Thursday, 13 October 2016

नाग नावणा देवता मंदिर, डोबरी सालवाला पांवटा साहिब हिमाचल प्रदेश

हिमाचल प्रदेश देवभूमि के नाम से जाना जाता है। प्रदेश के कोने-कोने में जहां देव आस्था से लोगों की संस्कृति व परम्पराएं जुड़ी हैं तो वहीं यहां की देव संस्कृति इसको प्रमाणित भी करती है। इन्हीं देव आस्थाओं में से एक है सिरमौर जिला के गिरिपार क्षेत्र डोबरी सालवाला स्थित नाग नावणा देवता मंदिर। मंदिर के पुजारी के अनुसार नटनी के श्राप से सिरमौर रियासत की पुरानी राजधानी सिरमौरी ताल जहां गिरि नदी में आई भंयकर बाढ़ के चलते पूरी तरह से नष्ट होकर खण्डहर बन गई तो वहीं सिरमौर रियासत का राजवंश भी खत्म हो गया था।
किंवदन्ति है कि एक बार किसी नटनी ने तत्कालिन राजा सिरमौर मदन सिंह से शर्त लगाई कि वह कच्चे सूत के धागे (रस्सी) पर टोका से पोका तक नाचते हुए गिरि नदी को पार करेगी। जिसकी एवज में राजा सिरमौर ने अपने राज्य का आधा हिस्सा देने का वायदा किया। ऐसे में जब नटनी शर्त के अनुसार गिरि नदी पार करने ही वाली थी तब राजा व उसके सहयोगियों के दिलों में खेाट पैदा हो गया और धागे (रस्सी) को बीच में ही काट दिया, ऐसे में नटनी ने मरते-मरते राजा को श्राप दिया ‘आर टोका पार पोका बीच में बह जाए सारे सिरमौर के लोका‘। कहते हैं कि नटनी के इस श्राप के चलते सिरमौर रियासत की राजधानी सिरमौरी ताल गिरि नदी में आई भयंकर बाढ़ में पूरी तरह से नष्ट हो गई थी।
नाग देवता मंदिर का दृश्य
जनश्रुति है कि इसके बाद रियासत को पुनः स्थापित करने के लिए तब रियासत के राजपुरोहित व ज्योतिषियों ने जैसलमेर के राजा (जिनके पास तीन रानीयां थी) से अपनी एक रानी को सिरमौर भेजने का निवेदन किया ताकि रानी से होने वाली संतान राज्य का शासन सम्भाल सके। तब राजा ने अपनी एक रानी जो गर्भवती थी उसे सिरमौर भेजा। इसके बाद रानी जो गर्भवती थी वह सिरमौरी ताल की ओर चल पड़ी लेकिन बीच रास्ते में ही प्रसव पीडा शुरु हो गई तथा ढ़ाक (पलाश) के पेड़़ (वर्तमान नाग देवता स्थान) के नीचे पहले नाग देवता निकले उसके बाद एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। इस बालक का नाम बदन सिंह रखा तथा ढ़ाक के पेड़ (पलाश) के नीचे पैदा होने पर ढ़ाक प्रकाश भी कहलाया। ऐसे में एक बार फिर सिरमौर रियासत का राजवंश चल पडा। 
लेकिन कहते है कि नई रियासत बस जाने के वर्षों बाद राज परिवार को नाग देवता का दोष लगा। एक दिन नाग देवता ने राज परिवार के सदस्य को स्वपन में दर्शन दिए कि आपकी राजधानी तो बस चुकी तथा स्वयं तो आराम से रह रहे हैं परन्तु मेरे मंदिर का निर्माण अब तक नहीं किया गया है तथा मुझे ढ़ाक के पेड़ में शरण लेनी पड़ रही है। तदोपरान्त लगभग 1000 वर्ष पहले राज परिवार ने ढ़ाक के पेड (नाग देवता के जन्म स्थान) के पास नाग देवता के मंदिर का निर्माण करवाया। कहते है तभी से ही सिरमौर रियासत की महिलाएं व राज परिवार नाग देवता का परम भक्त रहा तथा नाग देवता को वह अपने कुल इष्ट देवता की तरह पूजते रहे हैं।लेकिन जानकार कहते हैं कि सैंकड़ों वर्ष पहले मंदिर के साथ लगते कंडेला की पहाड़ियों, जंगलों व साथ लगती दुपहरिया खड़ड से भारी भू-स्खलन होने के कारण यह प्राचीन व ऐतिहासिक मंदिर भारी मलबे के नीचे दब गया था। परन्तु कुछ वर्ष पहले की गई खुदाई में प्राचीन काल की 11वीं से लेकर 15वीं शताब्दी के मध्य की मूर्तियां व मंदिर के पुख्ता सबूत मिले हैं। पुरात्व विभाग की टीम ने खुदाई के दौरान मिली मूर्तियों की जाॅंच की तथा इनका पंजीकरण कर इन्हें मंदिर के अन्दर व बाहर रखा गया है। जानकारों के अनुसार यहां खुदाई के दौरान प्राचीन काल की लगभग 60-65 मूर्तियां मिली हैं, जिनकी लंबाई लगभग एक फुट से लेकर चार फुट तक है। इन प्राचीन मूर्तियों में ब्रह्मा, कुंड़ल, सुदर्शन, चक्रधारी, लक्ष्मी नारायण दरबार, गणेश, सदाशिव, सूर्यदेव, कुम्म कलश, कार्तिक, विष्णु शेषनाग, शिव-पार्वती इत्यादि शामिल हैं। ऐसे में यह मंदिर प्राचीन व ऐतिहासिक घटनाओं का जीवंत उदाहरण है। 
यहां पर दशहरे के दिन चार दिवसीय मेला लगता है। इस मेले में आसपास क्षेत्रों के साथ-साथ पडोसी राज्यों उतराखंड व हरियाणा के लोग भी बड़ी संख्या में भाग लेते हैं। परम्परा के अनुसार दशहरा उत्सव के एक दिन पहले नाग देवता की पालकी कोटगा गांव से आती है तथा पांचवें दिन वापिस चली जाती है। तब तक यहां मेले का आयोजन चलता रहता है तथा लोग नाग देवता के दर्शन प्राप्त करते हैं। यही नहीं परम्परा के अनुसार लोग अनाज जैसे गेहॅूं व मक्की इत्यादि की नई फसल, जिसे यहां के लोग फसलनामा भी कहते को भी चढ़ाने आते हैं। बरसात के दिनों में मंदिर पूरी तरह से पानी में डूब जाता है। इस मंदिर के साथ ही लक्ष्मी नारायण, काली माता व माॅं बाला सुंदरी के मंदिर भी हैं। वर्तमान में इस मंदिर का संचालन नाग देवता समिति के माध्यम से किया जा रहा है, जिसका गठन वर्ष 2000 में किया है। समिति ने श्रद्धालुओं के ठहरने हेतू दो कमरों का निर्माण तथा पीने के पानी का भी उचित प्रबंध करवाया है।
यह ऐतिहासिक व प्राचीन मंदिर पांवटा साहिब से लगभग 12 कि0मी0, नाहन से 58 कि0मी0 तथा देहरादून से भी 58 कि0मी0 की दूरी पर है। यह स्थान वर्ष भर सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है जबकि सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन भी देहरादून ही है।

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