Thursday, 8 August 2024

मैं पहाड़ हूं,आखिर मेरी भी सहनशक्ति की एक सीमा है

मैं पहाड़ हूं। अब ओर ज्यादा बोझ नहीं सह सकता। आखिर, मेरी भी सहनशक्ति की एक सीमा है। मानो ऐसा लग रहा है कि कमोबेश यही कुछ कहना चाह रहा है दुनिया के पर्वतों का सरताज हिमालय।

अगर हिमालय की बात करें तो पिछले कुछ वर्षों से चाहे बात हिमाचल की हो, उत्तराखंड की हो या फिर दूसरे हिमालयी राज्यों की। प्रतिवर्ष हमारे पहाड़ों में प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप वर्ष दर वर्ष बढ़ता जा रहा है। बीते वर्ष की भांति अगला वर्ष इन प्राकृतिक आपदाओं का एक भयावह मंजर लेकर हम सबके सामने होता है। इन प्राकृतिक आपदाओं के कारण जहां प्रत्येक वर्ष सैंकड़ों लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ रहा है तो वहीं करोड़ों की संपति पलक झपकते ही कब मिट्टी हो गई पता ही नहीं चलता है। चंद मिनटों में ही हम इन्सानों के वर्षों संजोय सपने कब धराशायी हो जाए इसकी कोई गारंटी नहीं। इन प्राकृतिक आपदाओं में जब कोई अपने सबसे करीबी को खोता है तो उसका दर्द, उसकी पीड़ा तो केवल अपनों को खोने वाला व्यक्ति ही महसूस कर सकता है। लेकिन अब प्रश्न यही खड़ा हो रहा है कि आखिर देवता तुल्य हमारे ये पहाड़ हमसे इतने रूष्ट क्यों हो चले हैं? आखिर हम इंसानों ने ऐसा क्या कर दिया है कि कभी अच्छी वर्षा के लिये ईश्वर से गुहार लगा रहे लोगों के लिये मात्र चंद घंटों की बारिश विनाश लीला लिख दे रही है। प्रत्येक वर्ष यह बरसात हमें ऐसे जख्म दे रही है जो शायद ही कभी भरें। क्या हमने इस ओर कभी सोचने का प्रयास किया है?

ऐसा नहीं है कि हमारा ये हिमालय पर्वत अभी-अभी खड़ा हुआ हो। इसने न जाने कितनी उठती, खिलखिलाती, बिखरती व खंडहर होती पीढिय़ों को अपनी गोद में खिलाया है। यह वही हिमालय पर्वत है जिससे निकलने वाली अनेकों नदियां हमें जीवन दे रही हैं। ये वही हिमालय है जिसने जल रूपी जीवन देकर अनेकों सभ्यताओं को फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया। इसी हिमालय के आगोश में बैठकर ऋषि मुनियों ने घोर तप कर मोक्ष की अनुभूति की है। यह वही हिमालय पर्वत है जिसके आंचल में करोड़ों देवी-देवता वास करते हैं। करोड़ों इंसानों के साथ-साथ जीव जंतुओं व पेड़ पौधों का घर भी है। फिर ये हिमालय राज आज हम इन्सानों से इतने रूष्ट क्यों हो गए हैं? क्यों हमें इतनी कठोर सजा दे रहे हैं? क्या हम इंसानों ने कभी इन प्रश्नों के उत्तर को अपने भीतर टटोलने का प्रयास किया है? क्या हमारे पास इतना समय है कि हमने पहाड़ों की खूबसूरत प्रकृति को कभी समझने की ओर कदम बढ़ाए हैं? खैर मन में ऐसे असंख्य प्रश्न खड़े हो रहे हैं जिनका शायद कोई अंत ही न हो।
लेकिन लगता है प्रतिवर्ष हो रही पहाड़ों की इस विनाशलीला को रोकने के लिए कठोर कदम उठाने का समय आ गया है। हमें अब इस बात पर गंभीरता से मंथन करना होगा कि आखिर ऐसा क्या हो गया है की मन को सुकून देने वाले ये खूबसूरत पहाड़ इतने रूष्ट हो चले हैं कि अब तो यहां रहने पर भी डर लगने लगा है? क्या हम इंसान इसके लिये प्रकृति को ही दोषी ठहरा देंगे या फिर अपनी जिम्मेदारी का भी एहसास करेंगे। हम शायद यहां कुछ भूल कर रहे हैं कि आखिर इन पहाड़ों की भी सहनशक्ति की कोई सीमा तो होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम इंसानों ने स्वार्थ की पूर्ति के लिये पहाड़ों का इतना दोहन कर दिया हो कि अब वो हमारा बोझ उठाने में ही सक्षम न रहे हों। लगता है कि हम इंसानों ने स्वार्थ की पूर्ति के लिए पहाड़ों पर इतना अतिक्रमण कर लिया हो कि देवता तुल्य ये पहाड़ अब हमसे नाराज हो चले हों। कहीं ऐसा तो नहीं पहाड़ों के कण-कण में वास करने वाले असंख्य देवी देवताओं के प्रति हमने निर्धारित लक्ष्मण रेखा को ही पार तो नहीं कर दिया है। हमें इस बात पर भी गौर करना होगा कि कहीं हमारे ये पहाड़ भविष्य में किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा के प्रति हमें सजग, सचेत व सर्तक तो नहीं कर रहे हैं।  
लेकिन अब यह प्रश्न खड़ा हो रहा है कि तो क्या हम इंसान पहाड़ों को छोडक़र मैदानों की ओर चले जाएं? आखिर ये भी तो संभव नहीं है। ऐसा भी तो नहीं है कि पहाड़ों में रहने वाले केवल हम अकेले इंसान हों। सदियों से लोग यहां रहते आए हैं। तो फिर ऐसा हम क्या कर सकते हैं कि हम भी सुरक्षित रहें और देवता तुल्य हमारे ये पहाड़ भी। तो क्या हम इस दृष्टिकोण के साथ कुछ लक्ष्य निर्धारित नहीं कर सकते हैं? मुझे लगता है कि सबसे पहले हम इंसानों को जहां विकास रूपी मॉडल की परिभाषा को पहाड़ों की दृष्टि से पुन: परिभाषित करना होगा। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि पहाड़ों व मैदानों में विकास का एक जैसा मॉडल हम तय नहीं कर सकते हैं। हम पहाड़ों में चंडीगढ़, दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों की अपेक्षाकृत न तो गगनचुंबी इमारतों को खड़ा कर सकते हैं न ही प्रत्येक आंगन को सडक़ सुविधा से जोडऩे की इच्छा ही रख सकते हैं।
हम शायद यह भूल कर बैठते हैं कि पहाड़ विकास के नाम पर वह सब नहीं सह सकते जो हमारे मैदानी इलाकों में होता है। आखिर हमारे इन पहाड़ों की सहनशक्ति की भी एक सीमा है। लेकिन हम इंसान अपनी सुविधाओं को बढ़ाने के लिए इन पहाड़ों को कभी सडक़ के नाम पर तो कभी रास्तों के नाम पर तो कहीं बहु मंजिला भवन बना कर चीर हरण करने में भी तो कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। हद तो तब हो जाती है जब हम लालच में आकर नदी-नालों के मुहानों पर अतिक्रमण ही नहीं बल्कि बंद करने से भी गुरेज नहीं करते हैं। ऊपर से पर्यटन व धार्मिक यात्राओं के नाम हम पहाड़ों पर सुकून प्राप्त करने तो जाते हैं लेकिन कई तरह का कूड़ा कचरा भी हम इंसान ही तो छोडक़र आ रहे हैं।
हकीकत तो यह है कि हम इंसानों ने सुख सुविधाओं की लालसा में पहाड़ों को इतना छलनी कर दिया है कि अब लगता है कि वे हमारा बोझ उठाने में असमर्थ हो रहे हैं। नतीजा हमारी प्रकृति कहीं भूस्खलन, कहीं बाढ़, कहीं पेड़ गिरने तो अब बादल फटने जैसी अनेकों घटनाएं हमें आए दिन पीड़ा रूपी जख्म दे रही है। हमें यह भी याद रखना होगा कि हम भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र में रहते हैं तथा रिक्टर पैमाने पर 6 या इससे अधिक की कंपन भयंकर विनाशलीला लिख सकती है। ऐसे में आओ प्रकृति के दिये इन जख्मों से हम कुछ सबक लें। भविष्य के लिए ऐसा खाका तैयार करें जिससे न केवल हम इंसान ही सुरक्षित न हों बल्कि देवता तुल्य ये पहाड़ भी अपनी प्राकृतिक विविधता एवं सुंदरता को कायम रख सकें। हमें यह नहीं भूलना होगा कि आखिर इन पहाड़ों की सहनशक्ति की भी तो कोई सीमा होगी। लेकिन स्वार्थ की हांडी में एक अंधी दौड़ दौड़ता इंसान क्या प्रकृति द्वारा आए दिन दिये जा रहे इन जख्मों से कोई सीख लेगा? DOP 06/08/2024
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