सडक़ दुर्घटनाओं के कारण मरने वाले व्यक्तियों की सूची में भारत का स्थान दुनिया में सबसे ऊपर है। भारत में प्रतिवर्ष पांच लाख से अधिक सडक दुर्घटनाएं होती है जिनमें लगभग डेढ लाख लोगों की जान चली जाती है जबकि लाखों घायलों को यह सडक दुर्घटनाएं जीवन भर का दर्द दे जाती है। सडक़ परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय भारत सरकार के आंकडों के आधार पर देश में प्रतिदिन 1374 सडक़ दुर्घटनाओं में 400 लोगों की मौत हो रही है। लेकिन इन सडक दुर्घटनाओं के शिकार कई लोगों की मौत इसलिए भी हो रही है क्योंकि सडक दुर्घटनाओं के शिकार घंटों सडकों पर पडे रहते हैं लेकिन नजदीकी अस्पताल तक पहुंचाने के लिए कोई मदद को आगे नहीं आ पाता है। ऐसे में सडक दुर्घटनाओं के शिकार कई लोग घावों को न सह पाने तथा समय पर प्राथमिक उपचार न मिल पाने के कारण तडपते हुए मौत के आगोश में समा जाते हैं।
इस संदर्भ में किए गए एक सर्वेक्षण से यह पता चला है कि सडक दुर्घटना स्थल के आसपास खड़े लगभग 88 फीसदी लोग कानूनी पचडों और पुलिसिया कार्रवाई से बचने के लिए दुर्घटना से पीडित लोगों की मदद के लिए आगे नहीं आ पाते हैं। जिसका प्रमुख कारण पुलिस द्वारा बार-बार प्रश्न पूछे जाने, न्यायालय द्वारा बार-बार समन देने तथा गैर-इरादतन दुर्घटनात्मक मृत्यु के लिए मुकदमा चलाए जाने के डर से दुर्घटना स्थल के आसपास से गुजरने वाले लोग पीडित की मदद करने से गुरेज करते हैं। लेकिन माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक मामले के तहत अब सडक दुर्घटनाओं के शिकार लोगों की मदद करने वालों के बचाव में कई कडे निर्देश जारी किए हैं।
उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी इन निर्देशों के तहत किसी भी सडक़ दुर्घटना के प्रत्यक्षदर्शी सहित कोई भी बाईस्टैंडर या गुड सेमेरिटन किसी घायल व्यक्ति को निकटतम अस्पताल में लेकर जा सकता है तथा उन्हे अस्पताल से तुरन्त जाने की अनुमति दे दी जाएगी और इनसे कोई भी प्रश्न नहीं पूछा जाएगा सिवाय प्रत्यक्षदर्शी के जिसे भी पता बताने के बाद जाने दिया जाएगा। सडक दुर्घटना के पीडितों की मदद के लिए आगे आने वाले नागरिकों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार अपने तरीके से ऐसे भले आदमी को ईनाम या मुआवजा देने का प्रावधान भी कर सकती है। बाईस्टैंडर या गुड समेरिटन किसी सिविल एवं आपराधिक दायित्व के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। सडक़ पर घायल व्यक्ति के लिए पुलिस या आपातकालीन सेवा के लिए सूचना देने पर भले आदमी को फोन अथवा व्यक्तिगत रूप से उ पस्थित होकर अपना नाम और व्यक्तिगत विवरण देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है बल्कि ऐसी सूचना देने को स्वैच्छिक व वैकल्पिक बनाया गया है।
इन्ही निर्देशों के तहत उन सरकारी अधिकारियों के विरूद्ध संबंधित सरकार द्वारा अनुशासनात्मक या विभागीय कार्रवाई अमल में लाई जा सकती है जो सडक दुर्घटना पीडितों की मदद के लिए आगे आए किसी भले आदमी को अपना नाम या व्यक्तिगत जानकारी देने के लिए बाघ्य करेंगें। यदि इस संदर्भ में कोई बाईस्टैंडर या भला आदमी स्वैच्छिक तौर पर दुर्घटना का प्रत्यक्षदर्शी होने का उल्लेख करता है तो ऐसे व्यक्ति को राज्य सरकार यह सुनिश्चित बनाए कि उसे उत्पीडित या धमकाया न जाए। साथ ही भले आदमी को उत्पीडऩ या असुविधा से दूर रखने के लिए पूछताछ के दौरान विडियो कांफ्रेंसिंग का विस्तृत रूप से इस्तेमाल किया जाए।
न्यायालय ने यह निर्देश भी जारी किए हैं कि यदि कोई भला व्यक्ति किसी सडक दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को किसी पंजीकृत सरकारी या निजी अस्पताल में ईलाज के लिए साथ लेकर आता है तो ऐसे व्यक्ति को वह न तो रोक सकते हैं न ही अस्पताल में पंजीकरण एवं भर्ती लागतों के लिए भुगतान की मांग कर सकते हैं बशर्ते वह भला आदमी घायल व्यक्ति के परिवार का कोई सदस्य या सगा संबंधी न हो। ऐसी स्थिति में संबंधित अस्पताल द्वारा घायल का तुरन्त इलाज किया जाए। साथ ही सडक दुर्घटनाओं से संबंधित किसी आपातकालीन परिस्थिति में यदि डॉक्टर उचित चिकित्सीय देखभाल व ईलाज करने में कोताही करता है तो ऐसे चिकित्सकों के खिलाफ भारतीय चिकित्सा परिषद् (व्यवसायिक आचार, शिष्टाचार और नैतिक विनियम-2002) के अध्याय-7 के अंतर्गत अनुशासनात्मक कार्रवाई अमल में लाई जा सकती है। इस संदर्भ में न्यायालय ने यह निर्देश भी जारी किए हैं कि सभी अस्पताल अपने प्रवेश द्वार में हिंदी, अंग्रेजी सहित स्थानीय भाषाओं में एक चार्टर भी प्रकाशित करें जिसमें यह उल्लेख किया गया हो कि सडक दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को उपचार के लिए लाने वाले बाईस्टैंडर या भले व्यक्ति को वह नहीं रोकेंगे तथा न ही घायल व्यक्ति के उपचार के लिए धन जमा कराने के लिए कहेंगें। बल्कि बाईस्टैंडर या भले आदमी को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारें ऐसे व्यक्तियों को पावती भी उपलब्ध करा सकती हैं तथा ऐसे नेक व्यक्ति बारे जानकारी दूसरे अस्पतालों में भी भेज सकती है।
सडक दुर्घटनाओं में घायल व्यक्तियों को लेकर माननीय न्यायालय का यही कहना है कि मानव जीवन की रक्षा से सर्वोपरि कोई दूसरा विचार नहीं हो सकता है। क्योंकि व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के पश्चात, कुछ भी करके पूर्ववृत स्थिति प्राप्त नहीं की जा सकती है, क्योंकि मृत व्यक्ति को जीवित करना मनुष्य की क्षमताओं से बाहर है। इसलिए प्रत्येक चिकित्सक सहित पुलिस व इन दुर्घटनाओं से जुडा कोई भी व्यक्ति मामले से जुडी दूसरी औपचारिकताओं को पूरी करने से पहले सर्वप्रथम घायलों के उपचार व जिंदगी बचाने को शीर्ष प्राथमिकता प्रदान करे।
(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 8 सितम्बर, 2016 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)
(साभार: दैनिक न्याय सेतु, 8 सितम्बर, 2016 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)
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