वैश्विक महामारी कोविड 19 के इस कठिन समय में अब मानवीय संवदेनाएं न केवल हारती हुई नजर आ रही हैं बल्कि कभी ठोस रिश्ते-नातों का वास्ता देकर अपने होनेे का दंभ भरने वाले कहीं दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं। इस महामारी की दूसरी लहर के चंद दिनों में ही हमारे वास्तविक मानवीय चेहरे को न केवल नंगा कर दिया है बल्कि इसे स्वार्थ पर केंद्रित हो चुके अमानवीय मूल्यों के नीचे दफन भी कर दिया है। प्रतिदिन देश व प्रदेश के कई हिस्सों से इस महामारी के दौर में अमानवीय कुकृत्यों की न केवल खबरें देखने व सुनने को मिल रहीं हैं बल्कि उन्हे देखकर दिल भी दहल रहा है।
सच कहूं तो कोविड 19 महामारी ने मनुष्य के भीतर छिपे उस वास्तविक चेहरे को उजागर करके रख दिया है, जिसे हम आधुनिकता की इस झूठी चकाचौंध में आलीशान मकानों, चमचमाती मंहगी गाडियों एवं ऊंचे रूतबे के पीछे छिपाने का असफल प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में अब यह प्रश्न खड़ा हो रहा है कि आखिर हम कैसा समाज बना रहे हैं? क्या यही है अब तक की हमारी तरक्की या उन्नति? या फिर झूठी चकाचौंध के आगे हमने इन्सानियत को कहीं खो दिया है? खैर कारण कुछ भी हो सकते हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों से कोविड 19 महामारी के चलते घटित हो रही अमानवीय घटनाओं ने न केवल हमारे अमानवीय चेहरे को उजागर कर दिया है बल्कि हमारे द्वारा ओढ़े झूठे, मतलबी व मौकापरस्ती के चोले का भी सच सामने ला दिया है।
महामारी के इस दौर में हमारे चारों को आए दिन घटित हो रही इन्सान के अमानवीय चेहरे की घटनाएं हमें झकझोर कर रख दे रही हैं। कहीं पर परिवार ही अपने मृत सदस्य का संस्कार करने से भागता हुआ नजर आ रहा है तो कहीं वह बेटा अपने मृत मां-बाप का अंतिम संस्कार करने से मना कर रहा है, जिसने उसे न जाने कितने कष्ट सहकर पाला-पोशा बल्कि उसे इस तथाकथित समाज का एक काबिल इन्सान भी बनाया। यही नहीं कहीं पर पत्नी, तो कहीं पर बेटी तो कहीं पर लाचार व असहाय को चुके मां-बाप अपनों के अंतिम संस्कार की समाज से भीख मांगते नजर आ रहे हैं। लेकिन बेदर्द समाज का न केवल दिल पसीज रहा है बल्कि इस संकट की घड़ी में भी हम अंतिम संस्कार की गुहार केवल सरकार व प्रशासन से ही करते नजर आ रहे हैं।
इतना ही नहीं हमने आधुनिक इन्सान का अमानवीय चेहरा बाजारों, सडक़ों, घरों की गलियों व सामाजिक समारोहों में भी हारते हुए देखा है, जहां नियम व कानूनों को धत्ता बताकर कभी ऊंचे रूतबे तो कभी ऊंची पहुंच की धमक के आगे मानवता का कत्ल सरेआम होते रहा है। यही नहीं व्यवस्था में थोड़ी कमियां या थोड़ी देरी होने पर हम पूरी व्यवस्था को धराशयी करने का असफल प्रयास करते हुए भी नजर आए। इस संकट भरे दौर में हमारे शिक्षित होने का अर्थ भी बाखूबी हमें समझा दिया है। हमारी प्रकृति हमें चीखो पुकार के साथ चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि आखिर कहां वो रिश्ते नाते जिनके बिना हमारे परिवार का एक छोटा सा कार्य या कारज तक सम्पन्न नहीं होता था? कहां है वो पड़ोस व समाज जिसकी दुहाई दे-दे कर हम थकते नजर नहीं आते थे?
सच कहूं तो हमारे आस पास इस महामारी के दौर में घटित हुई कई ऐसी दिल पसीज कर देने वाली घटनाओं के आगे हमारा मानवीय चेहरा हारते हुए नजर आया है। हकीकत तो यह है कि हमारी आंखों के आगे जिंदगी हारती रही लेकिन हम व्यवस्था को कोसते हुए कभी वायरल वीडियो बनाने में मशगूल रहे तो कभी दुष्प्रचार करने में। यही नहीं मुश्किल की इस घड़ी में हारती जिंदगी ऑक्सीजन सिलेंडर की भीख मांगती नजर आई लेकिन हम मुनाफाखोरी से धन कमाने के अवसर तलाशते फिरते रहे। हमें यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि ये व्यवस्था, समाज व परिवार हमारा ही बनाया हुआ है और इसमें हुई चूक भी हमारी ही है। बस फर्क इतना है कि मैं व मेरा केन्द्रित इस वर्तमान मानवीय चेहरे को अब हम व हमारे पर केन्द्रित होना होगा। इस महामारी ने ये भी समझा दिया है कि हम सामाजिक, आर्थिक एवं सुविधाओं के तौर पर कितने की सशक्त क्यों न हो, लेकिन ऐसी प्राकृतिक आपदाएं व घटनाएं सबको तहस नहस करके रख देती हैं जिसमें न तो हमारा रूतबा न ही हमारा धन-बल काम आता है बल्कि हमारे द्वारा निर्मित उच्च मानवीय मूल्य एवं संवेदनशील समाज ही हमें सहारा दे सकता है।
दूसरी ओर हकीकत तो यह है कि कोरोना महामारी के इस मुश्किल दौर में हमारे इस झूठे सामाजिक ताने बाने का भी फर्दाफाश हो गया है। अपने पराय होने का वास्तविक अर्थ को बड़े प्रयोगात्मक तरीके से प्रकृति ने हमें समझा दिया है। अगर यूं कहूं कि आज मानवीय मूल्यों, आदर्शों व रिश्तों की नई परिभाषा लिखी जा रही है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए।
ऐसे में अब समय आ गया है कि हमें स्वार्थ की हांडी में पकते उन झूठे रिश्तों, नातों व समाज को ढ़ोना है या फिर वास्तविकता के धरातल में उस मानवीय चेहरे का पोषण करना है जो हमें जीवन मूल्यों की हकीकत से रू-ब-रू करवा रहा है। अब ये फैसला आपका है कि आप कैसा परिवार, समाज व देश बनाना चाहते हैं।