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Saturday, 3 June 2017

धार्मिक आस्था एवं सांस्कृतिक मिलन का प्रतीक है ऐतिहासिक पिपलू मेेला

इस वर्ष 4 से 6 जून तक मनाया जा रहा जिला स्तरीय पिपलू मेला
हिमाचल प्रदेश के ऊना जिला के बंगाणा से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर प्रतिवर्ष लगने वाला वार्षिक पिपलू मेला जहां हमारी धार्मिक आस्था व श्रद्धा का प्रतीक है तो वहीं प्राचीन समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी सदियों से संजोए हुए है। बदलते वक्त के साथ-साथ हमारे प्राचीन मेलों का स्वरूप भले ही बदला हो लेकिन ऐतिहासिक पिपलू मेला आज भी अपनी प्राचीन सांस्कृतिक स्वरूप में कुछ हद तक यथावथ देखा जा सकता है। पिपलू गांव में पिपल के पेड के नीचे शीला के रूप में विराजमान भगवान नरसिंह के दर्शनों के लिए मेला अवधि के दौरान हजारों लोग शिरकत करते हैं तथा भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
पिपलू गांव में भगवान नरसिंह से जुड़ी अनेक जनश्रुतियां प्रचलित है जिनमें से एक जनश्रुति के अनुसार पास के हटली गांव में एक उतरू नाम का किसान अपने खेत में काम कर रहा था। लेकिन अचानक उसकी दराती मली के एक पौधे में फंस गई तदोपरान्त पौधे को साफ करते हुए उसके नीचे एक शीला दिखाई दी। लेकिन उतरू ने शिला की ओर कोई ध्यान नहीं दिया तथा खेत को साफ कर वहां से चला गया। परन्तु रात्रि स्वपन्न में उसने देखा की भगवान विष्णु उससे कह रहे हैं, मुझे खेत में नग्र छोडक़र तुम स्वयं बड़े आनंद से यहां सो रहे हो। उन्होने कहा कि मुझे अब वहां धूप और ठंड लगेगी साथ ही मुझ पर बारिश भी गिरेगी। दूसरे दिन उतरू फिर उसी खेत में पहुंचा तथा वहां से शिला को उठाकर पशुशाला में रख दिया और स्वयं चारपाई में जाकर सोने लगा। परन्तु अभी वह मुश्किल से चारपाई पर सोया ही था कि वह चारपाई से नीचे गिर पडा। जैसे ही वह चारपाई में सोने का प्रयास करता वैसे ही वह नीचे गिर पडता। इस दौरान पशुशाला में उसके पशु भी जोर-जोर से चिल्लाने लग पडे। तब उसने भगवान विष्णु को याद किया तथा दर्शन देने की प्रार्थना करने लगा। भगवान विष्णु ने दर्शन देकर कहा कि तुम मेरी पिंडी को बाजे बजाते हुए सूखे पीपल पेड के नीचे रख दो।
भगवान नरसिंह के दर्शनों के लिए पहुंचे श्रद्धालु (फाईल फोटो)
दतोपरांत उतरू सूखा पीपल का पेड़ ढ़ूढ़ते-ढूढ़ते झगरोट गांव आ पहुंचा जहां उसे सूखा पीपल का पेड़ दिखाई दिया। उतरू ने शीला को पीपल के पेड़ के नीचे स्थापित करवा दिया तथा स्थापना के आठवें दिन सूखे पीपल से कोंपलें फूटने लगीं और कुछ ही दिनों में यह पेड़ हरा-भरा हो गया। उतरू ने प्रतिदिन यहां आकर पूजा-अर्चना आरंभ कर दी तथा धीरे-धीरे इस स्थान का नाम पिपलू पड़ गया और लोगों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होने लग पड़ीं।
प्रदेश के तीन जिलों की सांस्कृतिक मिलन का प्रतीक यह मेला आज भी प्राचीन रंग में रंगा हुआ नजर आता है तथा लोगों की आस्था में वह जोश आज भी यथावथ बना हुआ है। प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की निर्जला एकादशी को आयोजित होने वाले इस मेले में ऊना, हमीरपुर तथा कांगड़ा जिलों के अतिरिक्त प्रदेश व प्रदेश के बाहर से हजारों श्रद्धालु भगवान नरसिंह के दर्शनों के लिए यहां पहुंचते हैं। मेले के दौरान जहां स्थानीय लोग अपनी नई फसल को भगवान नरसिंह के चरणों में चढ़ाते हैं तो वहीं भगवान का आशीर्वाद भी प्राप्त कर धन्य होते हैं। 
मेले के दौरान टमक बजाता श्रद्धालु (फाईल फोटो)
मेले के दौरान सदियों से बजती आ रही टमक की धमक आज भी पिपलू मेला में वैसे ही है जैसे सैंकडों वर्ष पूर्व रही है। लोग आज भी टमक की मधुर धुन में रंगे हुए नजर आते हैं। मेले के दौरान इलाके के विभिन्न स्थानों से नाचने गाने वालों की अलग-अलग टोलियां वाद्ययंत्रों के साथ एक दूसरे को ललकारती हुई पीपल की परिक्रमा करती थी, परन्तु आज वर्षों पुरानी यह परंपरा भी अब लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है। मेले के दौरान जगह-जगह लोगों द्वारा छबीलें भी लगाई जाती हैं। भले ही आज बदलते वक्त के साथ-साथ हमारी परंपराएं काफी तेजी से बदली है लेकिन पिपलू मेला अभी भी अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोए हुए है।
मेले के स्वरूप को बढ़ावा देने के लिए कुछ वर्ष पूर्व इसे प्रदेश सरकार ने जिला स्तरीय मेला घोषित कर दिया। अब मेले के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त विभिन्न खेल स्पर्धाएं भी अयोजित की जाती हैं। इस वर्ष मेले का आयोजन 4 से 6 जून के दौरान किया जा रहा है।









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