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Saturday, 23 July 2016

प्राचीन तालाबों का जीर्णोद्धार, पर्यावरण संरक्षण की एक अनूठी पहल

जिला ऊना में ही नहीं बल्कि हिमाचल प्रदेश के नक्शे में हरोली हलके ने गत तीन वर्षों के दौरान जहां विकास की नई ऊंचाईयों को छूआ है तो वहीं जिस रचनात्मकता के साथ हलके के विकास को पंख लगे हैं, जिसके परिणाम स्वरूप हरोली हलका पूरे प्रदेश भर में एक आदर्श विधानसभा क्षेत्र के तौर पर ऊभर कर सामने आया है। आज इस हलके में औद्योगिक विकास से लेकर शिक्षा के क्षेत्र तक, किसानों के खेत से लेकर प्रशासनिक  ढांचे के विकास में हलके ने अभूतपूर्व तरक्की कर विकास की नई ऊंचाईयों को छुआ है। 
हिमाचल प्रदेश सरकार में काबीना मंत्री एवं स्थानीय विधायक मुकेश अग्रिहोत्री की नई सोच व रचनात्मकता के साथ विकास को एक नई दिशा देकर आज हरोली हलके के प्राचीन तालाबों (टोबों) को विकास के नवीनतम मॉडल के साथ न केवल सहेजा जा रहा है बल्कि एक नई दिशा देकर इन्हे खूबसूरत सैरगाह के साथ-साथ पर्यटक केन्द्रों के तौर पर भी विकसित किया जा रहा है। आज हलके में कांगड के तालाब से लेकर पूबोवाल, ललडी, सलोह, गोंदपुर बुल्ला, गोंदपुर जयचंद, हीरां थडा, पंजाबर, दुलैहड के प्राचीन तालाबों (टोबों) को बेहद खूबसूरती के साथ विकसित किया गया है। इन तालाबों के जीर्णोद्धार के कार्य कर जहां तालाब के चारों ओर स्थानीय लोगों की सुविधा के लिए खूबसूरत ट्रैक का निर्माण किया गया है तो वहीं बैठने के लिए लॉन, बैंच व रात्रि के समय सोलर लाईटों का भी प्रबंध किया गया है। साथ ही इन तालाबों में स्थानीय पंचायत की आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए मछली पालन को भी प्रोत्साहित किया गया है। इससे न केवल स्थानीय पंचायत को आय के नए स्त्रोत के तौर इन तालाबों का महत्व बढा है बल्कि यह गांव की आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र बिन्दु बनकर भी उभर कर सामने आए हैं। 
जीर्णोद्धार से पहले तालाब का दृश्य 
आज हरोली हलके का शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जहां पर प्राचीन तालाब (टोबे) न हो। भले ही वक्त के बदलाव के साथ इन तालाबों का महत्व कम हुआ हो लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से ये तालाब आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने वह पहले हुआ करते थे। बदलते वक्त की इस तेज रफतार भरी जिन्दगी में इन प्राचीन तालाबों के रखरखाव, उत्थान व जीर्णोद्धार के लिए भले ही श्रमदान कर अब आधुनिक समाज के लोग आगे आने से कतराते रहे हों, लेकिन उद्योग मंत्री मुकेश अग्रिहोत्री ने हरोली हलके की इस प्राचीन विरासत को सहेजने में न केवल प्राथमिकता के साथ कार्य किया है बल्कि टौबों के जीर्णोद्धार कार्यों में निजी तौर पर दिलचस्पी लेकर पर्यावरण के प्रति इनके महत्व को भी बखूवी पहचाना है। मुकेश अग्रिहोत्री की इसी दूरदर्शी सोच का ही नतीजा है कि जहां हरोली हलके की प्राचीन तालाबों (टोबों) को न केवल एक नया जीवन मिला है बल्कि विकास के आईने में रचनात्मकता का भाव भी साफ झलकता है। हलके के प्रति इसी दूरदर्शी सोच का नतीजा है कि आज हरोली के कई तालाबों का जीर्णोंद्धार संभव हुआ है बल्कि इस प्राचीन विरासत को नए अंदाज में सहेजकर खूबसूरत भी बनाया गया है। 
जीर्णोंद्धार के बाद तालाब का दृश्य
वक्त के साथ नई पीढ़ी के लिए इन प्राचीन धरोहरों को सहेजना व संवारना इतना महत्वपूर्ण न रह गया हो, लेकिन हम यह क्यों भूल रहे हैं इन तालाबों के कारण न केवल स्थानीय लोगों के साथ-साथ मवेशियों एवं जंगली जानवरों को पानी की समस्या से निजात मिलती है बल्कि पर्यावरण को संरक्षित करने में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इन्ही तालाबों का नजीता रहा है कि जहां भू-जल का स्तर बेहतर बना रहता है तो वहीं खेतीबाडी से लेकर पशुपालन में इनकी अहम भूमिका रहती है। आज पूरी दुनिया सहित भारत के कई हिस्सों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची है, लोग एक-एक पानी की बूंद को तरस रहे है, ऐसे में अपनी प्राचीन विरासत टोबों को सहेजकर न केवल आने वाली पीढिय़ों को इन तालाबों के जीर्णोद्धार के माध्यम से युवा पीढ़ी को जागरूक किया है, बल्कि पर्यावरण व वन्य जीवों को बचाने में भी अपना अहम योगदान दिया है।
एक खूबसूरत तालाब का दृश्य
इस तरह मुकेश अग्रिहोत्री ने विकास के आईने में हरोली हलके की प्राचीन धरोहर तालाबों का जीर्णोद्धार कर न केवल बुजुर्गों की अनमोल विरासत को सहेजा है बल्कि हरोली हलके के यह प्राचीन तालाब फिल्मी दुनिया के लोगों के लिए पसंदीदा स्थल के तौर पर भी उभरे हैं जिससे इस हलके को पर्यटन के क्षेत्र में भी एक नई उडान मिली है। 
इस बारे उद्योग मंत्री मुकेश अग्रिहोत्री का इन तालाबों को नया स्वरूप देने के पीछे कहना है कि पर्यावरण की दृष्टि से जहां इन प्राचीन तालाबों की हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है तो वहीं हलके की जनता को आधुनिक शहरों की भीडभाड व प्रदूषण भरी जिन्दगी से दूर गांव में ही वह तमाम सुविधाएं मुहैया करवा दी जाएं जिनके लिए लोग अकसर शहरों की ओर रूख करते हैं।








Wednesday, 13 July 2016

बुढ़ापे में देवराज व बलदेव चंद के लिए वृद्धावस्था पैंशन बनी एकमात्र सहारा

चालू वित वर्ष के दौरान जिला में सामाजिक सुरक्षा पैंशन के तहत 22062 लोगों पर व्यय होंगें 20 करोड रूपये
जिला ऊना के गगरेट विकास खंड की दूरदराज ग्राम पंचायत नंगल जरियालां के वार्ड नम्बर तीन के मुहल्ला छैवालिया के बीपीएल परिवार में शामिल निवासी देवराज व उनकी धर्मपत्नी भगवती देवी के लिए जीवन के आखिरी पडाव में सरकार की सामाजिक सुरक्षा पैंशन जीने का एकमात्र सहारा बनी है। नाई की दुकान चलाकर गुजर बसर करने वाले देवराज की कुछ वर्ष पहले आंखों की रोशनी चली गई जिसके कारण वह अपना काम करने से भी वंचित हो गए। परिवार में कोई दूसरा सदस्य न होने के कारण देवराज की मुश्किलें बढ़ती गई तथा इस मंहगाई के जमाने में गुजर बसर करना मुश्किल होता चला गया। परन्तु ऐसे में सरकार की सामाजिक सुरक्षा पैंशन इस वृद्ध दंपति के लिए जीने का एकमात्र सहारा बन कर आई है। आज देवराज व उनकी धर्मपत्नी को सरकार की ओर से मिलने वाली इस सामाजिक सुरक्षा पैंशन के कारण न केवल उनका चूल्हा जलता है बल्कि  जिंदगी की अपनी अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए भी वह इसी पैंशन पर निर्भर हैं।  
कमोवेश यही कहानी इसी जिला के हरोली विकास खंड के गांव नथूरे ग्राम पंचायत हीरां थडा के 82 वर्षीय बलदेव चंद की है। 4 बेटियों व एक बेटे के पिता बलदेव चंद ने ताउम्र मेहनत मजदूरी कर परिवार का पालन पोषण किया तथा बच्चों को अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार पढ़ाई-लिखाई करवाकर उनकी शादी कर उनके परिवारों को बसाया। आज उनके सभी बच्चे अपने-अपने परिवारों के साथ खुशी-खुशी रह रहे हैं, लेकिन जीवन के इस अंतिम पडाव में बलदेव चंद व उनकी पत्नी के लिए जिंदगी उम्र बढऩे के साथ-साथ पहाड सी चुनौती बनती गई। बढ़ती उम्र के साथ-साथ जहां वह काम करने में असमर्थ होते चले गए तो वहीं आय का कोई दूसरा साधन न होने के कारण इस बुजुर्ग दंपति की मुश्किलें भी लगातार बढ़ती चली गई। लेकिन ऐसे में इस बुजुर्ग दंपति के लिए भी सरकार की सामाजिक सुरक्षा पैंशन सहारा बनकर आई। आज बलदेव चंद को प्रतिमाह सरकार की ओर से 12 सौ रूपये की दर से सामाजिक सुरक्षा पैंशन मिल रही है।
इस बारे देवराज व बलदेव चंद का कहना है कि सरकार द्वारा गरीब व जरूरतमंदों विशेषकर 80 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए बिना किसी आय सीमा के आरंभ की गई यह सामाजिक सुरक्षा पैंशन वास्तव में ही सहारा बन कर आई है। इस बारे उनकी सरकार से मांग है कि वृद्धावस्था के कारण बुजुर्ग लोगों की विभिन्न समस्याओं को ध्यान में रखते हुए पैंशन का भुगतान समय पर उनके घरद्वार पर ही हो जाना चाहिए ताकि उन्हे पैंशन की धनराशि लेने के लिए इधर-उधर न जाना पडे। ऐसे में देवराज व बलदेव चंद की तरह जिला ऊना में सैंकडों गरीब, जरूरतमंद व्यक्ति एवं परिवार हैं जिनके जीवन में सरकार की यह सामाजिक सुरक्षा पैंशन जिंदगी के इस आखिरी पडाव में आर्थिक सहारा बनकर खडी हुई है। 
जिला ऊना में वर्ष 2015-16 के दौरान विभिन्न सामाजिक सुरक्षा पैंशन के तहत 20683 लोगों को लाभान्वित कर लगभग साढे 15 करोड रूपये की आर्थिक सहायता मुहैया करवाई गई है। जिसमें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पैंशन के 5543, वृद्धावस्था के 6673, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पैंशन के 1929, विद्यवा पैंशन के 3860, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय अपंग पैंशन के 51, अपंग राहत भत्ता के 2582 तथा कुष्ठ रोगी राहत भत्ता के 45 मामले शामिल हैं।
जिला कल्याण अधिकारी ऊना असीम सूद ने बताया कि जिला में चालू वित्त वर्ष के दौरान सरकार ने 2594 नए पैंशन के मामलों को स्वीकृति प्रदान कर कुल 22062 लोगों को सामाजिक सुरक्षा पैंशन पर लगभग 20 करोड रूपये की धनराशि व्यय की जाएगी। उन्होने बताया कि वर्तमान सरकार ने सामाजिक सुरक्षा पैंशन को साढ़े चार सौ से बढ़ाकर 650 सौ रूपये प्रतिमाह जबकि 80 वर्ष या इससे अधिक उम्र तथा 70 प्रतिशत से अधिक अक्षमता वालों के लिए यह राशि आठ सौ रूपये से बढाकर 12 सौ रूपये प्रतिमाह कर दी है।
इस तरह जिला ऊना में हजारों गरीब व जरूरतमंद लोगों के लिए सरकार की सामाजिक सुरक्षा पैंशन जीवन के आखिरी पडाव में आर्थिक सुरक्षा के तौर पर सहारा बनकर आई है।








Friday, 1 July 2016

शैक्षणिक संस्कार बने बुजुर्गों का सम्मान

वृद्धावस्था मानव जीवन की एक ऐसी अवस्था होती है, जिसमें बुजुर्गों को न केवल आर्थिक बल्कि भावनात्मक व सामाजिक सुरक्षा की जरुरत होती है। परन्तु पिछले कुछ दशकों में तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य के कारण हमारे समाज में बुजुर्गों के प्रति न केवल संवेदनहीनता बढ़ी है बल्कि जीवन के अन्तिम पड़ाव में खड़े हमारे बुजुर्गों की स्थिति दयनीय हो चली है। कितने दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि जिन्होने बड़े लाड़-प्यार से बच्चों को पाला पोसा व बड़ा कर समाज में एक काबिल इन्सान बनाया वही लोग जीवन की आपाधापी, व्यस्तता व घरों से मीलों दूर बड़े-2 शहरों यहां तक कि विदेशों में जाकर अपने बुजुर्गों के प्रति कर्तव्यों को भूलते नजर आ रहे हैं। अब हम इसे समय की पुकार कहें या फिर जिन्दगी की लड़ाई में हारती मानवता। कारण कुछ भी हो सकते हैं, परन्तु यहां यह तर्क बिल्कुल ठीक बैठता है कि बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकरण व आधुनिकता की इस चकाचौंध में जहां हमारे समाज में संयुक्त परिवार की सदियों पुरानी संस्कृति एकल परिवारों की ओर बढ़ी है, तो वहीं घर व समाज में बड़े-बुजुर्गों के प्रति हमारे संबंध भी बदलते नजर आ रहे हैं। ऐसा एक वक्त था जब संयुक्त खुशहाल परिवार, जहां सारे सदस्य एक साथ खाना खाते थे, एक जगह एक ही देवी-देवता की पूजा पाठ में शरीक होते थे, दादा-दादी के मार्गदर्शन, लाड़ व प्यार में बच्चे बड़े होते थे, वहां अब इस प्रेम-मोहब्बत की जगह स्वार्थ और संकीर्णता का बोलवाला हो गया है और घर-परिवार, समाज में कल का सम्मानित बुजुर्ग बेगानेपन और बोझ समझे जाने की इस अहसनीय मानवीय पीड़ा से टूटता चला जा रहा है।जनगणना-2011 के आंकड़ों के अनुसार देश में प्रजननदर घट रही है, जिससे बच्चों की आबादी घटनी और बूढ़ों की बढऩी शुरु हो गई है। अनुमान है कि वर्ष 2026 तक देश में बूढ़ों की संख्या लगभग 17.5 करोड़ हो जाएगी। वर्तमान में देश की कुल आबादी का 7.3 फीसदी हिस्सा बुजुर्गों का है जो लगभग 9 करोड़ बनता है जो 2026 में लगभग 12.4 प्रतिशत के साथ 17.5 करोड़ तक पहुंच जाएगा। ऐसे में आने वाले समय में देश के अन्दर 60 वर्ष या इससे अधिक उम्र के लोगों की आबादी को हम किसी भी सूरत में नजर अन्दाज नहीं कर सकते हैं। दूसरी तरफ  हकीकत तो यह है कि वक्त के साथ-साथ औसत आयु में भी वृिद्ध हुई है। एक जानकारी के अनुसार वर्ष 1947 में व्यक्ति की औसत आयु 31 साल थी जो वर्तमान में 65 साल से भी अधिक हो गई है। ऐसे में निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि आने वाले समय में 75-80 साल आयु वाले बुजुर्ग लोगों की संख्या में बढ़ौतरी होगी। साथ ही हमारे समाज में सार्वजनिक सेवाओं से सेवानिवृति की उम्र भी अब 60 वर्ष तथा कुछेक व्यावसायों जैसे उच्च शिक्षा व स्वास्थ्य में यह 65 व 70 वर्ष तक हो गई है। ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले वर्षों में 80 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों का यह आंकड़ा बढऩे वाला है। वल्डऱ् पॉपुलेशन प्रोस्पेक्टस-2006 के मुताबिक 2050 में हमारे देश में 80 वर्ष से ज्यादा उम्र के बुजुर्गों की संख्या मौजूदा करीब 80 लाख से 6 गुणा बढक़र करीब 5.14 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में अब प्रश्न यह उठ रहा है कि जहां समय के साथ-साथ बुजुर्गों की आबादी बढ़ेगी तो वहीं बढ़ती उम्र के साथ-साथ कई समस्याएं भी आएंगी।
ऐसे में भले ही समय-समय पर देश व विभिन्न प्रदेशों की सरकारों ने बुजुर्गों को समाज की मुख्यधारा में सम्मानजनक जीवनयापन के लिए माता-पिता भरण पोषण अधिनियम सहित कई कानून बनाए हैं, जिसमें वृद्ध मां-बाप की उपेक्षा करने वाले बच्चों के खिलाफ  कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। सरकारी व निजी क्षेत्र में वृद्धाआश्रम खोलने के अतिरिक्त उन्हे आर्थिक तौर पर मजबूत बनाने के लिए सामाजिक सुरक्षा पेंशन, सरकारी योजनाओं, बैंकों, अस्पतालों, परिवहन सेवाओं इत्यादि में कई रियायती सुविधाएं भी प्रदान की गई है। ऐसे में हिमाचल प्रदेश की ही बात करें तो प्रदेश सरकार 80 वर्ष या इससे अधिक आयु वाले समाज के सभी ऐसे बुजुर्गों को बिना किसी की आय सीमा के 11 सौ रूपये सामाजिक सुरक्षा पैंशन मुहैया करवा रही है। 
परन्तु इसके बावजूद इस बढ़ती उम्र के साथ-साथ हमारे बुजुर्गों को कई तरह की समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। जिसमें चाहे बुढ़ापे के दौरान होने वाली विभिन्न बीमारियां हों या फिर सामाजिक सुरक्षा के साथ-साथ बढ़ता एकाकीपन हो। ऐसे में यहां बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि जिन्दगी के अंतिम पड़ाव में खड़े हमारे बुजुर्गों को जहां अकेलेपन का जो दंश झेलना पड़ता है, यह हमारे समाज के लिए किसी भी गंभीर बीमारी से होने वाली पीड़ा से ज्यादा दु:खदायी ही है, तो वहीं महानगरों, शहरों और अब ग्रामीण परिवेश में भी हमारे बुजुर्ग अपनों की बेरुखी के कारण सुरक्षित नहीं रह गए हैं। जीवनयापन के लिए वे अपनी जिस पेंशन या जमापूुंजी पर निर्भर हैं, वह भी अपनों की बेरुखी तथा अकेलेपन के चलते सुरक्षित नहीं है। आए दिन बुजुर्गों के साथ मारपीट व हत्या कर संपति की लूट करने की घटनाएं इसका जवलंत उदाहरण हैं।
इस तेजी से बदलते परिदृष्य में भविष्य में बुजुर्गों की देखभाल व सुरक्षा की जिम्मेदारी परिवार, समाज, सरकार व समुदाय की सामूहिक इच्छाशक्ति, एकजुट प्रयास व जागरुकता के बगैर संभव नहीं होगी। ऐसे में अब यह जरुरी हो जाता है कि आने वाली पीढी़ को आधुनिक व व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारित, नैतिक मूल्यों व आदर्श विचारों से ओतप्रोत शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि इस बढ़ती सामाजिक समस्या का कोई बेहतर व स्थाई हल निकाला जा सके। ऐसे में हमारा सदियों पुराना पारिवारिक ढ़ांचा व समृद्ध संस्कृति बुजुर्गों को समाज की मुख्यधारा में बनाए रखने में एक अहम कड़ी का काम कर सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के विकसित व पश्चिमी संस्कृति से ओतप्रोत मुल्कों में आधुनिकता व विकास की दौड़ में जिस तेजी से पारिवारिक ढ़ांचा बिखरा आज वहां पर बच्चों व बुजुर्गों की स्थिति अत्यन्त दयनीय व दु:खदायी कही जा सकती है। कमोवेश कल हमारा समाज व देश भी उनमें से एक हो सकता है यदि हमने समय रहते इस दिशा में कठोर व प्रभावी कदम नहीं उठाए।
इस संबंध में अब यह जरूरी हो जाता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में स्कूली स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक सभी पाठयक्रमों में देश की सामाजिक व्यवस्था एवं यहां की संस्कृति से स्बरू करवाने के लिए हमारी नौजवान पीढी को अवगत करवाने की आवश्यकता है। आज भले ही हम लाखों व करोडों रूपयों का पैकेज दिलवाने वाली बडी-बडी डिग्रीयों की बात करते हैं लेकिन वास्तव में हमारी शिक्षा का उदेश्य तभी पूरा होगा जब हम आधुनिकता के चकाचौंध से भरी इस जिंदगी में बुजुर्गों की देखभाल से लेकर उन्हे पारिवारिक संरक्षण एवं वह प्यार मोहब्बत जीवन के अंतिम पडाव में परिवार के अन्दर ही मुहैया करवा पाते हैं जिनकी उन्हे बेहद जरूरत होती है।

(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 25 जून, 2016 एवं दिव्य हिमाचल 28 जून, 2016 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)