Himdhaara Search This Blog

Friday, 22 March 2024

आखिर हम बच्चों को क्यों दूर ले जा रहे हैं उनके खूबसूरत बचपन से ?

 जब बचपन की याद को ताजा कर गए, बुरांस के फूल बेचते मिले बच्चे

पिछले दिनों जब मैं कहीं से गुजर रहा था तो रास्ते में कुछ बच्चे बुरांस के फूल बेचते हुए खड़े नजर आए। मैंने भी अपने वाहन को रोका और बच्चों के साथ बातचीत में मशगूल हो गया। मैंने कहा कि आप बच्चे कौन से गांव के हैं? क्या-क्या नाम हैं? कौन-कौन सी क्लास में पढ़ाई करते हैं? सभी बच्चों ने बड़े प्यार से कहा मेरा नाम फलां, मैं फलां उम्र का, फलां कक्षा तथा फलां गांव से संबंध रखता हूं। ये सभी बच्चे चौथी से लेकर नौवीं कक्षा तक के ही छात्र हैं। फिर मैंने कहा ये बुरांस के फूल कैसे बेच रहे हो? तो किसी बच्चे ने कहा आप ये 40 रुपये में रख लो, दूसरे ने कहा मेरे 50 रुपये में रख लो, एक बच्चा भी बुरांस के पेड़ से उतर ही रहा था, दौड़ते हुए कहने लगा इन सभी फूलों को आप 50 रुपये में खरीद लो। फिर मैंने चारों बच्चों से सभी बुरांस के फूलों को 50-50 रूपये में खरीद लिया। साथ ही चारों बच्चों को चॉकलेट खरीदने के लिए दस-दस रुपये अतिरिक्त दिये। उस दौरान बच्चों की खुशी का मानो कोई ठिकाना ही न रहा हो। देखने पर खुशी के मारे फूले नहीं समा रहे थे। मानो ऐसा लग रहा था उन्हें सुबह-सुबह कोई बड़ा खजाना हाथ लग गया हो। मैंने भी कुछ समय इन बच्चों के साथ गुजारा तथा मानों ऐसा लगा कि जैसे बचपन का जीवन एक बार फिर जीवंत हो उठा हो।

सचमुच बचपन जीवन का वह खूबसूरत दौर है जिसमें न तो व्यक्ति को किसी प्रकार की चिंता होती है न ही विभिन्न प्रकार के सामाजिक बंधनों में बंधे होने का डर रहता है। बचपन तो बस बचपन होता है। यह एक ऐसा खुला जीवन होता है, जिसमें बच्चा खूब हंसी ठिठोली, खेलना व मस्ती करना पसंद करता है। ऐसे में समय मार्च महीने का हो तथा बच्चा स्कूल की वार्षिक परीक्षाओं से मुक्त हो चुका हो तो फिर क्या कहनें? अब न तो स्कूल जाने का डर, न ही धूल मिट्टी से सने कपड़ों की चिंता। खेलते-खेलते कब सुबह से शाम हो गई पता ही नहीं चलता। मां जोर-जोर से पुकारती फिरती है बच्चे खाना खा लो। लेकिन बच्चा तो अपनी मस्ती में मग्न होकर जीवन के सबसे खूबसूरत पलों को तो बस जी लेना चाहता है। उसे न तो ठंड, गर्मी व बारिश की चिंता होती है न ही खाना खाने का कोई समय निर्धारित रहता है। बच्चा तो बस बचपन के उन खुशनुमा पलों को समेट लेने के लिए आतुर रहता है जो जीवन में कभी दोबारा नहीं मिलने वाले हैं।

कंप्यूटर व मोबाइल के इस युग से दूर उस ग्रामीण जीवन की बात करें जहां बच्चे को न केवल प्रकृति की खुली हवा व आसमान के नीचे तरह-तरह के खेल खेलना मन को खूब भाता है, बल्कि ऐसा महसूस होता है कि बसंत की बहार के उपरांत खिले फूलों के रंग जैसे जीवन को ही रंगीन बना रहे हों। आखिर ये सब हो भी क्यों न, जीवन का सबसे खूबसूरत व बेहतरीन समय भी तो हमारा बचपन ही होता है। न तो किसी प्रकार का भय व चिंता होती है न ही जीवन की आपा धापी में बड़े-बड़े सपने बुन, कुछ कर गुजरने का मन पर कोई बोझ होता है। बचपन तो केवल मन की चंचलता में वह सब कुछ कर गुजरने की कोशिश होती है जिसे उसका मन करने को कहता है। बचपन तो उस खुले आसमान के पंछी की तरह होता है जिसके लिए न तो कोई सरहद होती है न किसी प्रकार का बंधन। वो तो बस आसमान में खुली हवा के झोंके से हवा की दिशा में बस बह जाना पसंद करता है। सचमुच कुछ हद तक ऐसा ही तो हमारा बचपन होता है। हम भी जब अपने बचपन की यादों को ताजा करते हैं तो जीवन के ऐसे दौर में चले जाते हैं जहां केवल व्यक्ति आनंद की ही अनुभूति महसूस करता है। बचपन के दौरान हम सभी ने अपने-अपने गांव में कई तरह के दौर देखें हैं, अनुभव किये है या फिर यूं कहूं बचपन को खुलकर जिया है। तो फिर आज के समय में हम बच्चों को उनके बचपन से क्यों दूर ले जा रहे हैं? बच्चा मिट्टी में लोटता, मिट्टी से खेलता है कभी-कभी तो वह मिट्टी खा भी लेता है। आखिर इसमें बुराई है भी क्या? हम क्यों भूल जाते हैं कि ये प्रकृति ही तो जीवन का असली श्रृंगार है, खूबसूरती है। हमने भी तो दादा-दादी, नाना-नानी, मौसा-मौसी, चाचा-चाची इत्यादि के प्यार में बचपन की खूब अठखेलियों को जिया है, तो फिर आधुनिकता की इस चकाचौंध में हम बच्चों का बचपन क्यों छीन रहे हैं?

लेकिन इधर कंप्यूटर व मोबाईल के इस जमाने की बात करें तो हमारे बच्चे कहीं न कहीं जीवन के सबसे खूबसूरत समय बचपन को खो रहे हैं। हमारा बचपन प्रकृति से दूर होता दिखाई दे रहा है। जीवन आभासी दुनिया के ऐसे सपनों में समा रहा है जिनका न तो कोई अंत है न ही पूर्णता। हम बच्चों को भौतिकवाद की चकाचौंध में घर की चार दिवारी में कैद कर उन सपनों को हासिल करने के लिए दबाव बनाते फिर रहे हैं जो जीवन में केवल चिंता, डिप्रेशन, अनिद्रा या यूं कहें कि तरह-तरह के मानसिक व स्वास्थ्य संबंधी विकार प्रदान कर रहे हैं। सच तो यह है कि बच्चा युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते मानसिक अवसाद का शिकार होकर आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने को विवश हो रहे हैं।

सचमुच टीबी, मोबाइल व कंप्यूटर के इस दौर से दूर हम सबका बचपन कितना खूबसूरत था। अगर हम सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो आज भी वह बचपन देखने को मिल जाएगा। लेकिन दूसरी ओर आधुनिकता के इस जमाने में हमने बचपन को जीवन के सपनों में इतना बांध दिया है कि वह टीवी, मोबाइल व कंप्यूटर की आभासी दुनिया में कहीं गुम हो गया है। बच्चों पर जीवन के सपनों का बोझ इतना डाल दिया है कि वह कब युवावस्था में पहुंच गया उसे आभास भी नहीं हो रहा है। सचमुच आधुनिकता के इस दौर में हमने बच्चों को जीवन के सबसे खूबसूरत पल बचपन से कहीं दूर कर दिया है।


No comments:

Post a Comment