देवी हडिम्बा को समर्पित पैगोड़ा शैली का यह प्राचीन मंदिर सन् 1553 ई. में कुल्लू के राजा बहादुर सिंह ने बनवाया था। पैगोड़ा शैली में निर्मित मंदिर की ऊंचाई आधार से लगभग 80 फीट है तथा यह तीन ओर से 12 फीट ऊंचाई वाले संकरे बरामदे से घिरा है। इसकी दलवां काष्ठ निर्मित छत चार भागों में विभक्त है। जिसका ऊपरी भाग गोलाकार है जो कि कांस्य कलश एवं त्रिशूल से सुशोभित है। वर्गाकार गर्भगृह में हडिम्बा देवी की कांस्य निर्मित सुंद प्रतिमा प्रतिष्ठित है तथा चतुष्पदिय प्रवेश द्वार विभिन्न देवी-देवताओं तथा वेलबूटे, घटपल्लव अभिप्राय, पशु जैसे हाथी, मकर इत्यादि के अंकन सुसज्जित हैं। प्रवेश द्वार के दायीं ओर महिषासुर मर्दिनी, हाथ जोड़े भक्त तथा नंदी पर आसीन उमामहेश्वर और बायीं ओर दुर्गा, हाथ जोड़े भक्त तथा गरूड़ पर आसीन लक्ष्मीनारायण को दर्शाया गया है। ललाटबिम्ब गणेश तथा उसके ऊपर शहतीर पर नवग्रहों का अंकन है। सबसे ऊपरी भाग में बौद्ध आकृतियां उकेरी गई हैं। इस स्थान को वर्ष 1967 में इसे प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम-1958 के तहत राष्ट्रीय महत्व का संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है।
प्राचीन कथानुसार हडिम्बा महाभारत काल में एक विशेष कार्य की पूर्ति के लिए राक्षस कुल में पैदा हुई थी। यह अपने भाई हडिम्ब के साथ रहती थी जो बहुत बलशाली था और सारे क्षेत्र में उसकी दहशत थी। जब पांडवों के अज्ञातवास के समय भीम व हडिम्बा का मिलन हुआ वो हडिम्ब को कतई पसंद न था जिसके विरोधस्वरूप उसने भीम को युद्ध के लिए ललकारा। कई दिनों तक दोनों में भीषण युद्ध हुआ अंत में भीम ने उसे मार गिराया। इसके पश्चात माता कुंती के आशीर्वाद से भीम व हडिम्बा का विवाह इस शर्त के साथ हुआ कि भीम केवल संतान होने तक हडिम्बा के साथ रहेंगे। उसके बाद अपने भाइयों व माता संग चले जाएंगे। माता कुंती अपने चार पुत्रों के साथ भीम को हडिम्बा संग छोडक़र आगे निकल जाते हैं। ठीक एक वर्ष के बाद हडिम्बा को पुत्र की प्राप्ति होती है जिसका नाम घटोत्कच रखा गया। यही घटोत्कच महाभारत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जब कर्ण के द्वारा छोड़े गए अचूक शस्त्र का अपना बलिदान देकर उसे अपने ऊपर लेकर अर्जुन के प्राण बचाता है तथा मरते-मरते कौरवों की सेना को भारी क्षति पहुंचाता है। इस महान बलिदान के बाद भगवान कृष्ण पुत्र घटोत्कच व माता हडिम्बा को वरदान देते हैं कि आने वाले युगों में तुम्हारे इस बलिदान को सदा याद रखा जाएगा।
इसके बाद माता हडिम्बा ने यहां अपना राक्षसी स्वरूप त्याग कर कई वर्षों तक तपस्या की। कुल्लू में क्रूर पीती ठाकुरों के शासन का सर्वनाश कर विहंगमणिपाल को कुल्लू के राज सिंहासन पर बिठाया। आज माता हडिम्बा को काली व दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। मंदिर के भीतर विशाल शीला के नीचे माता हडिम्बा के चरणों व पीछे बड़ी शीला के साथ महिषासुर मर्दिनि के दर्शन कर सकते हैं। मई माह में माता हडिम्बा के जन्मदिन के अवसर पर मेला मनाया जाता है। कुल्लू का दशहरा भी माता हडिम्बा के द्वारा शुरू किया जाता है।
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