सहित अन्य जिलों के मुकाबले भी काफी कम रहा है। लेकिन गत दो वर्षों के दौरान जिला में चले बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान के अब कई सकारात्मक परिणाम भी सामने आने लगे हैं। ऐसे में यदि स्वास्थ्य विभाग के प्रारंभिक आंकडों की बात करें तो जिला ऊना में कन्या शिशु लिंगानुपात की दर 900 से ऊपर का आंकडा पार कर गई है। यह आंकडा न केवल एक सुखद एहसास दे रहा है बल्कि बेटियों के प्रति लोगों में व्यापक जन जागरूकता लाने में भी कामयाब हुआ है।
जिला प्रशासन द्वारा बेटियों के प्रति जागरूकता लाने के लिए जहां पंचायत व उप-मंडल स्तर पर विशेष कार्यबल गठित किए गए हैं तो वहीं पंचायतों व ग्राम सभाओं के माध्यम से जन साधारण को भी जोडा गया। इस अभियान के तहत जहां जिला के तमाम शिक्षण संस्थानों में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का संदेश विद्यार्थियों एवं शिक्षकों के माध्यम से बडे पैमाने पर घर-घर पहुंचाया गया है तो वहीं कन्या भ्रूण हत्याओं पर भी विभिन्न स्तरों पर पैनी नजर रखी गई। इतना ही नहीं जिला प्रशासन ने बेटी बचाओ का संदेश लोगों तक पहुंचाने तथा बेटियों के प्रति व्याप्त रूढिवादी नजरिये में बदलाव लाने के दृष्टिगत विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से जिला का नाम रोशन करने वाली पांच बेटियों के चित्रों को प्रदर्शित करते हुए लगभग 25 बडे-बडे होर्डिंगस विभिन्न सार्वजनिक स्थानों पर स्थापित किए गए हैं। इन होर्डिंगस में आईपीएस, जज तथा आर्मी ऑफिसर बन जिला का नाम चमकाने वाली पांच बेटियों की तस्वीरें प्रदर्शित की गई हैं। इसके अलावा जिला प्रशासन द्वारा बेटी बचाओ पर एक कॉलर टयून भी बनाई गई है जो लोगों के मोबाइल फोन में लगातार बज रही है। यह कॉलर टयून जिला ऊना सहित पूरे प्रदेश भर में न केवल लोकप्रिय हुई है बल्कि बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का संदेश आम जनमानस तक आसानी से पहुंचे इस लक्ष्य में भी सफल हो पा रही है। 
जिला प्रशासन ने राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रदेश व जिला का नाम रोशन करने वाली बेटियों को प्रोत्साहित करने के लिए एक लाख रूपये का ईनाम देने की योजना भी बनाई है ताकि न केवल प्रतिभावान बेटियों को प्रोत्साहित किया जा सके बल्कि लोगों के नजरिए में बेटियों के प्रति व्याप्त मानसिकता में भी बदलाव लाया जा सके। इसके अलावा बेटियों के महत्व को पर्यावरण से जोडते हुए एक वन बेटियों के नाम के तहत जहां बेटियों को समर्पित विशेष आरक्षित वनक्षेत्र में पौधारोपण किया गया तो वहीं इन्हे बचाने के लिए समाज की व्यापक सहभागिता भी सुनिश्चित बनाई गई। 
जिला में बेटी बचाओ अभियान के ओर भी सकारात्मक व बेहतर परिणाम आए इसके लिए जिला प्रशासन ने कारगर योजना भी बनाई है। इस बारे उपायुक्त विकास लाबरू का कहना है कि जिला में कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृति पर पूरी तरह से अंकुश लगाने के लिए कन्या शिशुलिंगानुपात की दृष्टि से चिन्हित 75 ऐसी अति संवेदनशील ग्राम पंचायतों में चार स्तर में विशेष मुहिम चलाई जाएगी। जिसके तहत पहले स्तर में बाल विकास परियोजना अधिकारियों एवं स्वास्थ्य विभाग की आशा वर्कर्ज के माध्यम से गर्भवती महिलाओं का दोहरा पंजीकरण किया जाएगा तथा पंजीकरण के बाद लगातार ट्रैक किया जाएगा कि उस परिवार में बच्चे ने जन्म लिया है या फिर गर्भवती महिला की लिंग जांच करवाकर गर्भपात तो नहीं करवाया गया है। इसके साथ ही रैड जोन में उन परिवारों को चिन्हित किया जाएगा जहां पहले ही 2 या उससे अधिक बेटियां हैं। इसके बाद येलो जोन में एक बेटी वाले परिवार को चिन्हित करके उपायुक्त स्वयं ऐसे परिवारों से रू-ब-रू होकर समाज में बेटियों का महत्व भी बताएंगे और साथ ही कन्या भ्रूण हत्या जैसे सामाजिक बुराई से दूर रहने के लिए भी प्रेरित करेंगे। चौथे स्तर के तहत जिन पंचायतों में शिशु लिंगानुपात कम हो रहा है वहां सीडीपीओ और संबंधित सुपरवाइजर द्वारा कारणों का आकलन किया जाएगा और ठोस रणनीति तैयार की जाएगी।
ऐसे में जिला प्रशासन व यहां के लोगों की व्यापक जन सहभागिता से वह दिन दूर नहीं होगा जब ऊना जिला प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के उन चुनिंदा जिलों में शुमार होगा जहां बेटियों की संख्या बेटों के मुकाबले कमतर नहीं रहेगी।


(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 22 फरवरी, 2017 एवं दैनिक आपका फैसला, 23 फरवरी, 2017 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)

Tuesday, 24 January 2017

बेटियों के प्रति सामाजिक मानसिकता में बदलाव जरूरी

आज हम ज्ञान व तकनीक की 21वीं सदी के उस दौर में जी रहे हैं जहां हमारे पास सुख सुविधाओं की वह तमाम तकनीकें व साधन उपलब्ध हैं जिनकी हम कभी परिकल्पना करते थे। हमारे पास गाडी, बंगला, धन-दौलत यहां तक की समाज में दंभ भरने के लिए ऊंचा पद, मान मर्यादा या यूं कहें की वह सभी तमाम साजो-सामान व साधन मौजूद हैं जो हमें इस सांसारिक जीवन मेंं प्रतिष्ठा दिला सकते हैं। लेकिन इन तमाम सुख-सुविधाओं के शोर शराबे व तडक़ भडक़ में लगता है कि हमारी मानवीय संवेदनाएं भी समाप्त हो चली हैं या फिर संसारिक सुख की इन भौतिक सुविधाओं व लालसाओं के आगे कहीं गौण सी हो गई हैं। एक तरफ जहां हमारा समाज चांद ही नहीं बल्कि मंगल ग्रह की सतह में पहुंचकर अपनी प्रतिभा का डंका बजा कर गोर्वान्वित महसूस करता हैं लेकिन इसी समाज में जब कोई नन्ही बेटी मां के गर्भ में पलने लगती है तो तमाम आधुनिक यंत्र व सुविधाएं उसे इस संसार में न आने देने के लिए सक्रिया हो जाती हैं जिससे हमारा सिर लज्जा से झुक जाता है। 
हमारे समाज में आए दिन बेटियों के प्रति कन्या भ्रूण हत्याएं, नवजात बच्चियों को कूडेदान या सूनसान स्थान पर छोड देना, दहेज प्रथा जैसी क्रूर व रूह कंपा देने वाली घटनाएं न केवल इंसानियत को शर्मशार करती रहती हैं बल्कि ऐसे अमानवीय वाक्यात हमारे इंसान होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं? अब इसे इंसान की क्रूरता ही कहें कि हमारे समाज मेें बेटी को जन्म लेने के लिए कितना संघर्ष करना पड रहा है। ऐसे में यदि कोई बेटी जन्म ले भी लेती है तो हमारा सामाजिक परिवेश बेटी को पराया धन कह कर न केवल उसके प्रति अपनी रूढि़वादी मानसिकता का परिचय देता है बल्कि उसके के लिए वह लगाव व प्रेम उडेलने में भी पीछे रह जाता हैं जिसकी की वह सही मायने में हकदार होती है। वास्तविक सच तो यह है कि बेटी के जन्म लेने पर समाज उस गर्म जोशी के साथ स्वागत क्यों नहीं कर पाता जितना हम अक्सर बेटे के आने की खुशी में करते हैं। दुर्गा व लक्ष्मी की पूजा करने वाले हमारे समाज में बेटियों के प्रति व्याप्त यह मानसिकता समझ से परे लग रही है। लेकिन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का झंडा गाडने वाली हमारी बेटियों के प्रति समाज की व्याप्त रूढि़वादी मानसिकता में व्यापक बदलाव लाने का समय आ गया है। 
वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में सरकारी प्रयासों से बेटियों को समाज में स्थापित करने तथा उन्हे वह मान सम्मान दिलाने के लिए लगातार विभिन्न योजनाओं व कार्यक्रमों के माध्यम से प्रयास हो रहे हैं जिनकी वह हकदार है। बात विभिन्न सरकारी योजनाओं की हो या फिर पढ़ाई लिखाई से लेकर सरकारी नौकरियों में तरजीह देने की। इन सब प्रयासों के चलते भले ही आज समाज में बेटियों के जन्म से लेकर शिक्षा के प्रकाश तक हमारा समाज जागरूक अवश्य हो रहा है, लेकिन क्या सही मायने में लोगों की मानसिकता में वह बदलाव आ पाया है जिसके लिए हम लगातार प्रयासरत हैं? कहीं ऐसा तो नहीं की सख्त कानूनी प्रावधानों के चलते समाज की सोच व भूमिका महज कन्या भ्रूण हत्याओं सहित बेटियों व महिलाओं के प्रति हो रहे सामाजिक कुकृत्यों पर पर्दा लाडने मात्र तक ही सीमित होकर तो नही रह गई है? भले ही आज हमारी बेटियां नितदिन आगे बढ़ रही हैं लेकिन उसी समाज में बेटियों की घटती संख्या हमारे माथे पर चिंता की सिकन भी खींच रही हैं। लेकिन ऐसे में अब वक्त आ गया है कि समाज को बेटियों के प्रति व्याप्त उन कारणों की तह तक जाना होगा जो रूढिवादी सामाजिक मान्यताओं व मानसिकता से ग्रस्त सोच के बदलाव में अक्सर रोडा बन कर खडे हो जाते हैं।
कानूनी स्तर पर बेटियों को संपति में बराबर हक, समाज में आगे बढऩे के लिए बेहतरीन अवसर मिले इसके लिए समाज के हर तबके को आगे आना होगा। ऐसे में बात शासन व प्रशासन की हो या फिर परिवार व समाज में समान अवसर प्रदान करने की, इस दिशा में समय-समय पर समाज सुधारकों, बुद्धिजीवियों, स्वयं सेवी व गैर सरकारी संगठनों तथा सरकार के सामूहिक प्रयासों के कारण आज महिलाएं आगे आ भी रही हैं तथा कई मामलों में बेटियों ने समाज में अपने आपको स्थापित भी किया है। लेकिन इसके बावजूद भी बेटियों के प्रति व्याप्त दोयम दर्जे वाली मानसिकतायुक्त गंभीर व अति संवेदनशील मुददे पर व्यापक चर्चा करने की पूरी गुंजाईस दिख रही है। 
भले ही व्यापक जन जागरूकता के कारण आज बेटियों के प्रति हीन भावना दिखाना सामाजिक दृष्टिकोण से एक असभ्य माना जाने लगा है। लेकिन अभी भी ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जाएंगें जो इस बात की ओर ईशारा कर रहे हैं कि बेटों की चाहत में हमारा आधुनिक समाज क्या-क्या नहीं कर रहा है। ऐसे में अब जरूरी हो जाता है कि समाज को उन तमाम कारणों की तह तक जाना होगा जो अक्सर बेटियों के पैदा होने से लेकर उनके लालन-पालन में बाधक का कारण बनते हैं। जिसमें बात चाहे दहेज प्रथा, महिला अत्याचार या फिर परिवार व समाज में उत्तराधिकारी की ही क्यों न हो। ऐसे अनगिनत कारण है जिन पर अब सामाजिक स्तर पर व्यापक चर्चा करने का वक्त आ गया है, क्योंकि कानून का पंजा ढ़ीला होते ही कल फिर बेटों की चाहत में बेटियों के दुश्मन नहीं उठ खडे होंगें इस बात की भी क्या गारंटी है?

(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 15 दिसम्बर, 2016 एवं दैनिक आपका फैसला, 20 जनवरी, 2017 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)

Saturday, 14 January 2017

युवाओं को स्वावलंबी बनाने में मददगार साबित हो रही कौशल विकास भत्ता योजना

जिला ऊना में अब तक 13,936 युवाओं पर व्यय किए साढे 11 करोड रूपये
जिला ऊना के तहसील अंब के अंतर्गत अलोह गांव की शहनाज बेगम सुपुत्री कवालखान के लिए हिमाचल सरकार की कौशल विकास भत्ता योजना किसी वरदान से कम साबित नहीं हुई है। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण कभी एक तकनीकी कोर्स तक नहीं कर पाने वाली शहनाज बेगम आज न केवल अपने पांव पर खडी हो सकी है बल्कि आसपास की अन्य लडकियों को भी प्रशिक्षण प्रदान कर पा रही है। यह सब हुआ हिमाचल प्रदेश सरकार की कौशल विकास भत्ता योजना के कारण। 
इस बारे शहनाज बेगम का कहना है कि वह शुरू से ही अपने पांव पर खडी होकर न केवल स्वावलंबी बनना चाहती थी बल्कि परिवार को भी आर्थिक तौर पर स्पोर्ट करना चाहती थी। लेकिन घर की आर्थिक सेहत ठीक न होने के कारण वह आगे कुछ नहीं कर पा रही थी। लेकिन जब उसे प्रदेश सरकार की कौशल विकास भत्ता योजना का पता चला तो उसने सरकार से मान्यता प्राप्त आईटीआई में सिलाई कढाई व ड्रैस मेकिंग कोर्स में दाखिला ले लिया। इस दौरान सरकार द्वारा उसे प्रतिमाह एक हजार रूपये का कौशल विकास भत्ता मिलने से न केवल वह कोर्स के दौरान फीस के अतिरिक्त अपने छोटे-छोटे खर्चों को पूरा करने में कामयाब रही बल्कि परिवार पर भी किसी प्रकार का आर्थिक बोझ नहीं पडा। शहनाज बेगम का कहना है कि आज वह कौशल विकास भत्ता योजना के कारण एक कुशल कारीगर बन पाई है तथा अपनी आर्थिकी को सुधारने के साथ-साथ अन्य लडकियों को भी प्रशिक्षण प्रदान कर स्वावलंबी बना पा रही है।
इसी तरह जिला के तहसील घनारी के अंतर्गत गांव मावा सिंधिया की सोनिया सुपुत्री राम किशन के लिए भी कौशल विकास भत्ता योजना जीवन में एक नई आशा की किरण लेकर आई। मजदूरी कर परिवार का पालन पोषण करने वाले उनके पिता ने कमजोर आर्थिकी के बावजूद सोनिया को 12वीं कक्षा तक की शिक्षा दिलाई, लेकिन आगे की शिक्षा दिलाना न केवल मुश्किल था बल्कि असंभव सा लग रहा था। जबकि सोनिया किसी संस्थान से व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने पैरों पर खडा होना चाहती थी ताकि वह परिवार की आर्थिक तौर पर मदद कर सके। इसी दौरान उसे सरकार की कौशल विकास भत्ता योजना का पता चला तथा संयुक्ता चौधरी हिमोत्कर्ष तकनीकी संस्थान ऊना में सिलाई-कटाई व पोषाक निर्माण का एक वर्षीय कोर्स में दाखिला ले लिया। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद सोनिया ने कुठेडा जसवालां गांव में आठ सौ रूपये प्रतिमाह किराए पर दुकान ली और वस्त्र सिलाई का काम शुरू कर दिया। सोनिया का कहना है कि शुरूआती दौर में इस कार्य में कुछ कठिनाईयां आई लेकिन हिम्मत न हारते हुए आज वह प्रतिमाह दो से तीन हजार रूपये कमा लेती है। साथ ही वह इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय इग्रू से स्नातक की पढ़ाई भी कर रही है। 
इसी तरह लालसिंगी गांव के संदीप कुमार ने डीजल मैकेनिक, मोरवढ भटोली के तरूणदीप ने मैकेनिक इलैक्ट्रानिक्स, भटोली के अच्छर ने इलैक्ट्रीशियन, अजौली के सुखविंद्र कपिला ने फिटर ट्रेड, सेंसोवाल के गुरदीप सिंह ने मैकेनिक इलैक्ट्रॉनिक, अंब के रणधीर सिंह व लोअर बढेडा के राकेश कुमार ने कम्प्यूटर में प्रशिक्षण हासिल कर स्वावलंबी बने हैं। यही कहानी जिला के ऐसे सैंकडो युवाओं की है जिन्होने कौशल विकास भत्ता योजना के माध्यम से तकनीकी प्रशिक्षण हासिल कर आत्मनिर्भर व स्वावलंबी बने हैं।
कौशल विकास भत्ता योजना के तहत सरकार द्वारा किसी मान्यता प्राप्त तकनीकी संस्थान से कोर्स करने पर सामान्य युवाओं को एक हजार जबकि 50 प्रतिशत से अधिक अक्षमता वालों को 15 सौ रूपये प्रतिमाह अधिकत्तम दो वर्ष की अवधि के लिए कौशल विकास भत्ता प्रदान किया जा रहा है। इस योजना से संबंधित अधिक जानकारी के लिए उम्मीदवार अपने नजदीकी रोजगार कार्यालय से संपर्क स्थापित कर सकते हैं। इसके अलावा श्रम एवं रोजगार विभाग की वैबसाईट का भी अवलोकन कर सकते हैं।
क्या कहते हैं अधिकारी
जिला रोजगार अधिकारी ऊना आरसी कटोच का कहना है कि जिला में कौशल विकास भत्ता योजना-2013 के तहत जिला ऊना में वर्ष 2013-14 से लेकर 30 नवम्बर, 2016 तक 13,936 युवाओं को विभिन्न तकनीकी पाठयक्रमों में प्रशिक्षण प्रदान कर लगभग 11 करोड 58 लाख रूपये की आर्थिक मदद उपलब्ध करवाई जा चुकी है। उन्होने बताया कि जिला रोजगार कार्यालय ऊना के माध्यम से 8856 जबकि उप-रोजगार कार्यालय अंब के माध्यम से 5080 युवाओं को कौशल विकास भत्ता प्रदान किया जा चुका है।