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Tuesday, 7 May 2013

बदलते सामाजिक परिदृष्य में युवाशक्ति का योगदान

किसी भी देश, समाज व परिवार के उत्थान में युवाशक्ति एक अहम भूमिका निभाती है। ये युवा ही होते हैं जो समाज की विभिन्न समस्याओं से लड़ते-2 न केवल समाज को एक दिशा प्रदान करते हैं, बल्कि युवाशक्ति के दम पर ही देश व समाज जीवन की उंचाईयों को छूता है। अगर यूं कहें कि युवाशक्ति किसी भी राष्ट्र व समाज की रीढ़ होती है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
ऐसे में आज देश के लगभग 600 विश्वविद्यालयों व 30,000 महाविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर रही हमारी युवा पीढ़ी न केवल भारतीय समाज को एक दिशा प्रदान कर सकती है बल्कि इस युवाशक्ति के दम पर भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने से कोई नहीं रोक सकता है। अगर आंकडों की बात करें तो आज लगभग 54 फीसदी आबादी 15-30 आयु वर्ष वर्ग के युवाओं की है। ऐसे में अगर हम भारत को युवाओं का देश कहें तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। लेकिन ऐसे में अगर इतिहास के पन्नों को खंगालें तो पता चलता है कि जितने भी देश व सामाजिक व्यवस्थाओं का पतन हुआ है तो इसके पीछे भी युवाशक्ति का क्षीण होना ही रहा है। जबकि जिन राष्ट्रों ने सफलता की उंचाईयों को छुआ है इसके पीछे भी युवाशक्ति का सही दिशा में मार्गदर्शन तथा समाज की विभिन्न समस्याओं के प्रति जागरुकता तथा आवश्यकता पडनें पर आन्दोलनों की राह पर चलकर देश व समाज को न केवल एक दिशा दी बल्कि प्रगति व उन्नति के पथ पर अग्रसरता भी दिखाई। सन 1789 की फ्रांस की क्रांति ने दुनिया में छात्र राजनीति का जो इतिहास लिखा, उसे आज भी कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में याद किया जाता है। 1989 में बीजिंग (चीन) के थ्येन मन चौक पर छात्रों की भूख हडताल, देश में 1974-75 का जे0पी0 आन्दोलन, अस्सी के दशक में बांग्लादेशियों के खिलाफ असम में हुआ आन्दोलन ऐसे प्रमुख छात्र आन्दोलन रहे हैं। डॉ0 राम मनोहर लोहिया ने भी लिखा है, देश को इस समय ऐसे देश सेवकों की जरुरत है, जो तन-मन-धन सभी देश पर अर्पित कर दें तथा पागलों की तरह सारी उम्र देश की भयानक समस्याओं से लडने में गुजार दें। वर्ष 1960-62 में लोहिया जी ने देश गर्माओ का नारा दिया था, जिसका अर्थ है आम आदमी को अन्याय और अत्याचारपूर्ण रुतबे से लडने के लिए तैयार करना। ऐसे में देश की वह युवाशक्ति जो 15-30 वर्ष आयुवर्ग में आती है, का सही मार्गदर्शन कर देश के छात्र नेता व बुद्विजीवी वर्ग न केवल युवाशक्ति को एक सही दिशा देकर जहां समाज की विभिन्न समस्याओं के प्रति युवाओं को जागरुक कर अहम भूमिका निभा सकते हैं तो वहीं देश के नीति निमार्ताओं, शासकों व राजनेताओं के लिए एक बेहतर समाज निमार्ण में भी अहम कडी साबित हो सकते हैं।
अगर विगत वर्षों की बात करें तो देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन से लेकर अलगाववाद, नक्सलवाद, आतंकवाद जैसी अनेक समस्याओं को लेकर भी छात्र आन्दोलनों ने सकारात्मक भूमिका के तहत समय-समय पर एक मजबूत आवाज बुलन्द की है। आज देश को जो युवा नेतृत्व की ओर भारतीय राजनीति को एक दिशा दी है, इसके लिए भी कहीं न कहीं छात्र आन्दोलनों की ही भूमिका कही जा सकती है। जिसमें चाहे आम आदमी की रोजमर्रा से जुड़ी छोटी-2 समस्याओं को लेकर लड़ा गया छोटा सा ग्रामीण आन्दोलन रहा हो या फिर महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में देश की विभिन्न सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं को लेकर लड़े जाने वाले आन्दोलनों से लेकर जय प्रकाश नारायण जैसे अनेक राष्ट्रीय स्तर के आन्दोलनों तक छात्रों की सीधी सहभागिता कही जा सकती है। ऐसे में छात्र आन्दोलनों को केवल शैक्षणिक परिसरों में लड़े जाने वाले आन्दोलनों से जोडक़र देखा जाना एकांगी दष्टिकोण ही कहा जाएगा। वस्तुत: छात्र आन्दोलन भारतीय समाज की वह बुनियाद कही जा सकती है, जिस पर भावी भविष्य की प्राचीर ही नहीं खडी है बल्कि देश व समाज को दिशा देने वाली एक ऊर्जावान शक्ति भी कह सकते हंै। आज के इस बदलते दौर में भारतीय समाज कई तरह की सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है, जिसमें चाहे कन्या भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, महिला अत्याचार, युवाओं में बढ़ती नशाखोरी  की बात हो या फिर आम आदमी से जुड़ी स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसी अनेक ज्वलंत समस्यांए कही जा सकती है। लेकिन आज के इस बदलते दौर में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि छात्र आन्दोलनों के माध्यम से छात्र नेताओं की भूमिका महज विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में होने वाले छात्रसंघ चुनावों तक ही सीमित है। इस तरह की सोच के चलते यह देखने को मिल रहा है कि छात्र आन्दोलन मुददाविहीन और पथभ्रष्ट ही नहीं बल्कि सामाजकि दृष्टिकोण से मृतप्राय: हो चले हैं। यही नहीं अधिकतर छात्र आन्दोलनों की लड़ाई वैचारिक, सिद्धांतवादी व सामाजिक समस्यांए न होकर महज छात्रसंघ चुनाव जीतकर स्वार्थसिद्धि का मार्ग प्रशस्त करना रह गया लगता है।
वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक परिदृष्य को देखते हुए हम इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकते कि छात्र राजनीति में विद्रुपता और जड़ता बढ़ी है, लेकिन इन सब कारणों के वाबजूद हम यह अर्थ नहीं निकाल सकते कि वर्तमान समय में छात्र राजनीति व छात्र आन्दोलनों की प्रासंगिकता समाप्त हो चली है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों गठित पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे0एम0 लिंगदोह कमेटी की सिफारिसों ने जहां छात्रसंघ चुनावों में राजनीतिक दखलअंदाजी पर रोक लगाई है तो वहीं प्रत्येक विश्वविद्यालय व महाविद्यालय में छात्रसंघ चुनाव करवाने की वकालत भी की है। साथ ही छात्रसंघ चुनावों में धन, बल व अनुशासनहीनता के साथ-साथ आपराधिकरण पर भी लगाम कसी है। ऐसे में कह सकते हैं कि लिंगदोह कमेटी ने भी कहीं न कहीं देश व समाज के लिए छात्र राजनीति व छात्र आन्दोलनों के महत्व को केन्द्र में रखकर आवश्यक मानते हुए ही छात्रसंघ चुनावों की गाइड़लाइन निर्धारित की गई हैं। इतना ही नहीं हम यह क्यों भूल रहे हैं कि देश की सरकार चुनने का अधिकार भी 18 वर्ष या इससे अधिक आयु वर्ग के युवाओं को दिया गया है। ऐसे में यदि छात्र राजनीति मुददापरक और आदर्शवादी होकर छात्र आन्दोलनों को दिशा दें तो एक तरफ जहां देश की राजनीति में व्याप्त अनेक विसंगतियां जैसे आपराधीकरण, भ्रष्टाचार, गिरते मूल्य व आदर्श इत्यादि हाशिए पर चली जाएंगी तो वहीं देश व समाज को ज्यादा सशक्त, जुझारु तथा बेहतर नीतियां व दिशा देने वाले भविष्य के राजनेता मिल सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले जहां छा़त्र आन्दोलनों को राजनीति की विशात से बचाने की आवश्यकता है तो वहीं नि:स्वार्थ भाव से सामाजिक आन्दोलनों में छात्र नेताओं को अपनी भागीदारी सुनिश्चित किये जानेे की जरूरत महसूस होती है। छात्र नेताओं की प्रतिबद्धता भी समाज और देश की प्रगति, एकता व भाइचारे के प्रति होनी चाहिए न कि महज छात्रसंघ चुनाव जीत कर भविष्य की राजनीतिक गोटियां फिट करने वाली स्वार्थी व मौकापरस्त सोच होनी चाहिए। परन्तु अफसोस इसी मानसिकता से ग्रस्त हमारे छात्र नेता आज छात्रसंघ चुनावों में अपना परचम लहराने के लिए जहां एक दूसरे के खून के प्यासे बन बैठते हैं तो वहीं शिक्षा के परिसर बेहतर शिक्षा के स्थान न होकर पुलिस छावनियां बनकर रह जाते हैं। शिक्षा के परिसरों में अक्सर घटने वाली ऐसी हिंसात्मक घटनाओं को रोकने के लिए देश के छात्र नेताओं व आम छात्रों को स्वयं ही पहल करनी होगी ताकि छात्र राजनीति देश के भविष्य निर्माण व विकास में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ-साथ उच्च आदर्शों व मूल्यों से युक्त बेहतर इंसान बनाने वाली बन सके। इसके लिए आम छात्रों को भी अपनी भूमिका का निवर्हन कर छात्र राजनीति व छात्र आन्दोलनों को समाज के प्रति अपना कर्तव्य मानते हुए एक सार्थक दिशा देकर सफल बनाना होगा तभी छात्र राजनीति आम छात्रों की व्यथा को स्वर देने वाली और विभिन्न सामाजिक समस्याओं के साकारात्मक समाधान का माध्यम बन सकेगी।
आज देश में करोडों युवाओं के सामने उनके बेहतर भविष्य निर्माण को लेकर अनेक चुनौतियां खड़ी है। जिसमें चाहे शिक्षा क्षेत्र से जुडी अनेकों समस्याएं हों या फिर बढ़ती बेरोजगारी की मार हो। इस तरह की अनेकों समस्याओं के निदान के लिए देश के आम छात्रों को ही एक साकारात्मक पहल कर आगे आने की जरुरत लगती है। तभी देश के करोड़ों छात्र अपनी छात्र संसद, छात्र नेताओं व छात्र आन्दोलनों के माध्यम से ही देश में शिक्षा के क्षेत्र के साथ-साथ विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सार्थक व बेहतर हल निकालने में सरकार व प्रशासन के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम कर सकते हैं, वशर्ते उनकी यह लड़ाई राजनीतिक विचारधाराओं से प्रेरित न होकर समाज की उन्नति व विकास पर आधारित हो। इस दृष्टिकोण से न केवल समाज में राजनीतिक व प्रशासनिक निर्णयों में छात्र संघों व छात्र नेताओं की भूमिका प्रभावी होगी बल्कि उनके द्वारा देश, समाज व छात्रहित में लड़े जाने वाले आन्दोलनों की सार्थकता व प्रासंगिकता भी बढ़ेगी अन्यथा वर्तमान दौर में जो भारतीय छात्र राजनीति में बढ़ती हिंसात्मक गतिविधियों से जहां छात्र राजनीति के स्तर में गिरावट देखने को मिल रही है तो वहीं उच्च शिक्षा के यह संस्थान अपने मूल उदेश्यों से भटकते हुए नजर आ रहे हैं। जिसे भारतीय समाज व देश के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है। ऐसे में किसी ने खूब कहा है:
                चिराग जल तो गए हैं नजर न लग जाए
                नजर भी उनकी जिनके यहां अंधेरा है।
                        निगाहें बद से बचना है इन चिरागों को
                        अभी है पिछला पहर दूर अभी सवेरा है।

(साभार: दैनिक दिव्य हिमाचल 10 सितम्बर, 2012 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित) 

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