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Monday, 9 July 2018

मीडिया की समरस समाज निर्माण में भूमिका

भारतीय समाज और यहां की परंपराएं व संस्कृति 21वीं सदी की आधुनिकता भरी इस दुनिया में आज भी न केवल कायम है बल्कि अपनी पहचान बनाए हुए है। भले ही दुनिया के कई देशों की संस्कृति व परंपराओं का विलोपन व कई सभ्यताएं समाप्त हो गई हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति व परंपराएं न केवल आज भी पूरी दुनिया में विख्यात हैं बल्कि हमारा समाज उन्हे बेहतर ढ़ंग से संजोए हुए है। 
भारतीय समाज में वर्ग विषमता व जातिगत भेदभाव की बात आती है तो हमारा शीश शर्मसार होकर झुक जाता है। बदलते वक्त व बदलती दुनिया के साथ भारतीय समाज भी तेजी से प्रगति के पथ पर अग्रसर है तथा कई रूढिवादी परंपराओं को न केवल हमने बदला है बल्कि उनका त्याग भी किया है। बात चाहे विधवा विवाह, सत्ती प्रथा, स्वच्छता, छुआछूत, महिला उत्पीडन जैसी अनेक बुराईयों को लेकर लडे गए आंदोलनों की हो या फिर समाज सुधारकों व बुद्धिजीवियों द्वारा जन जागरूकता के अलख जगाने की। भारतीय समाज को वर्ग विषमता से मुक्त बनाने तथा सामाजिक बुराईयों से मुक्त बनाने के लिए जितना कठिन परिश्रम देश के महान समाज सुधारकों व पथ प्रदर्शकों ने किया उतना ही अहम योगदान मीडिया का भी रहा है। विभिन्न सामाजिक व स्वतंत्रता आंदोलनों की बात करें तो व्यापक जन जागरूकता लाने में लंबे वक्त तक संघर्ष जारी रहा बल्कि एक साथ समाज के बडे वर्ग को जागरूक बनाने व जोडने में समाचार पत्रों का भी सहारा लिया गया। देश के महान स्वतंत्रता सेनानियों, देशभक्तों व समाज सुधारकों ने समाचार पत्रों के माध्यम से अपने आंदलनों को आगे बढ़ाने तथा सामाजिक बुराईयों को लेकर जन जागरूकता के लिए अभियान चलाए। 
ऐसे में जहां मीडिया ने विभिन्न सामाजिक बुराईयों के प्रति जागरूकता लाने में अहम भूमिका अदा की तो वहीं सामाजिक रूख बदलने में भी पीछे नहीं रहा है। भारतीय समाज के लिए आज कितने खेद व चिंताजनक बात है कि आजादी के सात दशकों उपरान्त जातिगत छुआछूत के नाम पर व्यक्तियों के साथ भेदभाव होना न केवल घोर निंदनीय है बल्कि शर्मनाक भी है। ऐसा भी नहीं है कि जातिगत भेदभाव को लेकर सरकारी स्तर पर प्रयास नहीं हुए। इस सामाजिक समस्या से छुटकारा पाने तथा दलित व पिछडे लोगों को समाज की मुख्यधारा से जोडऩे के लिए कानूनी तौर पर कई संवैधानिक प्रावधान किए गए और बल्कि सरकारी सेवा के साथ-साथ लोकसभा व विधान सभाओं के चुनाव में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण का भी प्रावधान किया गया है। वाबजूद इसके वर्तमान में भारतीय समाज में जातिगत आधार पर भेदभाव की घटनाएं सामने आना किसी दु:ख दायी पीड़ा से कम नहीं है।
हिमाचली समाज की बात करें तो जाति विशेष के आधार पर मंदिर में प्रवेश न देना, एक ही कुंए से पानी न भरना, एक साथ बैठकर भोजन न करना तथा एक की श्मशानघाट में व्यक्ति का अंतिम संस्कार न करना जैसी घटनाओं को जहां मीडिया समय-समय पर उजागर करता रहा है बल्कि शासन व प्रशासन की आंखे भी खोलता रहा है। पिछले वर्ष कुल्लू जिला के बंजार में हुए अग्रिकांड के दौरान तबाह हुए एक गांव के लोगों को जब एक जाति विशेष के कारण  एक साथ खाना खाने से रोका तो इस घटना को प्रदेश के मीडिया ने न केवल प्रमुखता से उठाया बल्कि इस संवेदनशील मुददे को लेकर व्यापक जन जागरूकता लाने का भी भरसक प्रयास किया। इसी तरह की एक अन्य घटना इसी वर्ष कुल्लू जिला में ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बच्चों के साथ आयोजित टीवी वार्तालाप के सीधे प्रसारण के दौरान एक स्कूल में भी सामने आई। इस घटना के दौरान जहां निचली जाति से बच्चों को सामान्य बच्चों से दूर बिठाया गया बल्कि उनके साथ भेदभाव भी हुआ। इस घटना को भी मीडिया ने न केवल प्रमुखता से उठाया बल्कि इसकी गूंज सरकार व प्रशासन तक पहुंची। जिसके परिणाम स्वरूप सरकार ने इसे गंभीरता से लिया है तथा घटना में शामिल लोगों के विरूद्ध कानूनी मामला भी दर्ज किया। इसी तरह के मामले मीडिया समय-समय पर उजागर करता आ रहा है।
लेकिन अब प्रश्न जातिगत भेदभाव से जुडी इन घटनाओं के उजागर होने का नहीं बल्कि प्रश्न समाज में व्याप्त उस जातिगत भेदभाव व छूआछूत का है जो आज भी गाहे बगाहे हमारे समाज में व्याप्त है। इस तरह की घटनाएं न केवल मानवता के विरूद्ध है बल्कि सभ्य समाज के लिए चिंता का कारण भी हैं। भले ही आज हमने आधुनिक जीवन की वो तमाम ऊचांईयों छू ली हों, जो कभी हमसे कोसों दूर थीं। लेकिन महज एक व्यक्ति का इसलिए तिरस्कार कर दिया जाए कि वो तथाकथित नीच जाति से है, यह न केवल निंदनीय है बल्कि सभ्य समाज में स्वीकार्य भी नहीं हो सकता है। आखिर वर्ग विषमता से मुक्त एक आदर्श समाज बनाने में हम पीछे क्यों  हैं, इस पर भी गंभीरता से मंथन होना चाहिए। साथ ही जातिगत प्रथा के कारण समाज में विघटन पैदा हो हमें उस मानसिकता के खिलाफ भी जंग लडनी होगी। साथ ही उन स्वार्थी लोगों से भी हमें सतर्क रहना होगा जो जातिगत भेदभाव की घटनाओं को हवा देकर निजी हित साधते रहे हैं। 
इन परिस्थितियों में मीडिया को न केवल जातिगत भेदभाव से जुडी घटनाओं को प्रमुखता से उठाना चाहिए बल्कि जाति के आधार पर समाज को बांटने वाले भी बेनकाव हों ताकि जहां जातिप्रथा व छूआछूत के प्रति व्याप्त सामाजिक मानसिकता में व्यापक बदलाव लाया जा सके तो वहीं निजी हित साधने वाली राष्ट्र विरोधी ताकतों का भी डटकर विरोध किया जा सके। 
ऐसे में हमारे समाज से वर्ग विषमता व जातिगत छुआछूत की यह समाजिक बुराई पूरी तरह से समाप्त हो इसके लिए जहां देश का जागरूक मीडिया व्यापक जन जागरूकता लाने में एक अहम रोल अदा कर सकता है तो वहीं 21वीं सदी की हमारी युवा पीढ़ी इस सामाजिक समस्या को जड़ से उखाडऩे में न केवल सक्षम व समर्थ है बल्कि वह एक ऐसा भारतीय समाज स्थापित करने का भी सामथ्र्य रखती है जिसमें वर्ग विषमता, जातिप्रथा व छुआछूत के लिए कोई स्थान नहीं होगा। आओ हम सब मिलकर जाति प्रथा से मुक्त एक नए व आधुनिक भारतीय समाज निर्माण के लिए आगे आएं जहां व्यक्ति की पहचान उसकी जाति व वर्ग से नहीं बल्कि उसके कर्म व पुरूषार्थ से हो।



 (साभार: हिम संचार विशेषांक विश्व संवाद केंद्र शिमला में प्रकाशित)

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