हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिला का गिरिपार (ट्रांसगिरी) क्षेत्र लगभग 1300 वर्ग कि0 मी0 के क्षेत्र में फैला है जो जिला के कुल क्षेत्रफल का लगभग 50 फीसदी है जबकि यहां की आबादी लगभग तीन लाख के आसपास है जो जिला की कुल आबादी का लगभग 55 फीसदी है। जानकारी के अनुसार इस क्षेत्र की 125 पंचायतों में 43812 परिवार रहते हैं। प्रशासनिक दृष्टि से गिरिपार क्षेत्र में तीन तहसीलें संगड़ाह, राजगढ़ व शिलाई तथा तीन ही उप तहसीलें रोनहाट, नौहराधार व कमरऊ शामिल है।
इस क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों को हाटी समुदाय के नाम से भी पुकारा जाता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार किसी समय इस इलाके के लोग अपने खेतों से होने वाली पैदावार को पीठ पर ढ़ोकर आसपास के इलाकों में अस्थाई मंडी (हाट) लगाकर बेचते थे, जिसके कारण ये हाटी कहलाए। जानकारों के अनुसार सन 1833 से पहले यहां का गिरिपार और उतराखण्ड़ का जौनसार क्षेत्र भी सिरमौर रियासत का ही हिस्सा थे। गिरिपार के निवासी हाटी व जौनसार के लोग जौनसारा कहलाते थे। परन्तु अंग्रेजी हुकूमत ने जौनसार क्षेत्र को अपने नियन्त्रण में लेकर यूनाइटेड़ प्रोविंसज में शामिल कर लिया जो आजादी के बाद उतर प्रदेश और अब उतराखण्ड़ के नाम से अलग राज्य कहलाया। आज भले ही ये दोनों समुदाय अलग-2 राज्य में हो, परन्तु गिरिपार के हाटी और जौनसारा एक ही पूर्वज के वंशज माने जाते हैं। आज भी दोनों इलाकों के लोगों की संस्कृति, सामाजिक परम्पराएं, रहन सहन और तीज त्योहार एक जैसे ही हैं। लेकिन वर्ष 1967 में जौनसार क्षेत्र अनुसूचित जनजाति घोषित हो गया, परन्तु यहां का गिरिपार वंचित रह गया जिसको लेकर समय-2 पर आज भी इस क्षेत्र के लोग विभिन्न मंचों के माध्यम से मांग करते आ रहे है।
खैर गिरिपार क्षेत्र की कठिन भोगौलिक परिस्थितियां व कमजोर आर्थिक स्थिति से लोगों का जीवन कठिन दौर से गुजरा हो, परन्तु क्षेत्र के वाशिंदों की कड़ी मेहनत, अपनी संस्कृति व जमीन से विशेष जुड़ाव के चलते ही जहां यह क्षेत्र भी तरक्की की दिशा में भी अग्रसर हुआ है तो वहीं अपनी प्राचीन संस्कृति को संजोकर रखा है। जिसके प्रमाण यहां मनाये जाने वाले त्यौहार बूढ़ी दीवाली, माघी व खोड़ा तथा अप्रैल व अगस्त माह में विशु व हरियालटी मेलों में देखने को मिलते हंै। जहां इन मेलों में परम्परागत कुश्तियां व थोड़ाटी (ठोड़ा) नृत्य की झलक देखने को मिलती है तो वहीं आपसी मेलजोल, भाईचारे को भी बढ़ावा मिलता है। यही नहीं तीज-त्योहारों के दौरान पकने वाले पारम्परिक पकवान तेल पकी (उडद से भरी रोटी), सिडकू, शाकुली, चिडवा, मूडा, सतौले (असकली), पटवांडे इत्यादि आज भी बडे चाव के साथ पकाए व खाए जाते हैं। इस क्षेत्र में भी बहुपति प्रथा भी प्रचलित थी परन्तु इस संबंध में जानकारों का कहना है कि क्षेत्र की कठिन भोगौलिक परिस्थितियां व कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते यह प्रथा प्रचलित हुई थी, परन्तु बदलते परिवेश के साथ-2 यह प्रथा भी लगभग 95 फीसदी तक खत्म हो चुकी है। जिसका श्रेय क्षेत्र के लोगों में बढ़ता शिक्षा का प्रचार प्रसार व बेहतर होती आर्थिकी को जाता है। आज गिरिपार क्षेत्र के राजगढ़, संगडाह, शिलाई व हरिपुरधार में सरकारी काॅलेज खुले हैं, जिससे जहां क्षेत्र के युवाओं को घर के नजदीक ही उच्च शिक्षा हासिल करने के अवसर प्राप्त हुए हैं तो वहीं उच्च शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ने के नए-नए सुअवसर भी मिल रहे हैं।
परन्तु इन सब परिवर्तनों के वाबजूद आज भी गिरिपार क्षेत्र में कुछ ऐसी प्रथाएं प्रचलित हैं, जो बदलते परिवेश के साथ न केवल मेल खा रहीं है बल्कि स्थानीय वाशिंदों के लिए आर्थिक बोझ का कारण भी बन रही हैं। इन्ही प्रथाओं में सुधार लाने के लिए हाटी कल्याण कर्मचारी समिति जिला सिरमौर ने पहल की है। जिसके लिए इस समिति ने बकायदा के एक विशन डाक्यूमेंट जारी किया है जिसमें इस क्षेत्र में सदियों से चली आ रही परम्पराओं व प्रथाओं में व्यापक प्रचार-प्रसार कर समय के साथ बदलाव लाना है।
समिति द्वारा जारी विशन डाक्यूमेंट के तहत शादी समारोह जो 4-5 दिन तक चलता है तथा बकरे काटे जाने व देशी घी परोसे जाने के कई रिकाॅर्ड दर्ज हैं। जिससे नवदम्पति की शुरुआत न केवल भारी कर्ज से होती है बल्कि परिवार की आर्थिकी भी अस्त व्यस्त हो जाती है। समिति का विशन डाक्यूमेंट के तहत कहना है कि प्रतिवर्ष शादी समारोहों पर ही लगभग साढे बारह करोड रुपया खर्च हो जाता है। ऐसे में समिति ने लोगों से आहवान किया है कि जहां शादी के खर्चे को कम करने के लिए केवल एक धाम ही दी जाए तो वहीं बारातियों व अतिथियों की संख्या सीमित रखने के साथ-2 मामा धाम व सार्वजनिक तौर पर शराब परोसने पर प्रतिबंध लगाना है, साथ ही पोलटोज (गैरनू-फैरनू), पेरिऊॅंका, पोरशा प्रथा पर भी प्रतिबंध लगाना है। इसके अतिरिक्त शहरी बैंडबाजों, डीजे इत्यादि की जगह पहाडी लोकगीतों, नृत्यों व रासा नाटी इत्यादि के पारम्परिक कार्यक्रमों पर बल दिया जाना चाहिए।
जिला के गिरिपार क्षेत्र में प्रतिवर्ष 11 जनवरी को मनाए जाने वाले भातीयौज पर ही लगभग 35 से 40 करोड़ रुपये व्यय हो जाते हैं। परम्परा के अनुसार इस आयोजन के लिए प्रत्येक परिवार में एक बकरा काटा जाता है जिससे परिवार पर अनावश्यक आर्थिक बोझ पडता है। इस संबंध में समिति का सुझाव है कि पुरातन समय में जहां यहां प्राकृतिक वातावरण भिन्न था तो वहीं प्रोटीनयुक्त भोजन की उपलब्धता भी नहीं थी। साथ ही बकरी पालन यहां के लोगों का प्रमुख व्यवसाय था, जिसके कारण इसकी उपलब्धता आसानी से हो जाती थी। लेकिन आज परिस्थियां एक दम विपरित हो गई हैं तथा लोगों को इस परम्परा को निभाने के लिए दूसरे क्षेत्रों से बकरे भारी भरकम राशि खर्च कर लाने पडते हैं। ऐसे में इस प्रथा को भी बदले जाने की आवश्यकता है ताकि गरीब परिवारों पर अनावश्यक आर्थिक बोझ को कम किया जा सके। इसी तरह क्षेत्र के परिवार में किसी सदस्य की मत्यु होने पर शोक प्रकट करने का तरीका भी बहुत डरावना है। जिसे भी वक्त के साथ-2 बदले जाने की आवश्यकता है। इतना ही नहीं समिति ने इस क्षेत्र के युवाओं में नशे की बढती प्रवृति से भी छुटकारा दिलाने के लिए समाज के सभी वर्गों विशेषकर महिलाओं व अध्यापकों से आहवान किया है। साथ ही पहाडी लोक गायन में नशे को प्रोत्साहित करने वाले गाने न गाएं जाएं तथा युवाओं को इस सामाजिक बुराई के खिलाफ जागृत किए जाने पर बल दिया है।
साथ ही समिति ने नये रिवाज शुरु किये जाने पर भी बल दिया है, जिसमें ग्रामीण स्वच्छता अपनाने, कमजोर होती कार्य संस्कृति को बढावा देना तथा बच्चों में शिक्षा के प्रति जागरुक करना शामिल है। इस संबंध में समिति का मानना है कि आज भी इस क्षेत्र के एक तिहाई यानि की लगभग 15हजार घरों में शौचालय की सुविधा नहीं है। साथ ही इस क्षेत्र के युवाओं व बच्चों में पढाई व प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रति रुझान की बहुत कमी है तथा कार्य के प्रति विमुख होती नई पीढ़ी के कारण आज गांवों में जहां खेतीवाडी खत्म होती जा रही है तो वहीं आज गांव के लोगों की फल, सब्जियों, अनाज, घी, दूध इत्यादि के लिए शहरों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। इसके अतिरिक्त समिति ने इस समाज की विलुप्त होती पहाडी बोली, लोक संस्कृति, आपसी भाईचारा, सयुंक्त परिवार प्रथा, बोआरा (हेला-धाम ) प्रथा, परम्परागत न्याय प्रणाली, खुमली यानि की दहेज प्रथा का न होना इत्यादि को कायम रखने पर भी बल दिया है।
ऐसे में हम कह सकते हैं कि हाटी कल्याण कर्मचारी समिति जिला सिरमौर द्वारा ट्रांसगिरी क्षेत्र को जहां विभिन्न सामाजिक बुराईयों व खर्चीली परम्पराओं से मुक्त कर यहां के समाज को बदलते परिवेश के साथ आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से सशक्त बनाना है तो वहीं यहां की प्राचीन संस्कृति, लोक कलाओं व पहाडी बोली को भी जीवन्त रखने की एक बेहतरीन पहल है।
खैर गिरिपार क्षेत्र की कठिन भोगौलिक परिस्थितियां व कमजोर आर्थिक स्थिति से लोगों का जीवन कठिन दौर से गुजरा हो, परन्तु क्षेत्र के वाशिंदों की कड़ी मेहनत, अपनी संस्कृति व जमीन से विशेष जुड़ाव के चलते ही जहां यह क्षेत्र भी तरक्की की दिशा में भी अग्रसर हुआ है तो वहीं अपनी प्राचीन संस्कृति को संजोकर रखा है। जिसके प्रमाण यहां मनाये जाने वाले त्यौहार बूढ़ी दीवाली, माघी व खोड़ा तथा अप्रैल व अगस्त माह में विशु व हरियालटी मेलों में देखने को मिलते हंै। जहां इन मेलों में परम्परागत कुश्तियां व थोड़ाटी (ठोड़ा) नृत्य की झलक देखने को मिलती है तो वहीं आपसी मेलजोल, भाईचारे को भी बढ़ावा मिलता है। यही नहीं तीज-त्योहारों के दौरान पकने वाले पारम्परिक पकवान तेल पकी (उडद से भरी रोटी), सिडकू, शाकुली, चिडवा, मूडा, सतौले (असकली), पटवांडे इत्यादि आज भी बडे चाव के साथ पकाए व खाए जाते हैं। इस क्षेत्र में भी बहुपति प्रथा भी प्रचलित थी परन्तु इस संबंध में जानकारों का कहना है कि क्षेत्र की कठिन भोगौलिक परिस्थितियां व कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते यह प्रथा प्रचलित हुई थी, परन्तु बदलते परिवेश के साथ-2 यह प्रथा भी लगभग 95 फीसदी तक खत्म हो चुकी है। जिसका श्रेय क्षेत्र के लोगों में बढ़ता शिक्षा का प्रचार प्रसार व बेहतर होती आर्थिकी को जाता है। आज गिरिपार क्षेत्र के राजगढ़, संगडाह, शिलाई व हरिपुरधार में सरकारी काॅलेज खुले हैं, जिससे जहां क्षेत्र के युवाओं को घर के नजदीक ही उच्च शिक्षा हासिल करने के अवसर प्राप्त हुए हैं तो वहीं उच्च शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ने के नए-नए सुअवसर भी मिल रहे हैं।
परन्तु इन सब परिवर्तनों के वाबजूद आज भी गिरिपार क्षेत्र में कुछ ऐसी प्रथाएं प्रचलित हैं, जो बदलते परिवेश के साथ न केवल मेल खा रहीं है बल्कि स्थानीय वाशिंदों के लिए आर्थिक बोझ का कारण भी बन रही हैं। इन्ही प्रथाओं में सुधार लाने के लिए हाटी कल्याण कर्मचारी समिति जिला सिरमौर ने पहल की है। जिसके लिए इस समिति ने बकायदा के एक विशन डाक्यूमेंट जारी किया है जिसमें इस क्षेत्र में सदियों से चली आ रही परम्पराओं व प्रथाओं में व्यापक प्रचार-प्रसार कर समय के साथ बदलाव लाना है।
समिति द्वारा जारी विशन डाक्यूमेंट के तहत शादी समारोह जो 4-5 दिन तक चलता है तथा बकरे काटे जाने व देशी घी परोसे जाने के कई रिकाॅर्ड दर्ज हैं। जिससे नवदम्पति की शुरुआत न केवल भारी कर्ज से होती है बल्कि परिवार की आर्थिकी भी अस्त व्यस्त हो जाती है। समिति का विशन डाक्यूमेंट के तहत कहना है कि प्रतिवर्ष शादी समारोहों पर ही लगभग साढे बारह करोड रुपया खर्च हो जाता है। ऐसे में समिति ने लोगों से आहवान किया है कि जहां शादी के खर्चे को कम करने के लिए केवल एक धाम ही दी जाए तो वहीं बारातियों व अतिथियों की संख्या सीमित रखने के साथ-2 मामा धाम व सार्वजनिक तौर पर शराब परोसने पर प्रतिबंध लगाना है, साथ ही पोलटोज (गैरनू-फैरनू), पेरिऊॅंका, पोरशा प्रथा पर भी प्रतिबंध लगाना है। इसके अतिरिक्त शहरी बैंडबाजों, डीजे इत्यादि की जगह पहाडी लोकगीतों, नृत्यों व रासा नाटी इत्यादि के पारम्परिक कार्यक्रमों पर बल दिया जाना चाहिए।
जिला के गिरिपार क्षेत्र में प्रतिवर्ष 11 जनवरी को मनाए जाने वाले भातीयौज पर ही लगभग 35 से 40 करोड़ रुपये व्यय हो जाते हैं। परम्परा के अनुसार इस आयोजन के लिए प्रत्येक परिवार में एक बकरा काटा जाता है जिससे परिवार पर अनावश्यक आर्थिक बोझ पडता है। इस संबंध में समिति का सुझाव है कि पुरातन समय में जहां यहां प्राकृतिक वातावरण भिन्न था तो वहीं प्रोटीनयुक्त भोजन की उपलब्धता भी नहीं थी। साथ ही बकरी पालन यहां के लोगों का प्रमुख व्यवसाय था, जिसके कारण इसकी उपलब्धता आसानी से हो जाती थी। लेकिन आज परिस्थियां एक दम विपरित हो गई हैं तथा लोगों को इस परम्परा को निभाने के लिए दूसरे क्षेत्रों से बकरे भारी भरकम राशि खर्च कर लाने पडते हैं। ऐसे में इस प्रथा को भी बदले जाने की आवश्यकता है ताकि गरीब परिवारों पर अनावश्यक आर्थिक बोझ को कम किया जा सके। इसी तरह क्षेत्र के परिवार में किसी सदस्य की मत्यु होने पर शोक प्रकट करने का तरीका भी बहुत डरावना है। जिसे भी वक्त के साथ-2 बदले जाने की आवश्यकता है। इतना ही नहीं समिति ने इस क्षेत्र के युवाओं में नशे की बढती प्रवृति से भी छुटकारा दिलाने के लिए समाज के सभी वर्गों विशेषकर महिलाओं व अध्यापकों से आहवान किया है। साथ ही पहाडी लोक गायन में नशे को प्रोत्साहित करने वाले गाने न गाएं जाएं तथा युवाओं को इस सामाजिक बुराई के खिलाफ जागृत किए जाने पर बल दिया है।
साथ ही समिति ने नये रिवाज शुरु किये जाने पर भी बल दिया है, जिसमें ग्रामीण स्वच्छता अपनाने, कमजोर होती कार्य संस्कृति को बढावा देना तथा बच्चों में शिक्षा के प्रति जागरुक करना शामिल है। इस संबंध में समिति का मानना है कि आज भी इस क्षेत्र के एक तिहाई यानि की लगभग 15हजार घरों में शौचालय की सुविधा नहीं है। साथ ही इस क्षेत्र के युवाओं व बच्चों में पढाई व प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रति रुझान की बहुत कमी है तथा कार्य के प्रति विमुख होती नई पीढ़ी के कारण आज गांवों में जहां खेतीवाडी खत्म होती जा रही है तो वहीं आज गांव के लोगों की फल, सब्जियों, अनाज, घी, दूध इत्यादि के लिए शहरों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। इसके अतिरिक्त समिति ने इस समाज की विलुप्त होती पहाडी बोली, लोक संस्कृति, आपसी भाईचारा, सयुंक्त परिवार प्रथा, बोआरा (हेला-धाम ) प्रथा, परम्परागत न्याय प्रणाली, खुमली यानि की दहेज प्रथा का न होना इत्यादि को कायम रखने पर भी बल दिया है।
ऐसे में हम कह सकते हैं कि हाटी कल्याण कर्मचारी समिति जिला सिरमौर द्वारा ट्रांसगिरी क्षेत्र को जहां विभिन्न सामाजिक बुराईयों व खर्चीली परम्पराओं से मुक्त कर यहां के समाज को बदलते परिवेश के साथ आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से सशक्त बनाना है तो वहीं यहां की प्राचीन संस्कृति, लोक कलाओं व पहाडी बोली को भी जीवन्त रखने की एक बेहतरीन पहल है।
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