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Monday, 27 March 2017

प्रतिस्पर्धा के माहौल में बच्चों से अत्यधिक अपेक्षाएं कितनी उचित

देश में प्रतिवर्ष मार्च व अप्रैल महीनों में परीक्षाओं का दौर शुरू होते ही छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं भी बढ़ जाती हैं। इन वार्षिक एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव के चलते व उससे उत्पन्न होने वाले मानसिक तनाव के कारण प्रतिवर्ष सैंकडों छात्र आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठा लेते हैं। ऐसे में यदि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट का विश्लेषण करें तो वर्ष 2014 के दौरान देश में कुल आत्महत्याओं में से 1.8 फीसदी आत्महत्याएं परीक्षाओं में फेल होने के कारण सामने आई है जबकि यही आंकडा वर्ष 2015 में बढक़र 2 फीसदी हो गया। वर्ष 2014 में परीक्षाओं में फेल होने के कारण 2403 के मुकाबले 2015 में 2646 मामले आत्महत्या के सामने आए हैं। जिनमें से आधे से अधिक मामले 18 वर्ष के कम आयु वाले बच्चों व किशोरों के हैं।
ऐसे में देश के बुद्धिजीवियों व चिंतकों के सामने यह प्रश्न आकर खडा हो जाता है कि आखिर देश के बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति के लिए क्या हमारी परीक्षा प्रणाली दोषी है या फिर बदलते परिवेश में हमारा पारिवारिक व सामाजिक ढ़ांचा उन्हे ऐसे आत्मघाती पग उठाने के लिए बाध्य करता है। ऐसे में यदि स्कूली स्तर की परीक्षाओं की बात करें तो वर्ष भर की पढ़ाई का मूल्यांकन तीन घंटों में कर लिया जाता है। दूसरा बच्चा वर्ष भर नियमित तौर पर कक्षाएं लगाता है तथा परीक्षा के दौरान बीमारी या अन्य पारिवारिक समस्या के कारण ठीक से परीक्षा नहीं दे पाता है तो स्वभाविक है कि वर्ष भर की मेहनत चंद घंटों में ही धराशायी हो जाती है। तीसरा प्रमुख कारण बदलते सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मां-बाप की ऊंची व बढ़ती अपेक्षाओं का दबाव भी बच्चों को झेलना पड रहा है। ऐसे में यदि किसी एक कारण से भी बच्चा वार्षिक परीक्षाओं में बेहतर न कर पाए तो प्रतिभाशाली व होनहार बच्चा भी मानसिक व सामाजिक दबाव का शिकार आसानी से हो सकता है। जिसका नतीजा कई बार बच्चों द्वारा आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने के तौर पर सामने आता रहता है।
ऐसे में समय-समय पर हुए शैक्षिक अध्ययनों की बात करें तो परीक्षाओं के दौरान बेहतर प्रदर्शन करने तथा मनचाहे प्रोफैशनल कोर्स में दाखिला पाने को लेकर बच्चों पर मानसिक तनाव के चलते आत्महत्या करने के मामले बढ़ जाते हैं। ऐसे अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि बच्चों में मानसिक दबाव के लिए परिवार और समाज का बेहताशा प्रतिस्पर्धी माहौल भी कम जिम्मेदार नहीं रहता है। इसके अलावा सामाजिक ढ़ांचे में आ रहे बदलाव, संयुक्त परिवारों का लगातार बिखराव, शहरों में मां-बाप का नौकारीपेशा होना इत्यादि कारणों से बच्चे लगातार उपेक्षा के शिकार होते हैं। संयुक्त परिवारों के कारण बुजुर्गों की उपलब्धता जहां बच्चों को कई तरह के मानसिक दबाव झेलने में कारगर साबित होती हैं तो वहीं समय-समय मार्गदर्शन भी मिलता रहता है। लेकिन बदलते दौर में न्युक्लियर परिवारों के बढ़ते चलन के कारण न केवल बच्चे मानसिक तनाव को झेलने में कमजोर पडते दिखाई दे रहे हैं बल्कि अभिभावकों की बच्चों से उनकी क्षमताओं व रूचिओं के विपरीत बढ़ती अपेक्षाएं आग में घी का काम कर रही हैं। साथ ही बच्चों का खेल मैदान से दूर होना, टीवी व मोबाइल में अधिक समय तक कार्यशील रहना इत्यादि भी बच्चों को मानसिक व शारीरिक तौर पर कमजोर बना रहा है। 
ऐसी परिस्थितियों में शिक्षा ढांचे से जुडे तमाम एजैन्सियों के साथ-साथ समाज व अभिभावकों का व्यापक तौर पर जागरूक होना लाजमी हो जाता है। हमें अपनी भावी पीढ़ी को जीवन के उस सत्य से रू-ब-रू करवाने में किसी प्रकार की झिझक नहीं होनी चाहिए जिसने जिंदगी को केवल परीक्षाओं में उच्च अंक व मनचाहे प्रोफैशन तक ही सीमित कर दिया है। हमें भावी पीढ़ी को इस बात से बखूवी परिचय करवाना चाहिए कि व्यक्ति का जीवनकाल अपने आप में एक बहुत बडी परीक्षा है जिसका वह पग-पग पर सामना करते हुए जीवन के संघर्ष में विजयी होता है। बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ-साथ उस व्यावहारिक ज्ञान की जरूरत है जिससे हमारी नौजवान पीढ़ी लगातार अनभिज्ञ होती जा रही है। युवाओं में कडी मेहनत के साथ-साथ जीवन में संपूर्ण निष्ठा, तप, त्याग, लगन, धैर्य, ईमानदारी तथा इन सबसे ऊपर नैतिकता व आदर्शों का सोपान करवाना होगा जिसे हमने बनावटी जीवन की चकाचौंध में कहीं पीछे छोड दिया है। आज हमने जीवन की सफलता को महज अंकों, ऊंचे पद व मनचाहे प्रोफैशन को पाने तक ही सीमित कर दिया है, लेकिन जीवन का वास्तविक सत्य इनसे भी कहीं आगे है। जरूरत है बच्चों व युवाओं को उन महान हस्तियों की जीवनी से अवगत करवाने की जो जिन्दगी के शुरूआती दौर में असफलता के बावजूद जिंदगी के अंतिम मुकाम में सफल होकर दुनिया के लिए मिसाल बन गए।
ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि जहां हमारे शिक्षण संस्थानों को बच्चों में कठिन परिश्रम, ईमानदारी व उच्च मूल्यों एवं आदर्शों का समावेश गंभीरता से करना होगा तो वहीं अभिभावकों को भी बच्चों की रूचि, क्षमता व योग्यता को ध्यान में रखकर ही लक्ष्यों का निर्धारण करना चाहिए। अन्यथा क्षमता से अधिक महत्वकांक्षा प्रतिवर्ष सैंकडों बच्चों को असमय ही मौत के आगोश में समाने को मजबूर करती रहेगी।


(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 7 मार्च, 2017 एवं दैनिक आपका फैसला, 15 मार्च, 2018 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)