Himdhaara Search This Blog

Tuesday, 24 January 2017

बेटियों के प्रति सामाजिक मानसिकता में बदलाव जरूरी

आज हम ज्ञान व तकनीक की 21वीं सदी के उस दौर में जी रहे हैं जहां हमारे पास सुख सुविधाओं की वह तमाम तकनीकें व साधन उपलब्ध हैं जिनकी हम कभी परिकल्पना करते थे। हमारे पास गाडी, बंगला, धन-दौलत यहां तक की समाज में दंभ भरने के लिए ऊंचा पद, मान मर्यादा या यूं कहें की वह सभी तमाम साजो-सामान व साधन मौजूद हैं जो हमें इस सांसारिक जीवन मेंं प्रतिष्ठा दिला सकते हैं। लेकिन इन तमाम सुख-सुविधाओं के शोर शराबे व तडक़ भडक़ में लगता है कि हमारी मानवीय संवेदनाएं भी समाप्त हो चली हैं या फिर संसारिक सुख की इन भौतिक सुविधाओं व लालसाओं के आगे कहीं गौण सी हो गई हैं। एक तरफ जहां हमारा समाज चांद ही नहीं बल्कि मंगल ग्रह की सतह में पहुंचकर अपनी प्रतिभा का डंका बजा कर गोर्वान्वित महसूस करता हैं लेकिन इसी समाज में जब कोई नन्ही बेटी मां के गर्भ में पलने लगती है तो तमाम आधुनिक यंत्र व सुविधाएं उसे इस संसार में न आने देने के लिए सक्रिया हो जाती हैं जिससे हमारा सिर लज्जा से झुक जाता है। 
हमारे समाज में आए दिन बेटियों के प्रति कन्या भ्रूण हत्याएं, नवजात बच्चियों को कूडेदान या सूनसान स्थान पर छोड देना, दहेज प्रथा जैसी क्रूर व रूह कंपा देने वाली घटनाएं न केवल इंसानियत को शर्मशार करती रहती हैं बल्कि ऐसे अमानवीय वाक्यात हमारे इंसान होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं? अब इसे इंसान की क्रूरता ही कहें कि हमारे समाज मेें बेटी को जन्म लेने के लिए कितना संघर्ष करना पड रहा है। ऐसे में यदि कोई बेटी जन्म ले भी लेती है तो हमारा सामाजिक परिवेश बेटी को पराया धन कह कर न केवल उसके प्रति अपनी रूढि़वादी मानसिकता का परिचय देता है बल्कि उसके के लिए वह लगाव व प्रेम उडेलने में भी पीछे रह जाता हैं जिसकी की वह सही मायने में हकदार होती है। वास्तविक सच तो यह है कि बेटी के जन्म लेने पर समाज उस गर्म जोशी के साथ स्वागत क्यों नहीं कर पाता जितना हम अक्सर बेटे के आने की खुशी में करते हैं। दुर्गा व लक्ष्मी की पूजा करने वाले हमारे समाज में बेटियों के प्रति व्याप्त यह मानसिकता समझ से परे लग रही है। लेकिन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का झंडा गाडने वाली हमारी बेटियों के प्रति समाज की व्याप्त रूढि़वादी मानसिकता में व्यापक बदलाव लाने का समय आ गया है। 
वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में सरकारी प्रयासों से बेटियों को समाज में स्थापित करने तथा उन्हे वह मान सम्मान दिलाने के लिए लगातार विभिन्न योजनाओं व कार्यक्रमों के माध्यम से प्रयास हो रहे हैं जिनकी वह हकदार है। बात विभिन्न सरकारी योजनाओं की हो या फिर पढ़ाई लिखाई से लेकर सरकारी नौकरियों में तरजीह देने की। इन सब प्रयासों के चलते भले ही आज समाज में बेटियों के जन्म से लेकर शिक्षा के प्रकाश तक हमारा समाज जागरूक अवश्य हो रहा है, लेकिन क्या सही मायने में लोगों की मानसिकता में वह बदलाव आ पाया है जिसके लिए हम लगातार प्रयासरत हैं? कहीं ऐसा तो नहीं की सख्त कानूनी प्रावधानों के चलते समाज की सोच व भूमिका महज कन्या भ्रूण हत्याओं सहित बेटियों व महिलाओं के प्रति हो रहे सामाजिक कुकृत्यों पर पर्दा लाडने मात्र तक ही सीमित होकर तो नही रह गई है? भले ही आज हमारी बेटियां नितदिन आगे बढ़ रही हैं लेकिन उसी समाज में बेटियों की घटती संख्या हमारे माथे पर चिंता की सिकन भी खींच रही हैं। लेकिन ऐसे में अब वक्त आ गया है कि समाज को बेटियों के प्रति व्याप्त उन कारणों की तह तक जाना होगा जो रूढिवादी सामाजिक मान्यताओं व मानसिकता से ग्रस्त सोच के बदलाव में अक्सर रोडा बन कर खडे हो जाते हैं।
कानूनी स्तर पर बेटियों को संपति में बराबर हक, समाज में आगे बढऩे के लिए बेहतरीन अवसर मिले इसके लिए समाज के हर तबके को आगे आना होगा। ऐसे में बात शासन व प्रशासन की हो या फिर परिवार व समाज में समान अवसर प्रदान करने की, इस दिशा में समय-समय पर समाज सुधारकों, बुद्धिजीवियों, स्वयं सेवी व गैर सरकारी संगठनों तथा सरकार के सामूहिक प्रयासों के कारण आज महिलाएं आगे आ भी रही हैं तथा कई मामलों में बेटियों ने समाज में अपने आपको स्थापित भी किया है। लेकिन इसके बावजूद भी बेटियों के प्रति व्याप्त दोयम दर्जे वाली मानसिकतायुक्त गंभीर व अति संवेदनशील मुददे पर व्यापक चर्चा करने की पूरी गुंजाईस दिख रही है। 
भले ही व्यापक जन जागरूकता के कारण आज बेटियों के प्रति हीन भावना दिखाना सामाजिक दृष्टिकोण से एक असभ्य माना जाने लगा है। लेकिन अभी भी ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जाएंगें जो इस बात की ओर ईशारा कर रहे हैं कि बेटों की चाहत में हमारा आधुनिक समाज क्या-क्या नहीं कर रहा है। ऐसे में अब जरूरी हो जाता है कि समाज को उन तमाम कारणों की तह तक जाना होगा जो अक्सर बेटियों के पैदा होने से लेकर उनके लालन-पालन में बाधक का कारण बनते हैं। जिसमें बात चाहे दहेज प्रथा, महिला अत्याचार या फिर परिवार व समाज में उत्तराधिकारी की ही क्यों न हो। ऐसे अनगिनत कारण है जिन पर अब सामाजिक स्तर पर व्यापक चर्चा करने का वक्त आ गया है, क्योंकि कानून का पंजा ढ़ीला होते ही कल फिर बेटों की चाहत में बेटियों के दुश्मन नहीं उठ खडे होंगें इस बात की भी क्या गारंटी है?

(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 15 दिसम्बर, 2016 एवं दैनिक आपका फैसला, 20 जनवरी, 2017 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)

No comments:

Post a Comment