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Wednesday, 21 August 2024

दिल्ली व चंडीगढ़ भी चख रहा दिलदार सिंह के मछली फार्म में तैयार रेनबो ट्राउट का स्वाद

जोगिन्दर नगर के दिलदार सिंह प्रतिवर्ष 3 से 4 टन ट्राउट मछली का कर रहे उत्पादन      

 वर्ष 2008 में शुरू किया ट्राउट मछली पालन का कार्य, अब प्रतिवर्ष कमा रहे 3 से 4 लाख रुपये

मंडी जिला के जोगिन्दर नगर उपमंडल की ग्राम पंचायत मसौली के गांव पहलून निवासी 57 वर्षीय दिलदार सिंह के लिये ट्राउट मछली पालन पारिवारिक आजीविका का मुख्य आधार बना है। वर्ष 2008 में महज दो टैंक निर्माण से ट्राउट मछली पालन का शुरू किया उनका यह कार्य आज भी जारी है। वर्तमान में वे प्रतिवर्ष लगभग 3 से 4 टन रेनबो ट्राउट मछली का उत्पादन कर औसतन 3 से 4 लाख रूपये की शुद्ध आय सृजित कर रहे हैं। दिलदार सिंह के ट्राउट मछली फार्म में तैयार रेनबो मछली का स्वाद हिमाचल प्रदेश के प्रमुख शहरों शिमला, धर्मशाला, पर्यटन नगरी मनाली के अतिरिक्त दिल्ली, चंडीगढ़ जैसे बड़े शहर भी चख रहे हैं।
बड़े ही हंसमुख व खुशमिजाज व्यक्तित्व के धनी दिलदार सिंह का कहना है कि अस्सी के दशक से ही वे खेती-बाड़ी व पशुपालन से जुड़े रहे हैं। उन्होंने जीवन के शुरूआती दिनों में सब्जी एवं दुग्ध उत्पादन के माध्यम से परिवार की आर्थिकी को सुदृढ़ बनाने का कार्य शुरू किया। वर्ष 2008 में जब उन्हें मत्स्य पालन विभाग की योजना की जानकारी मिली तो उन्होंने ट्राउट मछली पालन की दिशा में कदम बढ़ाए। सरकार की ओर से दो टैंक निर्माण एवं फीड इत्यादि के लिए उन्हें लगभग 55 हजार रुपये का अनुदान प्राप्त हुआ। इसके बाद वर्ष 2012-13 में दो तथा वर्ष 2016-17 में भी दो अतिरिक्त टैंक निर्माण के लिये सरकार से आर्थिक मदद प्राप्त हुई। शुरूआती दौर में वे प्रतिवर्ष लगभग 1 टन ट्राउट मछली का उत्पादन करने लगे। इसके बाद यह आंकड़ा बढक़र डेढ़ से दो टन तथा वर्तमान में लगभग 3 से 4 टन तक पहुंच चुका है। उनका कहना है कि रेनबो ट्राउट मछली पालन से वे प्रति वर्ष औसतन 3 से 4 लाख रूपये की शुद्ध आय सृजित कर पा रहे हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 2017 में ट्राउट मछली की हैचरी भी तैयार करने में कामयाबी पाई है। अब वे ट्राउट मछली का बीज स्वयं तैयार करते हैं तथा आसपास के अन्य किसानों एवं मछली उत्पादकों को भी उपलब्ध करवाते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग का ट्राउट मछली उत्पादन पर भी पड़ रहा प्रभाव, बीमारियों का बना रहता है खतरा
दिलदार सिंह का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग का असर ट्राउट मछली उत्पादन पर भी देखा जा रहा है। जल्दी पिघलते ग्लेशियरों के कारण गत वर्षों के मुकाबले पानी की ठंडक लगातार कम हो रही है। पानी का तापमान बढ़ने से ट्राउट मछलियों के विकास में असर पड़ता है। इसके अलावा फंगस सहित अन्य बीमारियों का भी खतरा बना रहता है। मानसून मौसम में भारी बरसात के कारण दूसरे अन्य खतरे भी ट्राउट मछली उत्पादन में बाधक बनते हैं।
वर्ष 2014 में सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार से हो चुके हैं सम्मानित, ट्राउट मछली पालन में हासिल किया है प्रशिक्षण
दिलदार सिंह को वर्ष 2014 में प्रगतिशील किसान के नाते जिला स्तर पर सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। इस दौरान उन्हें 10 हजार रुपये का नकद इनाम तथा प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया है। उन्होंने वर्ष 2012 में शीतजल मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, भीमताल, उत्तराखंड से ट्राउट मछली पालन में तीन दिन का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया है। इसके अतिरिक्त पतलीकूहल ट्राउट मछली फार्म में वर्ष 2018, वर्ष 2014 व 2017 में महाशीर मछली प्रजनन फार्म, जोगिन्दर नगर में भी तीन-तीन दिन का प्रशिक्षण भी शामिल है।
बेहतर विपणन व प्रशिक्षण की मिले सुविधा तो ट्राउट मछली उत्पादन में आ सकता है क्रांतिकारी बदलाव
दिलदार सिंह कहते हैं कि उन्हें ट्राउट मछली को बड़े बाजारों तक पहुंचाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। वे कहते हैं कि बस के माध्यम से ही दिल्ली, चंडीगढ़ सहित प्रदेश के अन्य क्षेत्रों को सप्लाई दी जाती है। यदि ट्राउट मछली विपणन की दिशा में कुछ मदद मिले तो इस क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं। उन्होंने ट्राउट मछली पालन को लेकर समय-समय पर गहन प्रशिक्षण की आवश्यकता पर भी जोर दिया।
दिलदार सिंह का कहना है कि ट्राउट मछली पालन के क्षेत्र में रोजगार की बेहतरीन संभावनाएं मौजूद हैं। उन्होंने सरकार की योजना का लाभ उठाते हुए शिक्षित युवाओं से ट्राउट मछली उत्पादन के क्षेत्र में जुडऩे का भी आह्वान किया है।
क्या कहते हैं अधिकारी
सहायक निदेशक मात्स्यिकी विभाग मंडी नीतू सिंह का कहना है कि प्रधान मंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत सरकार ट्राउट मछली पालन इकाई स्थापित करने को आर्थिक मदद प्रदान कर रही है। उनका कहना है कि एक ट्राउट मछली उत्पादन इकाई को क्रियाशील बनाने के लिए जलाशय सहित अन्य जरूरतों के लिये अनुमानित साढ़े पांच लाख रुपये का खर्च आता है। जिसके लिये सरकार कुल लागत का सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों को 40 प्रतिशत जबकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिलाओं के लिये 60 प्रतिशत का अनुदान मुहैया करवा रही है।
उन्होंने बताया कि जिला मंडी में 80 किसानों व मत्स्य पालकों के माध्यम से 178 ट्राउट मछली उत्पादन इकाईयां कार्य कर रही हैं। जिनके माध्यम से प्रतिवर्ष लगभग 50 मीट्रिक टन ट्राउट मछली का उत्पादन हो रहा है।    
DOP 22/08/2024
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Thursday, 8 August 2024

मैं पहाड़ हूं,आखिर मेरी भी सहनशक्ति की एक सीमा है

मैं पहाड़ हूं। अब ओर ज्यादा बोझ नहीं सह सकता। आखिर, मेरी भी सहनशक्ति की एक सीमा है। मानो ऐसा लग रहा है कि कमोबेश यही कुछ कहना चाह रहा है दुनिया के पर्वतों का सरताज हिमालय।

अगर हिमालय की बात करें तो पिछले कुछ वर्षों से चाहे बात हिमाचल की हो, उत्तराखंड की हो या फिर दूसरे हिमालयी राज्यों की। प्रतिवर्ष हमारे पहाड़ों में प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप वर्ष दर वर्ष बढ़ता जा रहा है। बीते वर्ष की भांति अगला वर्ष इन प्राकृतिक आपदाओं का एक भयावह मंजर लेकर हम सबके सामने होता है। इन प्राकृतिक आपदाओं के कारण जहां प्रत्येक वर्ष सैंकड़ों लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ रहा है तो वहीं करोड़ों की संपति पलक झपकते ही कब मिट्टी हो गई पता ही नहीं चलता है। चंद मिनटों में ही हम इन्सानों के वर्षों संजोय सपने कब धराशायी हो जाए इसकी कोई गारंटी नहीं। इन प्राकृतिक आपदाओं में जब कोई अपने सबसे करीबी को खोता है तो उसका दर्द, उसकी पीड़ा तो केवल अपनों को खोने वाला व्यक्ति ही महसूस कर सकता है। लेकिन अब प्रश्न यही खड़ा हो रहा है कि आखिर देवता तुल्य हमारे ये पहाड़ हमसे इतने रूष्ट क्यों हो चले हैं? आखिर हम इंसानों ने ऐसा क्या कर दिया है कि कभी अच्छी वर्षा के लिये ईश्वर से गुहार लगा रहे लोगों के लिये मात्र चंद घंटों की बारिश विनाश लीला लिख दे रही है। प्रत्येक वर्ष यह बरसात हमें ऐसे जख्म दे रही है जो शायद ही कभी भरें। क्या हमने इस ओर कभी सोचने का प्रयास किया है?

ऐसा नहीं है कि हमारा ये हिमालय पर्वत अभी-अभी खड़ा हुआ हो। इसने न जाने कितनी उठती, खिलखिलाती, बिखरती व खंडहर होती पीढिय़ों को अपनी गोद में खिलाया है। यह वही हिमालय पर्वत है जिससे निकलने वाली अनेकों नदियां हमें जीवन दे रही हैं। ये वही हिमालय है जिसने जल रूपी जीवन देकर अनेकों सभ्यताओं को फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया। इसी हिमालय के आगोश में बैठकर ऋषि मुनियों ने घोर तप कर मोक्ष की अनुभूति की है। यह वही हिमालय पर्वत है जिसके आंचल में करोड़ों देवी-देवता वास करते हैं। करोड़ों इंसानों के साथ-साथ जीव जंतुओं व पेड़ पौधों का घर भी है। फिर ये हिमालय राज आज हम इन्सानों से इतने रूष्ट क्यों हो गए हैं? क्यों हमें इतनी कठोर सजा दे रहे हैं? क्या हम इंसानों ने कभी इन प्रश्नों के उत्तर को अपने भीतर टटोलने का प्रयास किया है? क्या हमारे पास इतना समय है कि हमने पहाड़ों की खूबसूरत प्रकृति को कभी समझने की ओर कदम बढ़ाए हैं? खैर मन में ऐसे असंख्य प्रश्न खड़े हो रहे हैं जिनका शायद कोई अंत ही न हो।
लेकिन लगता है प्रतिवर्ष हो रही पहाड़ों की इस विनाशलीला को रोकने के लिए कठोर कदम उठाने का समय आ गया है। हमें अब इस बात पर गंभीरता से मंथन करना होगा कि आखिर ऐसा क्या हो गया है की मन को सुकून देने वाले ये खूबसूरत पहाड़ इतने रूष्ट हो चले हैं कि अब तो यहां रहने पर भी डर लगने लगा है? क्या हम इंसान इसके लिये प्रकृति को ही दोषी ठहरा देंगे या फिर अपनी जिम्मेदारी का भी एहसास करेंगे। हम शायद यहां कुछ भूल कर रहे हैं कि आखिर इन पहाड़ों की भी सहनशक्ति की कोई सीमा तो होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम इंसानों ने स्वार्थ की पूर्ति के लिये पहाड़ों का इतना दोहन कर दिया हो कि अब वो हमारा बोझ उठाने में ही सक्षम न रहे हों। लगता है कि हम इंसानों ने स्वार्थ की पूर्ति के लिए पहाड़ों पर इतना अतिक्रमण कर लिया हो कि देवता तुल्य ये पहाड़ अब हमसे नाराज हो चले हों। कहीं ऐसा तो नहीं पहाड़ों के कण-कण में वास करने वाले असंख्य देवी देवताओं के प्रति हमने निर्धारित लक्ष्मण रेखा को ही पार तो नहीं कर दिया है। हमें इस बात पर भी गौर करना होगा कि कहीं हमारे ये पहाड़ भविष्य में किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा के प्रति हमें सजग, सचेत व सर्तक तो नहीं कर रहे हैं।  
लेकिन अब यह प्रश्न खड़ा हो रहा है कि तो क्या हम इंसान पहाड़ों को छोडक़र मैदानों की ओर चले जाएं? आखिर ये भी तो संभव नहीं है। ऐसा भी तो नहीं है कि पहाड़ों में रहने वाले केवल हम अकेले इंसान हों। सदियों से लोग यहां रहते आए हैं। तो फिर ऐसा हम क्या कर सकते हैं कि हम भी सुरक्षित रहें और देवता तुल्य हमारे ये पहाड़ भी। तो क्या हम इस दृष्टिकोण के साथ कुछ लक्ष्य निर्धारित नहीं कर सकते हैं? मुझे लगता है कि सबसे पहले हम इंसानों को जहां विकास रूपी मॉडल की परिभाषा को पहाड़ों की दृष्टि से पुन: परिभाषित करना होगा। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि पहाड़ों व मैदानों में विकास का एक जैसा मॉडल हम तय नहीं कर सकते हैं। हम पहाड़ों में चंडीगढ़, दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों की अपेक्षाकृत न तो गगनचुंबी इमारतों को खड़ा कर सकते हैं न ही प्रत्येक आंगन को सडक़ सुविधा से जोडऩे की इच्छा ही रख सकते हैं।
हम शायद यह भूल कर बैठते हैं कि पहाड़ विकास के नाम पर वह सब नहीं सह सकते जो हमारे मैदानी इलाकों में होता है। आखिर हमारे इन पहाड़ों की सहनशक्ति की भी एक सीमा है। लेकिन हम इंसान अपनी सुविधाओं को बढ़ाने के लिए इन पहाड़ों को कभी सडक़ के नाम पर तो कभी रास्तों के नाम पर तो कहीं बहु मंजिला भवन बना कर चीर हरण करने में भी तो कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। हद तो तब हो जाती है जब हम लालच में आकर नदी-नालों के मुहानों पर अतिक्रमण ही नहीं बल्कि बंद करने से भी गुरेज नहीं करते हैं। ऊपर से पर्यटन व धार्मिक यात्राओं के नाम हम पहाड़ों पर सुकून प्राप्त करने तो जाते हैं लेकिन कई तरह का कूड़ा कचरा भी हम इंसान ही तो छोडक़र आ रहे हैं।
हकीकत तो यह है कि हम इंसानों ने सुख सुविधाओं की लालसा में पहाड़ों को इतना छलनी कर दिया है कि अब लगता है कि वे हमारा बोझ उठाने में असमर्थ हो रहे हैं। नतीजा हमारी प्रकृति कहीं भूस्खलन, कहीं बाढ़, कहीं पेड़ गिरने तो अब बादल फटने जैसी अनेकों घटनाएं हमें आए दिन पीड़ा रूपी जख्म दे रही है। हमें यह भी याद रखना होगा कि हम भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र में रहते हैं तथा रिक्टर पैमाने पर 6 या इससे अधिक की कंपन भयंकर विनाशलीला लिख सकती है। ऐसे में आओ प्रकृति के दिये इन जख्मों से हम कुछ सबक लें। भविष्य के लिए ऐसा खाका तैयार करें जिससे न केवल हम इंसान ही सुरक्षित न हों बल्कि देवता तुल्य ये पहाड़ भी अपनी प्राकृतिक विविधता एवं सुंदरता को कायम रख सकें। हमें यह नहीं भूलना होगा कि आखिर इन पहाड़ों की सहनशक्ति की भी तो कोई सीमा होगी। लेकिन स्वार्थ की हांडी में एक अंधी दौड़ दौड़ता इंसान क्या प्रकृति द्वारा आए दिन दिये जा रहे इन जख्मों से कोई सीख लेगा? DOP 06/08/2024
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Thursday, 1 August 2024

मुख्य मंत्री कन्या दान और शगुन योजनाओं के तहत बेटियों की शादी पर सरकार ने व्यय किये 25.21 लाख रुपये

 चौंतड़ा ब्लॉक में गत वर्ष 53 बेटियों को मिले 19.43 लाख रुपये, इस वर्ष 18 मामलों में 5.78 लाख रुपये स्वीकृत

हिमाचल प्रदेश में सुख की सरकार गरीब व जरूरतमंद बेटियों की शादी में मददगार बन रही है। जोगिन्दर नगर विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत चौंतड़ा ब्लॉक में सुख की सरकार ने अपने लगभग 18 माह के कार्यकाल में मुख्यमंत्री कन्यादान तथा शगुन योजनाओं के माध्यम से बेटियों के हाथ पीले करने पर लगभग 25 लाख 21 हजार रुपये व्यय कर चुकी है। प्रदेश सरकार की ये दोनों योजनाएं हमारे समाज के ऐसे गरीब व जरूरतमंद परिवारों के लिए बेटी की शादी में न केवल एक शगुन का काम कर रही हैं बल्कि महंगाई के इस दौर में ऐसे परिवारों के लिए आर्थिक तौर पर सहारा भी प्रदान कर रही हैं।
मुख्यमंत्री कन्यादान व शगुन योजनाओं के माध्यम से जोगिन्दर नगर विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत चौंतड़ा ब्लॉक में वित्तीय वर्ष 2023-24 में 53 पात्र बेटियों की शादी पर प्रदेश सरकार ने 19 लाख 43 हजार रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान की है जबकि चालू वित्तीय वर्ष में अब तक कुल 18 मामलों में 5 लाख 78 हजार रुपये की आर्थिक मदद शामिल है।  
वित्तीय वर्ष 2023-24 में लाभान्वित 53 बेटियों की बात करें तो मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के तहत 15 पात्र बेटियों को 7 लाख 65 हजार रुपये जबकि शगुन योजना के माध्यम से 38 बेटियों को 11 लाख 78 हजार रुपये की मदद शामिल है। जबकि चालू वित्तीय वर्ष में अब तक लाभान्वित 18 पात्र बेटियों में मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के तहत एक बेटी को 51 हजार रुपये जबकि शगुन योजना के माध्यम से 17 बेटियों को 5 लाख 27 हजार रुपये की आर्थिक सहायता शामिल है।
ऐसे में प्रदेश सरकार की मुख्यमंत्री कन्यादान तथा शगुन योजनाएं गरीब व जरूरतमंद परिवारों की बेटी की शादी में मददगार साबित हो रही हैं। इन योजनाओं के माध्यम से सरकार का भी प्रयास है कि बेटी की शादी में वह न केवल सहारा बने बल्कि परिवार की चिंता को भी कम करने में मददगार साबित हो सके। सरकार के इन प्रयासों से जहां गरीब परिवारों को बेटी की शादी की चिंता कम हो रही है बल्कि समाज में बेटियों के प्रति सोच में भी व्यापक बदलाव देखा जा रहा है।  
योजनाओं की क्या है पात्रता की शर्तें
मुख्यमंत्री कन्या दान योजना का लाभ प्राप्त करने के लिए जहां परिवार की समस्त स्रोतों से आय 50 हजार रुपये वार्षिक से अधिक न हो। बेटी के पिता की मृत्यु हो गई हो या फिर शारीरिक या मानसिक तौर पर आजीविका कमाने में असमर्थ हो। इसके अलावा परित्यक्ता तलाकशुदा महिलाओं की पुत्रियां, जिनके संरक्षक की वार्षिक आय 50 हजार रुपये से अधिक न हो। साथ ही शादी के समय बेटी की आयु 18 वर्ष जबकि दूल्हे की आयु 21 वर्ष पूर्ण होनी चाहिए। ऐसे पात्र परिवारों को बेटी का शादी पर सरकार 51 हजार रुपये बतौर आर्थिक मदद प्रदान करती है।
इसी तरह शगुन योजना का लाभ प्राप्त करने के लिए परिवार गरीबी रेखा से नीचे या बीपीएल सूची में चयनित होना चाहिए। इस योजना के तहत आय प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती है। पात्र परिवार को सरकार बेटी की शादी में 31 हजार रूपये की आर्थिक सहायता प्रदान करती है।
कैसे करें आवेदन
पात्र परिवार इन योजनाओं का लाभ बेटी की शादी के 6 माह पहले या फिर शादी के 6 माह बाद तक ले सकते हैं। इसके लिए उन्हे 6 माह पहले संबंधित पंचायत प्रधान से शादी निर्धारित होने का प्रमाणपत्र तथा जबकि शादी होने के 6 माह तक विवाह प्रमाणपत्र सहित अन्य आवश्यक दस्तावेजों के आवेदन करना होगा। मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के लिए ऑनलाइन आवेदन किया जा सकता है जबकि शगुन योजना के लिए ऑफलाइन आवेदन करना होगा। इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए अपने नजदीकी आंगनबाडी कार्यकर्ता, आंगनबाडी पर्यवेक्षिका या बाल विकास परियोजना अधिकारी कार्यालय से संपर्क स्थापित कर सकते हैं।
क्या कहते हैं अधिकारी
बाल विकास परियोजना अधिकारी (सीडीपीओ) चौंतड़ा बी.आर. वर्मा का कहना है कि मुख्य मंत्री कन्यादान व शगुन योजनाओं के तहत चौंतड़ा विकास खंड में वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान 53 बेटियों की शादी पर सरकार ने 19 लाख 43 हजार रुपये का शगुन दिया है। चालू वित्तीय वर्ष के दौरान इन दोनों योजनाओं के तहत अब तक कुल 18 मामलों में 5 लाख 78 हजार  रुपये की आर्थिक मदद को स्वीकृति प्रदान कर दी है। उन्होने बताया कि मुख्य मंत्री कन्यादान योजना के तहत 51 हजार जबकि शगुन योजना के माध्यम से 31 हजार रूपये की राशि सीधे लाभार्थी के बैंक खाते में जमा की जाती है। DOP 25/07/2024
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Friday, 12 July 2024

डेयरी फॉर्म चलाकर आर्थिकी को सुदृढ़ बना रहे हैं देहलां के हरभजन सिंह

 20 गाय व 6 भैंस पालकर प्रतिदिन बेच रहे एक से डेढ क्विंटल दूध, हो रही है अच्छी आमदन

ऊना जिला के देहलां गांव के प्रगतिशील किसान 50 वर्षीय हरभजन सिंह डेयरी फॉर्म चलाकर परिवार की आर्थिकी को सुदृढ़ बना रहे हैं। निजी क्षेत्र में काम करने वाले हरभजन सिंह आज 20 गाय व 6 भैंस पालकर जहां प्रतिदिन एक से डेढ़ क्विंटल दूध का उत्पादन कर रहे हैं तो वहीं दूध बेचकर अच्छी खासी आमदन भी प्राप्त कर रहे है। हरभजन सिंह के इस कार्य में उनका 19 वर्षीय बेटा अमनवीर सिंह भी हाथ बंटा रहा है। साथ ही डेयरी फार्म में सहयोग के लिए एक स्थानीय ग्रामीण को भी रोजगार मुहैया करवाया है।
जब इस संबंध में खुश मिजाज व्यक्तित्व के धनी हरभजन सिंह से बातचीत की तो उनका कहना है बचपन से ही पिता जी के साथ वे पशुपालन से जुड़े रहे हैं। पहले वे छोटे स्तर पर यह कार्य करते रहे हैं लेकिन पिछले 4 वर्षों से उन्होंने बडे़ स्तर पर डेयरी फॉर्म चलाने का निर्णय लिया। वर्तमान में उनके पास मुर्रा नस्ल की 6 भैंसे तथा साहीवाल, जर्सी तथा एचएफ नस्ल की 20 गाय हैं। एक भैंस से जहां औसतन 18 लीटर दूध प्राप्त हो रहा है तो वहीं गायों से औसतन 30 से 35 लीटर दूध प्रतिदिन मिल रहा है। कुल मिलाकर एक दिन में वे औसतन एक से डेढ़ क्विंटल दूध उत्पादन कर रहे हैं। वर्तमान में उन्हें कुल दूध उत्पादन में से संपूर्ण लागत व खर्च निकालकर लगभग 30 से 35 प्रतिशत तक की शुद्ध आय प्राप्त हो रही है।
हरभजन सिंह बताते हैं कि वे अधिकत्तर दूध अमूल डेयरी को बेच रहे हैं। इसके अलावा आसपास के ग्रामीण भी घर से ही दूध खरीदते हैं। कुल मिलाकर डेयरी फॉर्म से तैयार दूध आसानी से बिक जाता है, लेकिन उन्हें दूध की लागत के हिसाब से बड़ी कंपनियां अमूल, वेरका इत्यादि बेहतर दाम नहीं दे रही हैं। उनका कहना है दूध खरीद की दिशा में प्रदेश सरकार कुछ मदद करे तो वे भविष्य में डेयरी फॉर्म से अच्छी आय अर्जित कर सकते हैं।
डेयरी फार्म से जुड़कर युवा घर बैठे कमा सकते हैं लाखों रूपये
हरभजन सिंह कहते हैं कि डेयरी फॉर्म के कार्य को पूरी मेहनत व लगन से किया जाए तो घर बैठे अच्छी आय सृजित की जा सकती है। उनका कहना है कि नये युवाओं को डेयरी फॉर्म के कार्य से जुड़ना चाहिए। इससे न केवल घर बैठे स्वरोजगार की राह आसान होगी बल्कि अच्छी खासी आमदन भी प्राप्त की जा सकती है। उनका कहना है कि उनका बेटा भी डेयरी फॉर्म संचालन में पूरा सहयोग प्रदान कर रहा है तथा इस क्षेत्र में भविष्य में बड़े स्तर पर कार्य करने की योजना बना रहे हैं।
उनका कहना है कि बेटा 12 वीं कक्षा पास कर वेटनरी फॉर्मासिस्ट का प्रशिक्षण भी हासिल कर रहा है ताकि डेयरी उत्पादन की बारीकियों को बेहतर तरीके से समझा जा सके। उन्होंने युवाओं को डेयरी उत्पादन से जोड़ने एवं तकनीकी जानकारी उपलब्ध करवाने को ग्रामीण स्तर पर पशु स्वास्थ्य एवं प्रजनन विभाग के माध्यम से प्रशिक्षण कार्यशालाओं के आयोजन पर भी बल दिया।
क्या कहते हैं अधिकारीः
वरिष्ठ पशु चिकित्साधिकारी ऊना डॉ. राकेश भटटी का कहना है कि देहलां के प्रगतिशील किसान हरभजन सिंह डेयरी उत्पादन के क्षेत्र में बेहतरीन कार्य कर रहे हैं। उन्हें विभाग के माध्यम से सरकार की ओर मिलने वाली विभिन्न तरह की मदद प्रदान की जा रही है। उन्होंने बताया कि किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से दो दुधारू पशु खरीदने को 1 लाख 60 हजार रुपये का आर्थिक लाभ प्रदान किया है। साथ ही समय-समय पर विभाग की ओर से प्रशिक्षण तथा अन्य लाभ भी दिये जा रहे हैं।
उन्होंने बताया कि इन्हें मुख्य मंत्री स्वावलंबन योजना के साथ जोड़ने का भी प्रयास किया जाएगा। साथ ही आधुनिक वैज्ञानिक डेयरी फॉर्मिंग की जानकारी तथा प्रशिक्षण भी उपलब्ध करवाया जाएगा। इसके अलावा दुधारू पशुपालकों को प्रदेश सरकार की ओर से सेक्स सॉर्टिड सीमन की सुविधा भी प्रत्येक पशुपालन चिकित्सा केंद्र तक उपलब्ध करवाई गई है ताकि पशुपालकों को इसका लाभ मिल सके।
उपायुक्त ऊना जतिन लाल का कहना है कि सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से पात्र लोगों को लाभान्वित करने का हर संभव प्रयास किया जा रहा है। उन्होंने जिला के सभी विभागीय अधिकारियों को धरातल पर सरकार की योजनाओं के कार्यान्वयन को सख्त निर्देश जारी किये हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को सरकारी योजनाओं से जोड़ा जा सके। DOP 08/07/2024
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Monday, 1 July 2024

कृषि व पशुपालन से आर्थिकी को सुदृढ़ बना रहे लोअर बढे़ड़ा के रघुवीर सिंह

खेतीबाड़ी व पशुपालन को बनाया आर्थिकी का अहम जरिया, प्रतिवर्ष कमा रहे हैं 6 से 8 लाख रूपये

ऊना जिला के लोअर बढे़ड़ा निवासी 50 वर्षीय रघुवीर सिंह के लिए कृषि व पशुपालन आर्थिकी का अहम जरिया बना है। अर्धसैन्य बल सीआरपीएफ में लगभग 22 वर्षों तक देश सेवा करने के उपरान्त रघुवीर सिंह ने अपनी पुश्तैनी जमीन को संभाला तथा कृषि के साथ-साथ पशुपालन को भी आर्थिकी का आधार बनाया है। वर्ष 2016 में सीआरपीएफ से सेवानिवृति लेने के उपरान्त पिछले लगभग 6 से 7 वर्षों के दौरान वे समय-समय पर सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न कृषि व पशुपालन विकास योजनाओं के साथ जुड़ते हुए आज वे एक प्रगतिशील किसान की दिशा में आगे बढ़े हैं। 

जब इस संबंध में रघुवीर सिंह से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि सबसे पहले वे कृषि विभाग की जाइका परियोजना से जुड़े तथा कृषि की नई तकनीकों का प्रशिक्षण प्राप्त किया। साथ ही मिश्रित खेती की दिशा में भी कदम आगे बढ़ाए। उन्होंने बताया कि वे वर्तमान में मिश्रित खेती कर रहे हैं, जिसमें मक्की, गेहूं, आलू, गन्ना के साथ-साथ विभिन्न तरह की सब्जियों का भी उत्पादन शामिल है। 

मक्की की अग्रिम फसल के मिल रहे अच्छे दाम, उत्पादन क्षमता में भी हुई है वृद्धि

उन्होंने बताया कि अन्य किसानों के साथ मक्की की अग्रिम तैयार होने वाली फसल को बीजा है। अग्रिम मक्की का बीजारोपण तीन चरणों में किया है जिसमें पहला चरण मार्च, दूसरा अप्रैल तथा तीसरा मई में शामिल है। उन्होंने बताया कि पहले चरण की कटाई जून माह में की जा रही है जबकि दूसरे चरण की कटाई जुलाई तथा तीसरा चरण अगस्त माह में पूरा होगा। उनका कहना है कि समय पूर्व मक्की तैयार होने से जहां बाजार में अच्छा दाम मिल रहा है तो वहीं उत्पादन क्षमता में भी वद्धि हुई है। 

मिश्रित खेती अपनाने से वर्ष भर प्राप्त होती है आय, खेती की आधुनिक तकनीकों का कर रहे इस्तेमाल

रघुवीर सिंह का कहना है कि खेतीबाड़ी से उन्हें प्रति वर्ष औसतन लगभग 5 से 6 लाख रूपये की आय प्राप्त हो रही है। उन्होंने बताया कि मिश्रित खेती के चलते उन्हे वर्ष भर विभिन्न फसलों से आय प्राप्त होती रहती है। उन्होंने ने बताया कि कृषि विभाग के माध्यम से उन्हें उन्नत खेती बारे प्रशिक्षण भी मिला है। इसके अलावा जाइका परियोजना के माध्यम से भी मिश्रित खेती बारे आवश्यक प्रशिक्षण हासिल किया है। साथ ही विभागीय अधिकारियों का भी समय-समय पर मार्गदर्शन मिलता रहता है। 

पशुपालन भी आर्थिकी को दे रहा मजबूती, प्राकृतिक खाद को कर रहे तैयार

उन्होंने बताया कि वे कृषि के साथ-साथ पशुपालन भी कर रहे हैं। उन्होंने गाय व भैंसें भी पाल रखी है। जिनसे प्राप्त होने वाले दुग्ध उत्पादों से भी उन्हें औसतन प्रतिवर्ष 2 से अढ़ाई लाख रूपये की आमदन हो रही है। इसके अलावा पशुओं के गोबर से वे प्राकृतिक खाद भी तैयार कर रहे हैं। रासायनिक खाद के बजाय प्राकृतिक खाद फसलों के लिए अच्छी है तो वहीं इससे तैयार फसलें सेहतमंद भी हैं। साथ ही प्राकृतिक खाद के चलते फसलों की लागत भी घटती है।
उन्होंने कहा कि यदि सच्ची लगन व कड़ी मेहनत के साथ कृषि व्यवसाय को भी अपनाया जाए तो इससे न केवल बेहतर आमदन अर्जित की जा सकती है बल्कि अन्य लोगों को भी रोजगार उपलब्ध करवाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि कृषि हमारी अर्थ व्यवस्था का अहम आधार है तथा कृषि की नई व आधुनिक तकनीकों को अपनाते हुए इससे जुडे़ रहना चाहिए। उन्होंने जिला व प्रदेश के शिक्षित युवाओं से भी कृषि की आधुनिक तकनीकों को अपनाते हुए इससे जुड़ने का आहवान किया।

क्या कहते हैं अधिकारी: 

उपनिदेशक कृषि ऊना कुलभूषण धीमान ने बताया कि जिला ऊना में मक्की की अग्रिम फसल के प्रति रूझान बढ़ रहा है तथा विभाग भी ऐसे किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए समय-समय पर उन्हें तकनीकी सहयोग प्रदान कर रहा है। उन्होंने बताया कि अग्रिम मक्की फसल के किसानों को होशियारपुर मंडी में विक्रय करके अच्छे दाम प्राप्त हो रहे हैं।  ऊना के लोअर बढे़ड़ा निवासी रघुवीर सिंह मक्की की अग्रिम  फसल से अच्छी आय अर्जित कर रहे हैं। इसके अलावा वह पिछले काफी समय से जापान वित पोषित जाइका परियोजना से भी जुड़े रहे हैं तथा मिश्रित खेती अपनाकर आय के अतिरिक्त स्त्रोत सृजित कर रहे हैं। DOP 01/07/2024
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Wednesday, 26 June 2024

हिमाचल प्रदेश के प्रथम वेटरन जर्नलिस्ट रमेश बंटा एक परिचय

हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला के जोगिन्दर नगर निवासी रमेश बंटा का जन्म 6 अगस्त, 1942 को जोगिन्दर नगर कस्बे से महज 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव हरा बाग में हुआ। इसके बाद इनका परिवार जोगिन्दर नगर आ गया तथा यहीं पर वर्तमान में इनका कारोबार है। रमेश बंटा वर्ष 1963-64 में उस वक्त पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ गए जब वे कॉलेज की शिक्षा ग्रहण करने डीएवी जालंधर गए थे। इस दौरान वे जालंधर में पंजाब केसरी समाचार पत्र से जुड़े कई लोगों के संपर्क में आए तथा 13 जून, 1965 को पंजाब केसरी के पहले प्रकाशन में भी शामिल रहे। इसके उपरांत वे पंजाब केसरी समाचार पत्र से जुड़ गए तथा वर्तमान समय तक वे पंजाब केसरी समाचार पत्र से जुड़े हुए हैं।

इसके अलावा उन्होंने वीर प्रताप, हिंदी मिलाप जैसे समाचार पत्रों के लिए भी समय-समय पर लेखन करते रहे। उन्होंने शिमला से निकलने वाले समाचार पत्र हिमालय टाईम्स के साथ भी कार्य किया। पत्रकारिता क्षेत्र में 50 वर्ष का सफर पूरा कर चुके रमेश बंटा हिमाचल प्रदेश के प्रथम वेटरन जर्नलिस्ट भी हैं। वर्ष 2012 को प्रदेश सरकार ने उन्हें वेटरन जर्नलिस्ट का दर्जा प्रदान किया हुआ है। इसके अलावा वे पंजाब केसरी समाचार पत्र के वर्ष 1965 से सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकार भी हैं।

रमेश बंटा ने प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री डॉ.वाई.एस. परमार के साथ प्रदेश का भ्रमण भी किया तथा पत्र-पत्रिकाओं व समाचार पत्रों में प्रदेश के विकास, सांस्कृतिक पहचान तथा विभिन्न राजनैतिक पहेलुओं पर विस्तृत लेख भी लिखे। रमेश बंटा वर्ष 1991 से 1993 तक हिमाचल सरकार प्रेस एक्रीडडेशन कमेटी के गैर सरकारी सदस्य भी रहे। उन्हें समय-समय पर विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया। जिसमें वर्ष 1986 में ऊना की हिमोत्कर्ष संस्था द्वारा हिमाचल पुरस्कार, वर्ष 1999 में महामहिम दलाई लामा द्वारा कलम के सिपाही पत्रकारिता पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। इसके अलावा पानीपत की संस्था जैमिनी अकादमी द्वारा इन्हें आचार्य की मानद उपाधि भी तथा शताब्दी रतन सम्मान से भी सम्मानित किया गया है। धर्मशाला के हिमाचल केसरी संस्थान द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में अहम योगदान देने के लिए हिमाचल केसरी सम्मान से भी सम्मानित किया है। हिमाचल सरकार द्वारा वर्ष 2012 में रमेश बंटा को प्रदेश का पहला वेटरन जर्नलिस्ट का दर्जा प्रदान किया है।

रमेश बंटा को वर्ष 2015 में पंजाब केसरी समाचार समूह द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में 50 वर्ष का योगदान प्रदान करने के लिये भी इन्हे सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा विकासात्मक पत्रकारिता में योगदान देने के लिए भी इन्हे जिला स्तर पर सरकार की ओर से सम्मानित किया जा चुका है। रमेश बंटा लगभग 18 वर्षों तक प्रेस क्लब जोगिन्दर नगर के प्रधान भी रहे।

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Wednesday, 5 June 2024

विश्व पर्यावरण दिवस पर कुछ चिंतन कुछ प्रश्न

5 जून प्रतिवर्ष विश्व पर्यावरण दिवस के तौर पर मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य भी पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाना है। ऐसा नहीं है कि इस तरह का आयोजन हम पहले नहीं करते आए हैं बल्कि यह सिलसिला कई वर्षों से अनवरत जारी भी है। बावजूद इसके हमारा पर्यावरण लगातार कमजोर हो रहा है, नतीजा जहां धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है तो वहीं बढ़ते तापमान के कारण हमें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। 

बात केवल मनुष्य तक की सीमित होती तो ठीक था लेकिन पर्यावरण क्षरण का असर धरती के प्रत्येक जीव जंतु को चुकाना पड़ रहा है। आलम तो यह है कि प्रतिवर्ष जीवन दायिनी जंगल धू-धू जलते हैं। अनमोल वन संपदा जलकर नष्ट हो जाती है। कई जंगली जीव जंतुओं को अपना आशियाना या फिर अपने जीवन तक से हाथ तक धोना पड़ रहा है। जिसका नतीजा तो यह है कि न केवल हमारा पारिस्थतिकी तंत्र लगातार प्रभावित हो रहा है बल्कि कई जीव जंतुओं के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिंह लग रहा है। आखिर जंगलों में आग लगाने वाले वे कौन से मनुष्य हैं? कौन सी दुनिया से यहां आते हैं तथा वे ऐसा कौन सी वायु लेते हैं? जिनके लिए हमारा वास्तविक पर्यावरण कोई महत्व ही नहीं रखता है। 

हो सकता है जंगलों को नष्ट करने वाले लोग अलग मिट्टी, हवा या पानी से बने हों जिनके लिए हमारे वास्तविक जंगल कोई अहम स्थान न रखते हों। अगर ऐसा नहीं है तो क्या हम इतने कमजोर, निर्दयी व स्वार्थी हो गए हैं कि हम जंगलों को आग के हवाले करने से गुरेज भी नहीं करते हैं। क्या हम इतने ताकतवर हैं कि हमे कोई डरा भी नहीं सकता है? लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए की स्वार्थवश जंगलों को नष्ट करने वाला मनुष्य यह शायद भूल कर बैठता है कि इस धरती को चलाने वाला कोई ओर नहीं बल्कि खुद प्रकृति है। जिसके आगे मनुष्य महज एक खिलौना है। प्रकृति ने समय-समय पर हम मनुष्यों को सचेत भी किया है लेकिन हमारी बुद्धि इतनी कमजोर है कि हम चंद दिनों या फिर महीनों में प्रकृति के दिये दंश को भूलकर पुन: पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने से गुरेज नहीं करते हैं। 

पर्यावरण दिवस के अवसर पर आज केवल यही कहना है कि यदि हमने आज प्रकृति को नहीं बचाया तो कल हम भी नहीं बचेंगे। पर्यावरण के प्रति हमारा उदद्ेश्य महज चंद पेड़ लगा देना या फिर पर्यारवरण जागरूकता के प्रति भाषण दे देना या फिर चंद पंक्तियों को लिख देना मात्र नहीं है। पर्यावरण बचाने के लिए इस धरती के प्रत्येक व्यक्ति को अपना कुछ न कुछ सहयोग अवश्य देना होगा। सर्व प्रथम तो हमें अपने आसपास के वातावरण को साफ-सुथरा रखने की दिशा में प्रयास करने होंगे। पौध रोपण करने के साथ-साथ उनका संरक्षण व पोषण करने की जिम्मेदारी लेनी होगी। 

हम जब कभी भी पर्यटन की दृष्टि से प्राकृतिक स्थानों का भ्रमण करने जाते हैं तो कूड़ा-कचरे को इधर उधर फैलाने के बजाए सही तरीके से नष्ट करने की दिशा में कार्य करना होगा।  पेयजल स्त्रोतों को गंदा करने से बचाना होगा। प्लास्टिक व ऐसे किसी सामान के उपयोग से बचना होगा जो सीधे हमारे पर्यावरण को प्रभावित करता है। जंगलों को आग से बचाने के लिए हमें स्वयं एक जागरूक नागरिक होने के नाते प्रयास करने होंगे। याद रखें यदि हम स्वार्थ की हांडी से जल्दी बाहर नहीं निकले तो आने वाला हमारा कल कैसा होगा इसकी कल्पना भी हमें कर ही लेनी चाहिए। आओ पर्यावरण दिवस के अवसर पर हम सब इस धरती को प्रदूषण से मुक्त करने की दिशा में प्रयास करें। 

याद रखें हमारी धरती सुरक्षित रहेगी तभी तो हम भी सुरक्षित रह सकते हैं। एअर कंडीशनर की हवा तथा सिलेंडर की ऑक्सजीन हमें कब तक जिंदा रख सकती है ये सब हमने करोना महामारी के दौरान जान ही लिया है। तो चलो पर्यावरण दिवस के अवसर पर हम सब धरती के संरक्षण का संकल्प लें ताकि कल हमारा सुरक्षित रह सके। 

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Thursday, 18 April 2024

अजिया पाल देवता मंदिर, सिमस (जोगिंदर नगर) ज़िला मंडी हिमाचल प्रदेश

अजिया पाल देवता की अनेकों कथाएं प्रचलित हैं। अगर बात करें तो अजिया पाल देवता से जुड़े बहुत से मंदिर हिमाचल प्रदेश के मंडी व कांगड़ा जिलों के पधर, जोगिन्दर नगर, लडभड़ोल, चौहारघाटी, छोटा व बड़ा भंगाल इत्यादि क्षेत्रों में स्थापित हैं। स्थानीय लोग अपने-अपने तरीकों व आस्था के चलते अजिया पाल देवता की पूजा अर्चना करते हैं।

कहते हैं कि जोगिन्दर नगर उपमंडल की ग्राम पंचायत सिमस में भी अजिया पाल देवता से जुड़ा एक ऐसा मंदिर है जिसका इतिहास काफी प्राचीन है। गांव सिमस की सबसे ऊंची पहाड़ी जिसे 'अजिया पाल' के नाम से भी जाना जाता है, यहां पर अजिया पाल देवता जी का पवित्र स्थान मौजूद है। गांव के बड़े बुजुर्गों का कहना है कि अजिया पाल देवता की ग्रामीण पुरातन समय से ही पूजा अर्चना करते रहे हैं। वर्तमान स्थान पर उनका एक प्राचीन मंदिर हुआ करता था, लेकिन वक्त के साथ यह ध्वस्त हो गया था। यहां मात्र कुछ मूर्तियां ही शेष रह गई थीं। लेकिन अब ग्रामीणों ने सामूहिक श्रमदान कर इस मंदिर का पुनरूधार का कार्य किया है।
स्थानीय बुजुर्ग कहते हैं कि आज से लगभग 25-30 वर्ष पूर्व तक गांव में सौंझी जातर यानि की सभी ग्रामीण मिलकर मई व जून माह में सामूहिक जातर का आयोजन किया करते थे। इस दौरान स्थानीय ग्रामीण पूरे गाजे बाजे के साथ संतान दात्री मां शारदा सिमसा के अलावा अजिया पाल देवता की पूजा अर्चना करते थे।
कहते हैं कि अजिया पाल गांव के रक्षक हैं तथा किसानों की अच्छी फसल के साथ-साथ जान माल की भी सुरक्षा करते हैं। यह प्रथा प्राचीन समय से ही जारी रही है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सौंझी जातर जैसे सामुदायिक कार्यक्रम न होने के चलते यह मंदिर उपेक्षा का शिकार हो गया था। इस बीच कुछ स्थानीय ग्रामीणों के प्रयासों के चलते इसका जीर्णोद्धार कर यहां एक नया मंदिर स्थापित किया है। इस स्थान पर न तो पानी, न ही बिजली की आपूर्ति उपलब्ध है। ऐसे में ग्रामीण सामूहिक श्रमदान व सहयोग के माध्यम से ही मंदिर निर्माण की दिशा में आगे बढ़े हैं।
यह स्थान काफी ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां से आसपास का विहंगम नजारा देखते ही बनता है।

अजिया पाल के इस पवित्र स्थान से एक तरफ जहां हमीरपुर, सुजानपुर, जयसिंहपुर, चढिय़ार, मां आशापुरी, संधोल, धर्मपुर, सरकाघाट इत्यादि क्षेत्रों को देखा जा सकता है तो वहीं दूसरी ओर बर्फ से ढक़ी धौलाधार पर्वत श्रृंखला का नजारा बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है। इसके अलावा बैजनाथ, संपूर्ण लडभड़ोल क्षेत्र, भभौरी धार, मां चतुर्भुजा का भी खूबसूरत नजारा यहां से देखा जा सकता है। सर्दियों के मौसम में बर्फबारी के बाद जो धौलाधार पर्वत श्रृंखला का बेहद खूबसूरत नजारा बनता है मानों ऐसा लगता है कि प्रकृति अपनी पूरी छटा बिखेर कर रख दी हो। साथ ही ब्यास नदी व विनवा नदी के पवित्र संगम त्रिवेणी महादेव के भी दर्शन यहां से किये जा सकते हैं। इसके अलावा पूरे सिमस गांव का खूबसूरत दृश्य देखते ही बनता है। इस स्थान पर महज 15 से 20 मिनट खड़ी चढ़ाई चढक़र पैदल ही पहुंचा जा सकता है।
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Wednesday, 10 April 2024

नि: संतानों को संतान सुख देती है मां सिमसा

हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला के अंतर्गत जोगिन्दर नगर उपमंडल की तहसील लडभड़ोल मुख्यालय से लगभग 9 किलोमीटर की दूरी पर एक ऐसा मां का मंदिर है जो अपने भक्तों को संतान का सुख प्रदान करता है। शारदा माता सिमस जिसे अब लोग सिमस गांव के चलते मां सिमसा के नाम से जानते हैं का यह पवित्र दरबार दैवीय शक्ति के तौर पर संतान सुख प्रदान करने में राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका है। 

भले ही आज के इस वैज्ञानिक युग में नि:संतानों को संतान प्राप्ति के नए-नए तरीके खोज लिये गए हों, परन्तु मां सिमसा की दैवीय शक्ति अपना ही महत्व रखती है। प्रतिवर्ष हजारों नि:संतान दंपति संतान प्राप्ति की चाह में मां सिमसा के दरबार में आते हैं, लेकिन मां सिमसा कभी भी अपने भक्तों को निराश नहीं लौटाती है। यही कारण है कि मां सिमसा के दरबार में वर्ष भर संतान सुख से वंचित हजारों श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। वैसे तो वर्ष भर लेकिन विशेष तौर पर नवरात्र पूजन के दौरान नि:संतान महिलाएं मंदिर की निर्धारित पूजा मान्यताओं के अनुरूप मां के दरबार में सोने पहुंचती हैं। जिसे स्थानीय बोली में धरना देना भी कहा जाता है। इस बीच स्वप्र में मां सिमसा संबंधित महिला को अपनी इच्छानुसार फल प्रदान करती है। इस बीच संतान के जन्म के बाद एक वर्ष की हो जाए, तब तक नि:संतान दंपति को स्पप्र में दिए गए फल को खाने से परहेज करना पड़ता है। बच्चे के जन्म का एक वर्ष पूर्ण हो जाने तथा मां के दरबार में हाजरी भरकर तथा आशीर्वाद स्वरूप स्वप्र में दिये गए फल को चढ़ाने के बाद दंपति उस फल का सेवन कर सकते हैं। कहते हैं अब तक सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों नि:संतान दंपतियों को मां सिमसा आशीर्वाद स्वरूप संतान सुख दे चुकी है। मां के प्रति श्रद्धालुओं की अटूट आस्था ही है कि मां के दर्शनार्थ आने वाले श्रद्धालु केवल हिमाचल प्रदेश से ही नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों से भी यहां पहुंचते हैं।

मां सिमसा का यह प्राचीन मंदिर हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला के अंतर्गत तहसील लडभड़ोल से पक्की सडक़ के माध्यम से 9 किलोमीटर दूर है। विश्व प्रसिद्ध शिवधाम बैजनाथ से लगभग 30 किलोमीटर, जिला मुख्यालय मंडी से 100 किलोमीटर तथा राजधानी शिमला से लगभग 250 किलोमीटर की दूरी पर है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन बैजनाथ-पपरोला है जबकि नजदीकी हवाई अड्डा गग्गल कांगड़ा है।

इस मंदिर को पहुंचने के लिये वैसे तो कई मार्ग हैं लेकिन सबसे उपयुक्त मार्ग बैजनाथ से होते हुए है। इसके अलावा श्रद्धालु सरकाघाट धर्मपुर से होते हुए भी मंदिर पहुंच सकते हैं। उपमंडल मुख्यालय जोगिन्दर नगर से यह मंदिर लगभग 45 किलोमीटर की दूरी पर है तथा यहां से सीधी बस के माध्यम से भी मंदिर पहुंचा जा सकता है। अब हमीरपुर व ऊना क्षेत्र की ओर से आने वाले श्रद्धालु वाया संधोल होते हुए भी मंदिर पहुंच सकते हैं। सांडापत्तन में ब्यास नदी पर पुल बन चुका है जिससे अब लोगों को आने जाने में काफी सुविधा मिल रही है। रहने के लिये मंदिर मे सराय भी हैं। इसके अलावा श्रद्धालु लडभड़ोल में लोक निर्माण विभाग जलशक्ति विभाग के विश्राम गृह में भी रूक सकते हैं जबकि जोगिन्दर नगर बैजनाथ में सरकारी विश्राम गृहों के साथ-साथ कई निजी होटल भी उपलब्ध हैं।

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टोबा सिंह को पिंडी रूप में मिली मां सिमसा

माता सिमसा की उत्पत्ति के बारे में एक किंवदन्ति है कि मां सिमसा पिंडी रूप में गांव के ही एक व्यक्ति टोबा सिंह को मिली है। कहते हैं कि टोबा सिंह नागण नामक स्थान पर तरडी (एक प्रकार की सब्जी जो कि एक बेल के रुप में जमीन पर गड़ी रहती है) को खोदने गया। जब तरडी निकालने के लिये टोबा सिंह अपने औजार से जमीन पर पहली चोट करता है तो दूध की धारा बाहर आने लगती है। ये सब देखकर टोबा सिंह को लगा कि तरडी काफी मात्रा में है। जब टोबा सिंह ने दूसरा प्रहार जमीन पर किया तो जमीन से पानी की धारा निकलने लगी। ऐसे में भोला-भाला टोबा सिंह सोचने लगा कि दूध पतला हो रहा है तथा इसके ढलने के कारण पानी जैसा लग रहा है। लेकिन जब टोबा सिंह ने तीसरी चोट जमीन पर की तो वह चकित हो जाता है कि उसी स्थान से अब रक्त की धारा बहने लगती है। ऐसे में यह सब देखकर टोबा सिंह घबरा जाता है तथा डर के मारे घर वापिस चला जाता है।

इस सारी घटना के बाद घर पहुंचकर जहां टोबा सिंह तरडी मिलने के कारण दु:खी था तो वहीं उसके साथ तरडी खोदते वक्त हुई घटना से चिंतित भी था कि आखिर उसके साथ यह सब क्या हुआ। घर पहुंचकर टोबा सिंह ने इस सारी घटना का परिवार के दूसरे लोगों के साथ जिक्र भी किया लेकिन किसी को भी यह पता नहीं चला कि आखिर ऐसा क्या हो सकता है। रात्रि का भोजन करने के बाद जब टोबा सिंह सोने का प्रयास करता लेकिन उसे नींद नहीं रही थी। नींद आने तक टोबा सिंह दिन में उसके साथ घटित सारी घटना लगातार दिमाग में घूम रही थी कि आखिर यह सब क्या हुआ है। लेकिन जब टोबा सिंह को नींद आई तो स्वप्न में माता ने दर्शन दिये तथा कहा कि जिस बात से तू घबराया हुआ है, मैं उसी चिंता का निवारण करने आई हूं। मां कहती है कि ये सब उसी का ही चमत्कार है। मां ने टोबा सिंह से कहा कि सुबह उठकर तथा नहा धोकर जहां तुम खुदाई कर रहे थे उसी स्थान पर वापिस जाना तथा खुदाई के दौरान वहां पर एक मूर्ति मिलेगी। इस मूर्ति को पालकी में सजाकर गांव में ले जाकर धूमधाम से इसकी सवारी निकालना, जहां यह मूर्ति भारी लगे उसी स्थान पर इसकी स्थापना कर मंदिर का निर्माण करवाना।

सुबह होते ही टोबा सिंह ने स्वपन वाली बात अपने भाईयों को भी बताई तथा मां के आदेशानुसार तरडी वाले स्थान पहुंचकर दोबारा खुदाई का कार्य शुरू किया जाता है। खुदाई करने के बाद वहां पर देवी की मूर्ति मिली। जिसकी लम्बाई 7 वर्ष की कन्या के बराबर थी, यह मूर्ति आज भी वर्तमान मंदिर में मौजूद है। मूर्ति को जमीन में इतना दबा दिया गया कि इसका सिर का ऊपरी हिस्सा ही दिखाई देता है। खुदाई के समय जो तीन चोटें लगी थीं वो आज भी प्रत्यक्ष रुप में मां के सिर पर दिखाई देती हैं।

कहते हैं कि टोबा सिंह ने अपने भाईयों की सहायता से मां के आदेशानुसार माता की पालकी सजाकर गांव के चारों और ऊंची-ऊंची पहाडिय़ों पर घुमाया। कहते हैं कि उनका विचार मां की पालकी को गांव की सबसे उंची चोटी अजयपाल पर ले जाने की थी। लेकिन वर्तमान मंदिर के पास ही पानी की बावडी थी। टोबा सिंह उसके भाईयों ने सोचा की हाथ मुंह धोकर कुछ समय यहां पर आराम करने के बाद अजयपाल की चोटी पर जाया जाए। लेकिन थोड़ी देर तक आराम करने के बाद जैसे ही उन्होने पालकी को उठाने का प्रयास किया तो पालकी पहले से काफी भारी हो चुकी थी तथा उठाई नहीं जा रही थी। ऐसे में टोबा सिंह को स्वपन में कही बात याद गई कि कि जहां मेरी पालकी भारी हो जाएगी वहीं मेरे मंदिर का निर्माण करना। ऐसे में उन्होंने वहीं पर छोटा सा मंदिर बनवा दिया। वर्तमान मंदिर उसी स्थान पर है।

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कीमूृ वकील की कहानी

मां के आशीर्वाद के तौर पर कीमू वकील की कहानी प्रसिद्ध है। सिमसा माता के मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर सांडा पत्तन नामक गांव है। यह गांव छोटी-छोटी टोलियों में बंटा हुआ था तथा दूसरे गांव की तरह यह गांव भी मंडी जिला के सेना शासकों के अधीन ही था। कहते हैं पुराने समय में शादियां छोटी ही उम्र में कर दी जाती थीं। 

कीमू की शादी भी छोटी आयु में ही कर दी गई। कीमू की शादी वर्तमान में माता सिमसा से वर्तमान में सडक़ मार्ग के माध्यम से 8 किलोमीटर दूर द्रोव नामक स्थान पर हुई। कीमू एक निर्धन परिवार से ताल्लुक रखता था। गरीबी में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी बेहद मुश्किल था, ऐसे में वह अपनी पत्नी को स्वयं के घर में कैसे रख सकता था? ऐसे में कीमू के विवाहित होने के बावजूद भी उसकी पत्नी ससुराल में ही रहती थी। गरीबी के कारण ससुराल वाले भी उसकी पत्नी को उसके साथ नहीं भेजते थे। इस बीच कीमू पत्नी को लाने के लिये कई बार ससुराल गया, लेकिन उन्होने कीमू का हमेशा उपहास ही उड़ाया। ससुराल वाले हास्य व्यंग्य करते की जब तक तू यानि कि कीमू घोड़े पर सवार होकर हमारे घर नहीं आएगा तब तक हम अपनी बेटी को उसके साथ नहीं भेजेंगे। ऐसे में कीमू जैसे गरीब व्यक्ति के लिये घोड़ा मानों दुनिया की सबसे मूल्यवान वस्तु थी। जिसके लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाना कठिन था वह घोड़ा कहां से लाता। वैसे भी उन दिनों घोड़े बड़े-बड़े साहूकारों और राजाओं के पास ही होते थे। ऐसे में एक गरीब इंसान के लिए ये सब कल्पना से परे था। 

एक दिन पत्नी लेने ससुराल गए कीमू को खाना खिलाने के बाद ससुराल वालों ने उसके सोने का प्रबंध गौशाला जिसे स्थानीय बोली में 'घराल' कहा जाता है में किया। गरीबी के कारण कीमू के पास केवल एक फटी हुई कमीज़ तथा अंगोछा के अलावा कुछ भी नहीं था। दिन भर की थकान के कारण कीमू को जल्दी ही नींद आ गई। जब वह भरी नींद में सोया हुआ था तो गाय उसके सारे वस्त्र खा गई। जब आधी रात को कीमू की नींद खुली तो उसने अपने आप को निर्वस्त्र पाया। ऐसे में वह सोचने लगा कि लोग मुझे इस हालत में देखेंगे तो मेरा उपहास उड़ाएंगे तथा मैं अपने घर कैसे जाऊंगा? उसने योजना बनाई कि इसी वक्त घर को भाग जाना ही उचित रहेगा। रात के अंधेरे में उसे कोई नहीं देखेगा तथा घर जाकर कपड़े भी बदल लेगा। 

कीमू जब रात के अंधेरे में अपने घर की ओर जा रहा था तो सिमस गांव में सिमसा माता मंदिर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर एक वाबडी है। जब वह उस बावड़ी के समीप से गुजर रहा था तो उसे एक औरत उसकी तरफ आती हुई दिखाई दी। यह कोई साधारण औरत नहीं बल्कि मां सिमसा ही थी जो उस समय बावड़ी में स्नान कर मंदिर की ओर लौट रही थी। ऐसे में कीमू ने सोचा कि मैं तो बिल्कुल निर्वस्त्र हूं तथा आगे से कोई औरत आ रही है। इसलिए उसने अपने आप को पत्थर की आड़ में छुपा लिया तथा प्रतीक्षा करने लगा कि वह औरत वहां से निकल जाए तो मैं आगे निकलूं। लेकिन देवी तो तीनों लोकों की दृष्टिगोचर है। माता उसी पत्थर पर खड़ी हो गई जिसकी आड़ में कीमू ने स्वयं को छिपाया था। माता ने प्यार से आवाज लगाई बेटा कीमू बाहर आ जाओ। ऐसा सुनते ही कीमू चौंक पड़ा तथा मन ही मन सोचने लगा कि यह औरत तो उसका नाम भी जानती है। कीमू लगातार बाहर आने से इंकार करता रहा है, ऐसे में मां बोली कि बेटा कीमू मैं जानती हूॅं कि तू निर्वस्त्र है। तेरे ससुराल वाले अपनी बेटी तेरे साथ तभी भेजेंगे जब तू घोड़े पर बैठकर जाएगा।

मैं माता सिमसा हूं जो कुछ मैं कह रही हूं उसे ध्यान से सुनो। ठीक आज से आठवें दिन तेरे पास मंडी के सेन राजा का एक सिपाही आएगा और तुझे अपने साथ चलने को कहेगा। उस समय तू इंकार मत करना तथा उसके साथ चले जाना, बाकी मैं देख लूंगी। वहां राज दरबार में राजा जो भी सवाल करे उसका जवाब मेरा नाम लेकर देते रहना, मैं तेरी जुबान पर निवास करूंगी। इतना कहने के बाद वह आदि शक्ति वहां से अंतर्ध्यान हो गई। जब कीमू को काफी देर तक मां का स्वर नहीं सुनाई दिया तो वह घबराकर पत्थर की आड़ से बाहर निकला तथा जिस पत्थर पर मां खड़ी थी उसे ध्यान से देखता तो चकित रह गया। उस पत्थर पर देवी मां के दोनों चरण अंकित हो गए। आज भी प्रत्यक्ष रूप से उन्हे वहां देखा जा सकता है तथा भक्तजन आज भी आते जाते देवी के चरणों को स्पर्श करते हैं। 

कीमू ने मां के चरणों को स्पर्श किया तथा अपने घर वापिस चल पड़ा। रात खुलने से पहले कीमू अपने घर सांढापत्तन पहुंच गया और दूसरे कपड़े पहन लिए। घर जाकर माता सिमसा द्वारा कहे शब्द याद आने लगे और माता के कथनानुसार राजा के सिपाही के आने का इंतजार करने लगा। उसने माता का किस्सा अपने परिवार व सगे संबंधियों को भी सुनाया लेकिन केवल उपहास का ही पात्र बना। लोग उसकी इस बात पर हंसते की माता सिमसा कीमू को मिली है ऐसा हो ही नहीं सकता। कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि वह झूठ बोल रहा है। लेकिन कीमू को आंखों देखा दृश्य पर पूर्ण विश्वास था। ठीक आठवें दिन मंडी के सेन राजा का सिपाही गांव में आया था तथा पूछा कि इस गांव में कीमू कौन है। स्थानीय लोगों ने कीमू का घर दिखाया। पहले तो कीमू राजा के सिपाही को देखकर घबरा गया, लेकिन बाद में उसे माता के शब्द याद आ जाते हैं। सिपाही ने उससे पूछा कि क्या कीमू तेरा ही नाम है। उसने कहा जी कहिए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं, तो सिपाही ने कहा कि तुझे राजा ने मंडी बुलाया है तथा इसी वक्त मेरे साथ चलना होगा। कीमू राजा के सिपाहियों की बात सुनकर अंदर ही अंदर काफी खुश था कि माता सिमसा की कही बात सच होने जा रही है। जैसे की कीमू मंडी में राजा के दरबार में पहुंचे तो राजा ने पूछा कि क्या आप एक वकील हैं? आप बड़े-बड़े मुकदमें हल कर सकते हो। कीमू ने मां सिमसा का नाम लेकर कहा हां सरकार मैं एक वकील हूं। राजा साहब कीमू की बातों से बड़े प्रभावित हुए तथा उसे अपना निजी वकील नियुक्त कर दिया। राजा साहब ने उसे मुंह मांगा धन दिया था सवारी के लिए घोड़ा भी दिया। राजा साहब ने कहा कि कीमू तुम यह धन अपने गांव छोड़ आओ तथा अपनी पत्नी को भी साथ ले आओ। कीमू को राजा द्वारा उपहार स्वरूप दिया घोड़ा बहुत पसंद आया तथा उसे उसके ससुराल वालों की घोड़े के बैठकर आने की शर्त भी पूरी होने जा रही थी। कीमू बड़ी प्रसन्नता के साथ मंडी राज दरबार से अपने घर को रवाना हुआ। जब वह गोरा नामक स्थान पर पहुंचा तो उसने घोड़े के नौकरों से कहा कि सारा सामान मेरे गांव सांडापत्तन में छोड़ आओ, मैं अपनी पत्नी को ससुराल से लेकर आता हूं। जब वह अपने ससुराल पहुंचा तो सब लोग कीमू की शाही पोशाक को देखने के लिए एकत्रित हो गए और पहचानने की कोशिश करने लगे। उसने कहा वह कि कीमू है तथा ससुराल वालों से घर के प्रवेशद्वार को तोडऩे के लिये कहा ताकि वह घोड़े सहित घर के अंदर प्रवेश कर सके। ससुराल वाले कीमू से माफी मांगने लगे तथा कि घोड़े की शर्त तो महज एक हास्य-व्यंग्य था। तुम घोड़े से नीचे उतर आओ तथा खाना खाने के बाद हम अपनी लडक़ी को आपके साथ भेज देंगे। लेकिन कीमू अपनी जिद्द पर अड़ा रहा तथा अंत में ससुराल वालों को पैरोल तोडऩी पड़ी। कीमू अपनी पत्नी को घोड़े पर बिठाकर अपने घर वापस ले आया कुछ दिन घर पर ठहरने के बाद वह पत्नी सहित मंडी दरबार चला गया। वह राजा साहब के वकील के रूप में कार्य करने लगा, आज भी उसके परिवार वालों को वकील परिवार के नाम से पुकारा जाता है। मां के आशीर्वाद एवं कीमू के जरिए राजा साहब हर मुकदमें जीतते रहे तथा वह काफी प्रसिद्ध हो गया।

लेकिन कुछ समय के बाद कीमू ने दैवीय शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया। एक दिन उसने भरे दरबार में कह दिया कि यदि ब्यास नदी में जाल फेंक दिया जाए तो उसमें भूने हुए तीतर निकलेंगे। कीमू की कोई भी बात दैवीय शक्ति के कारण गलत नहीं होती थी, जब राजा ने जाल बिछाया तो नदी में भूने हुए तीतर निकले। अब कीमू ने राजा साहब को बताया कि जंगल की झाडिय़ों में जाल फेंका जाए तो उससे मछलियां निकलेगीं। राजा के आदेशानुसार जंगल में झाडिय़ों पर जाल फेंका गया तो इस बार जादुई रूप से मछलियां मिलीं। मां सिमसा की दैवीय शक्ति के कारण कीमू दिन प्रतिदिन खूब सम्मान प्राप्त कर रहा था। 

फिर एक दिन जब कीमू सो रहा था तो मां सिमसा सपने में आई तथा कीमू से कहा कि तुम मेरी दी हुई शक्तियों का दुरूपयोग कर रहे हो। तुम्हारे लिये ही मुझे ब्यास नदी में भूने हुए तीतर तथा झाडियों में मछलियों का प्रबंध करना पड़ा। ऐसे में मां सिमसा ने कहा कि वह अब तुम्हारी जिहवा से बाहर निकल रही है। इस घटना के बाद कीमू ने राजा को अपनी सारी असलियत बताई तथा कहा कि वह कोई वकील नहीं है बल्कि मां सिमसा के आशीर्वाद का ही चमत्कार है। राजा भी मां की कहानी सुन कर आश्चर्यचकित रह गया। राजा के पास कोई संतान नहीं थी तो उसने मां से संतान प्राप्ति की प्रार्थना की। मां के आशीर्वाद से राजा को संतान प्राप्त हुई तथा राजा ने मां के दरबार में हाजरी लगाकर मां का आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद मंडी के राजा ने मां के मंदिर का भी निर्माण करवाया।

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