हमारे समाज में बढ़ती कन्या भ्रूण हत्याएं तथा समाज में घटते लिंगानुपात के कारण एक बहुत बडी सामाजिक असमानता खडी हो गई है। इस लिंगभेद की बढ़ती खाई से जहां पूरे देश में लडकियों की संख्या में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है तो वहीं कुछ राज्यों सहित देश भर के एक सौ से अधिक जिलों में इस समस्या ने भयावह रूप धारण कर लिया है। यह कितनी विडंबना है कि जिस भारतीय समाज में कन्याओं का पूजन किया जाता है उसी समाज मेें बेटियों को पैदा होने से पहले ही मॉं की कोख में मौत की नींद सुला दिया जा रहा है। जो बेटियां पैदा भी हो रही उनके प्रति हमारी रूढिवादी मानसिकता हमेशा रोडा बनकर खडी हो जाती है। जिसका नतीजा यह है कि आज भी हमारे समाज व परिवार में बेटियां बेटों के मुकाबले न केवल भेदभाव की शिकार होती है बल्कि सामाजिक तौर पर भी उसे न तो बेहतर शिक्षा के अवसर मुहैया करवाने को तरजीह दी जाती है न ही जीवन में आगे बढऩे के लिए लडकों की भांति प्रेरित किया जाता है।
आज हमारे समाज में से ऐसे सैंकडों नहीं बल्कि हजारों बेटियों के नाम मिल जाएंगें जिन्होने न केवल कामयाबी की बुलंदी को चूमा है बल्कि हमारे परिवार व समाज का नाम भी रोशन किया है। यही नहीं यही बेटियां जहां बडी होकर किसी परिवार में बेटी बनकर मां-बाप का सहारा बनती है तो वहीं शादी के बाद किसी की पत्नी व बहु बनकर परिवार की बगिया को महकाती है। यहां हम यह क्यों भूल जाते हैं कि किसी भी पुरूष को जन्म देने वाली भी ये बेटियां ही होती है। परन्तु यह सब जानने के बावजूद भी न जाने हम ऐसी कौन सी रूढिवादी परम्परा के शिकार हुए बैठे हैं कि विकास व सूचना तकनीकि की इस 21वीं सदी में भी हम बेटियों के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार का कलंक अपने माथे पर लिए फिर रहे हैं। कहने को तो आज हम आधुनिक सुविधाओं से लैस हैं, हमारे पास सुख सुविधाओं के तमाम आधुनिक साधन मौजूद है परन्तु बेटियों के प्रति हमारी संकीर्ण सोच व मानसिकता ने दिखा दिया है कि आज भी हम सामाजिक तौर पर पिछडे हुए ही हैं।
ऐसे में यदि जनगणना-2011 के आंकडों का विश्लेषण करें तो जहां पूरे देश में 0-6 वर्ष आयु वर्ग में प्रति हजार लडक़ों के मुकाबले 918 लड़कियां है तो वहीं देश के सौ जिलों में यह स्थिति राष्ट्रीय औसत से भी कम है। जिसमें हिमाचल प्रदेश के ऊना, बिलासपुर, हमीरपुर, कांगडा व सोलन जिले भी शामिल है।प्राप्त आंकडों के आधार पर हिमाचल प्रदेश का शिशु लिंगानुपात जनगणना-2001 के आंकडे 896 के मुकाबले जनगणना-2011 में 906 जरूर हुआ है लेकिन प्रदेश के आर्थिक व शैक्षणिक दृष्टि से अग्रणी कांगडा-873, ऊना-875, हमीरपुर-881, बिलासपुर-893 तथा सोलन जिला का यह आंकडा 899 है जो न केवल राष्ट्रीय अनुपात 918 के मुकाबले बल्कि प्रदेश के औसत अनुपात 906 से भी कम है। दूसरी ओर जहां प्रदेश के जन जातीय जिला लाहुल स्पिति में यह आंकडा 1013 तथा किन्नौर में 953 हैै तो वहीं प्रदेश में अन्य जिलों के मुकाबले आर्थिक तौर पर कमजोर कहे जाने वाले चंबा में यह आंकडा 950 तथा सिरमौर में 931 है जो कि अन्तर्राष्ट्रीय मानक एसआरबी (जन्म के समय शिशु लिंगानुपात) के 952 आंकडे के मुकाबले बेहतर कहा जा सकता है। लेकिन ऐसे में अब प्रश्न यही खडा हो रहा है कि क्या हमारे समाज में ज्यादा पढे लिखे व आर्थिक तौर पर सम्पन्न लोग कन्या भ्रूण हत्याओं के कारण बन रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सोच विकास की इस दौड में कहीं पिछडती तो नहीं जा रही है? फिलहाल तो प्रदेश में शिशु लिंगानुपात के बयान करते जिलों के आंकडे तो यही बता रहे हैं।
ऐसे में अब यह जरूरी हो जाता है कि प्रदेश में जिला ऊना में चलाए गए बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान की तर्ज पर कम शिशु लिंगानुपात वाले जिलों में कन्या भ्रूण हत्या सहित बेटियों के प्रति समाज में व्याप्त रूढिवादी मानसिकता के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव लाने के लिए बेटी बचाओ जैसे बडे अभियान को बल दिया जाए। इस तरह के अभियान के माध्यम से जहां समाज में बेटियों व महिलाओं के प्रति व्याप्त रूढि़वादी मानसिकता के प्रति जन जागरूकता अभियान चलाया जाए तो वहीं शिक्षण संस्थानों से लेकर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में बेहतर कार्य करने वाली लडकियों व महिलाओं को प्रोत्साहित किया जाए। साथ ही बेटियों को पैतृक संपति में बेटो के बराबर अधिकार को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ समाज में ऐसे सभी सामाजिक कार्यों के प्रति व्याप्त रूढिवादी मानसिकता को भी ख्ंागाला जाए जो अक्सर बेटियों के पैदा होने में बाधक का काम करती है।
इसलिए अब वक्त आ गया है कि बेटियों को कोख में ही मारने वाले शैतानों को फिर से इन्सान बनाया जाए अन्यथा हमारे पढ़े लिखे और तथाकथित आधुनिक समाज यह कुकृत्य इसी तरह जारी रहा तो हमारे समाज में विकट सामाजिक परिस्थितियां पैदा हो जाएंगी जिसके हम सब को गंभीर परिणाम भुगतने पड सकते हैं।
(साभार: हिमाचल दिस वीक 5 मार्च, 2016 एवं दिव्य हिमाचल 21 मार्च, 2016 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)
(साभार: हिमाचल दिस वीक 5 मार्च, 2016 एवं दिव्य हिमाचल 21 मार्च, 2016 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)