देश में प्रतिवर्ष फरवरी, मार्च व अप्रैल महीनों में वार्षिक व विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं का दौर शुरू होते ही छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं भी बढ़ जाती हैं। इन वार्षिक एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव के चलते व उससे उत्पन्न होने वाले मानसिक तनाव के कारण प्रतिवर्ष सैंकड़ों छात्र आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठा लेते हैं। ऐसे में यदि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट का विश्लेषण करें तो वर्ष 2022 के दौरान देश में कुल 1 लाख 70 हजार 924 लोगों ने आत्महत्या की है जिनमें से अकेले 13 हजार छात्र ही हैं जो कुल आत्म हत्याओं का लगभग 7.6 फीसदी है। सबसे अहम बात यह है कि आत्महत्या करने वाले कुल 13 हजार छात्रों में से 2095 ऐसे छात्र हैं जिन्होंने परीक्षाओं में फेल होने के कारण अपनी जान दे दी। इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जान देने वाले 18 वर्ष से कम आयु वाले कुल 1123 छात्र हैं जिनमें 578 लड़कियां तथा 575 लडक़े शामिल हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों का आगे विश्लेषण करें तो देश में परीक्षाओं में असफल होने के कारण जहां वर्ष 2021 में कुल 1673 छात्रों ने आत्महत्याएं की है तो यही आंकड़ा वर्ष 2022 में बढक़र 2095 हो गया है। जिसमें लगभग 25 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज होना बेहद चिंतनीय विषय है। अगर कुल आत्महत्या के आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2021 में यह आंकड़ा 1 लाख 64 हजार 33 था जो 2022 में बढक़र 1 लाख 70 हजार 924 हो गया है जिसमें भी लगभग 4.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। यही नहीं वर्ष 2022 में छात्रों द्वारा आत्महत्या के कुल 10 हजार 204 मामले दर्ज हुए हैं जिनमें से 18 वर्ष से कम आयु वालों का यह आंकड़ा 1123 रहा है। ऐसे में आत्महत्या करने वाले छात्रों में से आधे से अधिक मामले 18 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों व किशोरों के हैं।
ऐसे में देश के बुद्धिजीवियों व चिंतकों के सामने यह प्रश्न आकर खड़ा हो जाता है कि आखिर देश के बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति के लिए क्या हमारी परीक्षा प्रणाली दोषी है या फिर बदलते परिवेश में हमारा पारिवारिक व सामाजिक ढ़ांचा उन्हें ऐसे आत्मघाती पग उठाने के लिए बाध्य करता है? लेकिन परीक्षा प्रणाली में मूल्यांकन की बात करें तो बदलते वक्त के साथ-साथ कई अहम बदलाव भी हुए हैं। वार्षिक परीक्षाओं के कारण होने वाले मानसिक तनाव को कम करने की दिशा में विभिन्न शिक्षा बोर्डों ने कई कदम भी उठाए हैं। लेकिन इन सब प्रयासों के बावजूद छात्रों द्वारा आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाना बेहद चिंतनीय है।
ऐसे में यदि स्कूली स्तर की वार्षिक परीक्षाओं की बात करें तो एक तरफ जहां बच्चों पर बेहतर प्रदर्शन करने का हमेशा कक्षा के भीतर दबाव बना रहता है तो दूसरी तरफ पारिवारिक व सामाजिक दबाव भी कुछ हद तक बच्चों को झेलना पड़ता है। कई बार यह भी देखने को मिलता है कि बच्चा वर्ष भर नियमित तौर पर कक्षाएं लगाता है तथा वार्षिक परीक्षा के दौरान बीमारी या अन्य पारिवारिक समस्या के कारण ठीक से परीक्षा नहीं दे पाता है तो स्वाभाविक है कि इसका प्रभाव भी बच्चे के परीक्षा परिणाम पर पड़ता है। इसके अलावा बदलते पारिवारिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मां-बाप की ऊंची व बढ़ती अपेक्षाओं का दबाव भी बच्चों को झेलना पड़ता है। ऐसे में यदि किसी एक कारण से भी बच्चा वार्षिक परीक्षाओं में बेहतर न कर पाए तो प्रतिभाशाली व होनहार बच्चा भी मानसिक व सामाजिक दबाव का शिकार आसानी से हो सकता है। जिसका नतीजा कई बार बच्चों द्वारा आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने के तौर पर सामने आता रहता है।
ऐसे में समय-समय पर हुए शैक्षिक अध्ययनों की बात करें तो परीक्षाओं के दौरान बेहतर प्रदर्शन करने तथा मनचाहे प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला पाने को लेकर बच्चों पर मानसिक तनाव के चलते आत्महत्या करने के मामले बढ़ जाते हैं। ऐसे अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि बच्चों में मानसिक दबाव के लिए परिवार और समाज का बेहताशा प्रतिस्पर्धी माहौल भी कम जिम्मेदार नहीं रहता है। इसके अलावा सामाजिक ढांचे में आ रहे बदलाव, संयुक्त परिवारों का लगातार बिखराव, शहरों में मां-बाप का नौकरीपेशा होना इत्यादि कारणों से बच्चे लगातार उपेक्षा के शिकार होते हैं। संयुक्त परिवारों के कारण बुजुर्गों की उपलब्धता जहां बच्चों को कई तरह के मानसिक दबाव झेलने में कारगर साबित होती हैं तो वहीं समय-समय मार्गदर्शन भी मिलता रहता है। लेकिन बदलते दौर में एकल परिवारों के बढ़ते चलन के कारण न केवल बच्चे मानसिक तनाव को झेलने में कमजोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं बल्कि अभिभावकों की बच्चों से उनकी क्षमताओं व रूचिओं के विपरीत बढ़ती अपेक्षाएं आग में घी का काम कर रही हैं। साथ ही बच्चों का खेल मैदान से दूर होना, टीवी व मोबाइल में अधिक समय तक कार्यशील रहना इत्यादि भी बच्चों को मानसिक व शारीरिक तौर पर कमजोर बना रहा है।
ऐसी परिस्थितियों में शिक्षा ढ़ांचे से जुड़ी तमाम एजेंसियों के साथ-साथ समाज, शिक्षकों, शिक्षण संस्थाओं एवं अभिभावकों का व्यापक तौर पर जागरूक होना तथा एक मंच पर खड़ा होना लाजमी हो जाता है। स्कूलों व शिक्षण संस्थानों को जहां बच्चों के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से किताबी ज्ञान से आगे बढ़ते हुए खेलकूद, सांस्कृतिक, रचनात्मक एवं अन्य गैर शैक्षणिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने पर बल देना होगा ताकि हमारे बच्चे मानसिक व सामाजिक तौर पर सशक्त बन सकें। साथ ही परिवार व समाज को भी भावी पीढ़ी को जीवन के उस सत्य से रू-ब-रू करवाने में किसी प्रकार की झिझक नहीं होनी चाहिए जिसने जिंदगी को केवल परीक्षाओं में उच्च अंक व मनचाहे प्रोफैशन तक ही सीमित कर दिया है। हमें भावी पीढ़ी को इस बात से बखूबी परिचय कराना चाहिए कि व्यक्ति का जीवनकाल अपने आप में एक बहुत बड़ी परीक्षा है जिसका वह पग-पग पर सामना करते हुए जीवन के संघर्ष में विजयी होता है।
आज के दौर में बच्चों को किताबी ज्ञान से कहीं ज्यादा उस व्यावहारिक ज्ञान की जरूरत है जिससे हमारी नौजवान पीढ़ी लगातार अनभिज्ञ होती जा रही है। हमें भावी पीढ़ी को कड़ी मेहनत के साथ-साथ जीवन में संपूर्ण निष्ठा, तप, त्याग, लगन, धैर्य, ईमानदारी तथा इन सबसे ऊपर नैतिकता व आदर्शों का पाठ पढ़ाना जरूरी हो गया है, जिसे हमने बनावटी जीवन की चकाचौंध में कहीं पीछे धकेल दिया है। हमें बच्चों को कल्पनाओं से भरी सफलताओं के कागजी ख्यालों से बाहर निकाल कर जीवन के वास्तविक सत्य से रू-ब-रू करवाने पर जोर देना चाहिए। हकीकत तो यह है कि आज हमने जीवन की सफलता को महज अंकों, ऊंचे पद व मनचाहे प्रोफैशन को पाने तक ही सीमित कर दिया है, लेकिन जीवन का वास्तविक सत्य इनसे भी कहीं आगे है। जरूरत है बच्चों व युवाओं को उन महान हस्तियों की जीवनी से अवगत करवाने की जो जिन्दगी के शुरूआती दौर में असफलता के बावजूद जिंदगी के अंतिम मुकाम में सफल होकर दुनिया के लिए मिसाल बन गए।
ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि जहां हमारे शिक्षण संस्थानों को बच्चों में कठिन परिश्रम, ईमानदारी व उच्च मूल्यों एवं आदर्शों का समावेश गंभीरता से करना होगा तो वहीं अभिभावकों को भी बच्चों की रूचि, क्षमता व योग्यता को ध्यान में रखकर ही लक्ष्यों का निर्धारण करना चाहिए। अन्यथा क्षमता से अधिक महत्वाकांक्षा प्रतिवर्ष सैकड़ों बच्चों को असमय ही मौत के आगोश में समाने को मजबूर करती रहेगी।
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