भारत में भ्रष्टाचार व कालेधन को लेकर आजकल कोहराम मचा हुआ है। 8 नवम्बर के बाद देश में बंद हुए एक हजार व पांच सौ रूपये के नोटों के चलते हर तरफ मानो अफरातफरी का माहौल व्याप्त है। समाज के हर वर्ग का व्यक्ति बंद हुए नोटों के चलते जहां बैंकों व डाकघरों के बाहर पुराने नोटों को जमा करने व बदलवाने के लिए घंटों कतारबद्ध हो रहे हैं तो वहीं काली कमाई कर लाखों-करोडों दबा बैठे लोगों की मानों रातों-रात पूरी जिंदगी ही तबाह हो गई हो। खैर ये सब जो हुआ इसके पीछे भारत सरकार का निर्णय लेने के कारण कुछ भी रहे हों। लेकिन ऐेसे माहौल मेें अब एक ही प्रश्न उभर कर सामने आ रहा है कि आखिर भ्रष्टाचार को लेकर सामाजिक मानसिकता में बदलाव आ पाएगा? क्या भ्रष्टाचार के विरूद्ध इस लडाई में हमारी कार्य संस्कृति, स्वच्छ, पारदर्शी व जबावदेह बन पाएगी? क्या लोगों के आचरण व व्यवहार में वह परिवर्तन आ पाएगा जिसकी आज देश को सख्त दरकार है?
लेकिन ऐसे में अब प्रश्न यह उठ रहा है कि आखिर भ्रष्टाचार है क्या? क्या महज चंद रूपयों की खातिर नियमों की उलंघना करना या फिर गलत तरीके से राज्य व्यवस्थाओं के विरूद्ध कार्य करते हुए चल व अचल संपति को एकत्रित करना मात्र है। वास्तव में भ्रष्टाचार इन सब बातों से भी कहीं आगे बढक़र है जो सीधा व्यक्ति विशेष के आचरण व व्यवहार से जुडा मसला है।
हमारी इस सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन कहीं न कहीं लडता है, जूझता है या फिर यूं कहें कि विभिन्न परिस्थितियों का सामना करता है। बात चाहे बस स्टैंड व रेलवे स्टेशन पर टिकट हासिल करने की हो या फिर सरकारी कार्यालयों में कार्यों के निपटान से लेकर बाजार से जरूरी चीजों की खरीदफरोख्त की हो। ऐसे में अक्सर देखा जाता है कि व्यक्ति अपने जीवन व दिनचर्या से जुडे इन छोटे-छोटे कार्यों के लिए या तो वह किसी ऊंची पहुंच की तलाश में जुट जाता है या कुछ ले देकर जल्द निपटाने में ही भला चाहता है। जबकि हमारी बाजारी व्यवस्था के कडवे अनुभव उपभोक्ताओं की खून पसीने की कमाई पर कई बार भारी पड जाते हैं। लेकिन भ्रष्ट आचरण व व्यवहार की इस विषवेल में जहां देश का आम नागरिक मनमसोस कर रह जाता है तो वहीं इसका सीधा असर हमारी कार्य संस्कृति व व्यवस्था पर भी पडता है। लेकिन अब सवाल यह खडा होता है कि समाज का एक तबका लाइन व सिस्टम में खडा होकर कार्य करवाने को अपनी हैसियत के विरूद्ध अपनी तौहीन समझता है या फिर ऐसा करके वह समाज में अपनी धौंस जमाता है।
अब आप दिनचर्या में से ही बैंकों या अस्पतालों का ही उदाहरण ले लीजिए। जहां पहुंच व जान पहचान से दूर व्यक्ति घंटों लाईन पर खडा होकर अपनी बारी का इंतजार करता है तो वहीं ऊंची पहुंच व रसूखदार व्यक्ति सेटिंग या चालाकी से अपना काम निकलवा लेता है। कई बार तो आलम यह हो जाता है कि जहां सही व्यक्ति भ्रष्टाचारियों से लडते-2 कहीं कोसों दूर पीछे रह जाता है तो वहीं व्यवस्था का दम घोटने वाले ही निर्णय की स्थिति में पहुंच जाते हैं। अब आप क्या इसे भ्रष्टाचार नहीं कहेंगें? वास्तव में भ्रष्टाचार के पोषक महज समाज के चंद लोगों को ही नहीं कहा जा सकता बल्कि इसे बढावा देेने में समाज को भी कहीं न कहीं जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ऐसे में जरूरी है कि समाज के हर वर्ग चाहे वह किसी भी स्तर या हैसियत का हो, भ्रष्टाचार की इस सामाजिक लडाई में न केवल सबको एक ही पंक्ति में लगना होगा बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को समाज व सिस्टम के प्रति जबावदेह भी बनना होगा।
भ्रष्टाचार के लिए महज चंद लोगों के गले में भ्रष्टाचारी होने का तमगा लटका देने से न तो समाज पूरी तरह से भ्रष्टाचार मुक्त होगा न ही सामाजिक व्यवस्था का लाभ हर जरूरतमंद तक पहुंच पाएगा। इसके लिए जरूरी है कि समाज का हर वर्ग, व्यक्ति, संस्था चाहे वह निजी हो या फिर सरकारी अपनी कार्य संस्कृति में पूरी पारदर्शिता के साथ व्यापक बदलाव लाते हुए समाज के प्रति जबावदेह बने। साथ ही वक्त आ गया है कि समाज में आम व खास के मध्य की उस दीवार को ध्वस्त करने का जो अक्सर भ्रष्ट आचरण में पोषक का कारण बनती है। इन सबसे अधिक जरूरी है कि भ्रष्टाचार की इस लडाई में दूसरों पर दोषारोपण करने के बजाए प्रत्येक व्यक्ति को आत्म निरीक्षण कर स्वयं से पहल करने की।
यह समझ लीजिए जिस दिन समाज का प्रत्येक व्यक्ति भ्रष्टाचार व भ्रष्ट आचरण के प्रति अपनी सोच में बदलाव ले आएगा उस दिन खुद व खुद हमारा सामाजिक ढ़ांचा व कार्य संस्कृति भी बदल जाएगी। तो क्या राष्ट्र व समाजिक हित में भ्रष्टाचार की इस बुराई के विरूद्ध आप स्वयं से शुरूआत कर रहे हैं?
(साभार: दैनिक दिव्य हिमाचल, 17 नवम्बर, 2016 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)
(साभार: दैनिक दिव्य हिमाचल, 17 नवम्बर, 2016 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)
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