Wednesday, 20 March 2013

गौरया एक खूबसूरत चिडिय़ा जिसे अब जरुरत है संरक्षण की

घरों में रहती, आंगन में फुदकती, घरों की छतों, आसपास के पेड़-पौधों की टहनियों में चीं-चीं कर कौतुहल मचाने और फंख फड़फड़ाते हुए चहल कदमी करने वाली गौरया यानि चिड़िया अब जहां ये शहरी क्षेत्रों से लगभग गायब सी हो गई है तो वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी इनकी संख्या में तेजी से गिरावट दर्ज हुई है। अक्सर हमारे घरों के आसपास नजर आने वाली ये गौरया अब कहीं-कहीं ही नजर आती है। घास के बीज, कीड़े-मकौड़े और अनाज खाकर अपनी बसर करने वाली इस सुन्दर चिड़िया (गौरया) के समूह घर के आसपास, बस स्टाॅप, रेलवे स्टेशन इत्यादि स्थानों पर अक्सर देखने को मिल जाते थे। परन्तु आज यह दुनिया की एक विलुप्त होने वाली प्रजाति बन गई है। भारत में ही नहीं अपितु दुनिया के कई देशों जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, फिनलैंड़ इत्यादि देशों में भी गौरया की संख्या में भारी कमी पायी गई है। गौरया की घटती संख्या को लेकर पूरे विश्व में 20 मार्च को विश्व घरेलू गौरया दिवस के रुप में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का मुख्य उदेश्य जहां लोगों को इसके बारे में जागरुक करना है तो वहीं उनकी समस्याओं पर भी रोशनी ड़ालना है। इसलिए 20 मार्च को दुनियाभर में गौरया को लेकर विभिन्न संगठनों, स्वयंसेवी व शैक्षणिक संस्थाओं, पर्यावरण व पशु-पक्षी प्रेमियों इत्यादि द्वारा जागरुकता कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है।
पूरी दुनिया में गाने वाली चिड़िया के नाम से मशहूर गौरया एक सामाजिक पक्षी भी है। यह पूरे साल भर समूह में रहती है तथा भोजन की तलाश में ड़ेढ़ से दो मील तक की दूरी तय कर सकती है। इस घरेलू गौरया को एक समझदार चिड़िया भी माना जाता है क्योंकि यह घोसलों की जगह, खाने और आश्रय स्थल के बारे में बदलाव की क्षमता रखती है। गौरया मुख्यरुप से हरे बीज, अन्न इत्यादि को ही अपना भोजन बनाती है, परन्तु खाद्यान्न न मिलने पर यह अपने भोजन में परिवर्तन लाने में भी सक्षम होती है। इसके अतिरिक्त यह कीड़े-मकोड़े भी खा लेती है। 
लंबाई में 14-16 सेंटीमीटर के इस पक्षी के पंखों की लंबाई 19-25 सेंटीमीटर तक होती है, जबकि इसका वजन 26-32 ग्राम तक होता है। नर गौरया का शीर्ष व गाल तथा अंदरुनी हिस्से भूरे जबकि गला, छाती का उपरी हिस्सा श्वेत होता है। इसी तरह मादा गौरया के सिर पर काला रंग नहीं पाया जाता है, बच्चों का रंग गहरा भूरा होता है। गौरया एक बार में कम से कम तीन अंड़े देती है। इसका गर्भधारण काल 10-12 दिन का होता है।
आज पूरी दुनिया में गौरया की घटती संख्या के पीछे कोई एक प्रमुख कारण सामने नहीं आया है। लेकिन वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों, पर्यावरण व पक्षी प्रेमियांे का मानना है कि हमारे शहरी पारिस्थितिक तंत्र में पिछले कुछ समय से आये कठोर बदलाव के चलते गौरया की संख्या को बुरी तरह से प्रभावित किया है तथा इनकी यह संख्या अब लगातार कम होती जा रही है। इसके अतिरिक्त मोबाईल टावरों से निकलने वाली विकिरण और आधुनिक खेती में रासायनिक उर्वरकों के ज्यादा प्रयोग के चलते भी इनकी समस्या में बढ़ौतरी की है। जिन्हे आज गौरया के मरने के लिए एक प्रमुख कारण के रुप में पहचाना गया है। इसके अतिरिक्त यह देखने में भी आया है कि कुछेक लोग गौरया को कामोत्तेजक और गुप्त रोगों के पक्के इलाज के लिए दवा के तौर पर बेचते हैं, जिससे भी इनका शिकार बढ़ा है। इसके अतिरिक्त सीसे रहित पैट्रोल का प्रयोग होना भी इनकी घटती संख्या के पीछे एक प्रमुख कारण के तौर पर सामने आ रहा है। क्योंकि पैट्रोल के जलने से मिथाइल नाइट्रेट जैसे खतरनाक पदार्थ निकलते हैं, जो छोटे कीड़े-मकोड़े के लिए जानलेवा होते हैं, जबकि यही कीड़े-मकोड़े गौरया के बच्चों के भोजन का मुख्य अंग होते हंै। इसके अलावा ग्रामीण परिवेश में भी बदलती जीवन शैली और भवन निर्माण में आधुनिक तरीकों से गौरया के अवास पर प्रभाव पड़ा है। क्योंकि गौरया अक्सर हमारे घरों की छतों व इसके आसपास ही अपना आवास बनाती है। इसके अतिरिक्त हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गौरया मुख्य जैव संकेतक पक्षी है और इनकी कमी शहरी पर्यावरण के क्षरण का सूचक तथा दीर्घकाल में मानव जाति पर आने वाले खतरे का सूचक भी है। ऐसे में अब समय आ गया है कि हम सब मिलकर दुनिया से विलुप्त होती इस खूबसूरत गौरया (चिड़िया) को बचाने के लिए जहां प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर पर स्वयं पहल करे तो वहीं अपने आसपास लोगों को भी जागरुक करने में अपनी भूमिका निभाए। ताकि दुनिया से विलुप्त होती इस खूबसूरत प्रजाति गौरया को बचाया जा सके।
(साभार: आपका फैसला, 20 मार्च, 2013 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)

Tuesday, 5 March 2013

बदलते सामाजिक परिदृष्य में बुजुर्गों की स्थिति

वृद्धावस्था मानव जीवन की एक ऐसी अवस्था होती है, जिसमें बुजुर्गों को न केवल आर्थिक बल्कि भावनात्मक व सामाजिक सुरक्षा की जरुरत होती है। परन्तु पिछले कुछ दशकों में तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य के कारण हमारे समाज में बुजुर्गों के प्रति न केवल संवेदनहीनता बढ़ी है बल्कि जीवन के अन्तिम पड़ाव में खड़े हमारे बुजुर्गों की स्थिति दयनीय हो चली है। कितने दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि जिन्होने बड़े लाड़-प्यार से बच्चों को पाला पोसा व बड़ा कर समाज में एक काबिल इन्सान बनाया वही लोग जीवन की आपाधापी, व्यस्तता व घरों से मीलों दूर बड़े-2 शहरों यहां तक कि विदेशों में जाकर अपने बुजुर्गों के प्रति कर्तव्यों को भूलते नजर आ रहे हैं। अब हम इसे समय की पुकार कहें या फिर जिन्दगी की लड़ाई में हारती मानवता। कारण कुछ भी हो सकते हैं, परन्तु यहां यह तर्क बिल्कुल ठीक बैठता है कि बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकरण व आधुनिकता की इस चकाचैंध में जहां हमारे समाज में संयुक्त परिवार की सदियों पुरानी संस्कृति एकल परिवारों की ओर बढ़ी है, तो वहीं घर व समाज में बड़े-बुजुर्गों के प्रति हमारे संबंध भी बदलते नजर आ रहे हैं। ऐसा एक वक्त था जब संयुक्त खुशहाल परिवार, जहां सारे सदस्य एक साथ खाना खाते थे, एक जगह एक ही देवी-देवता की पूजा पाठ में शरीक होते थे, दादा-दादी के मार्गदर्शन, लाड़ व प्यार में बच्चे बड़े होते थे, वहां अब इस प्रेम-मोहब्बत की जगह स्वार्थ और संकीर्णता का बोलवाला हो गया है और घर-परिवार, समाज में कल का सम्मानित बुजुर्ग बेगानेपन और बोझ समझे जाने की इस अहसनीय मानवीय पीड़ा से टूटता चला जा रहा है।
जनगणना-2011 के आंकड़ों के अनुसार देश में प्रजननदर घट रही है, जिससे बच्चों की आबादी घटनी और बूढ़ों की बढऩी शुरु हो गई है। अनुमान है कि वर्ष 2026 तक देश में बूढ़ों की संख्या लगभग 17.5 करोड़ हो जाएगी। वर्तमान में देश की कुल आबादी का 7.3 फीसदी हिस्सा बुजुर्गों का है जो लगभग 9 करोड़ बनता है जो 2026 में लगभग 12.4 प्रतिशत के साथ 17.5 करोड़ तक पहुंच जाएगा। ऐसे में आने वाले समय में देश के अन्दर 60 वर्ष या इससे अधिक उम्र के लोगों की आबादी को हम किसी भी सूरत में नजर अन्दाज नहीं कर सकते हैं। दूसरी तरफ  हकीकत तो यह है कि वक्त के साथ-साथ औसत आयु में भी वृिद्ध हुई है। एक जानकारी के अनुसार वर्ष 1947 में व्यक्ति की औसत आयु 31 साल थी जो वर्तमान में 65 साल से भी अधिक हो गई है। ऐसे में निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि आने वाले समय में 75-80 साल आयु वाले बुजुर्ग लोगों की संख्या में बढ़ौतरी होगी। साथ ही हमारे समाज में सार्वजनिक सेवाओं से सेवानिवृति की उम्र भी अब 60 वर्ष तथा कुछेक व्यावसायों जैसे उच्च शिक्षा व स्वास्थ्य में यह 65 व 70 वर्ष तक हो गई है। ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले वर्षों में 80 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों का यह आंकड़ा बढऩे वाला है। वल्डऱ् पॉपुलेशन प्रोस्पेक्टस-2006 के मुताबिक 2050 में हमारे देश में 80 वर्ष से ज्यादा उम्र के बुजुर्गों की संख्या मौजूदा करीब 80 लाख से 6 गुणा बढक़र करीब 51.4 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में अब प्रश्न यह उठ रहा है कि जहां समय के साथ-साथ बुजुर्गों की आबादी बढ़ेगी तो वहीं बढ़ती उम्र के साथ-साथ कई समस्याएं भी आएंगी।
ऐसे में भले ही समय-समय पर देश व विभिन्न प्रदेशों की सरकारों ने बुजुर्गों को समाज की मुख्यधारा में सम्मानजनक जीवनयापन के लिए माता-पिता भरण पोषण अधिनियम सहित कई कानून बनाए हैं, जिसमें वृद्ध मां-बाप की उपेक्षा करने वाले बच्चों के खिलाफ  कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। सरकारी व निजी क्षेत्र में वृद्धाआश्रम खोलने के अतिरिक्त उन्हे आर्थिक तौर पर मजबूत बनाने के लिए सामाजिक सुरक्षा पेंशन, सरकारी योजनाओं, बैंकों, अस्पतालों, परिवहन सेवाओं इत्यादि में कई रियायती सुविधाएं भी प्रदान की गई है। परन्तु इसके बावजूद इस बढ़ती उम्र के साथ-साथ हमारे बुजुर्गों को कई तरह की समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। जिसमें चाहे बुढ़ापे के दौरान होने वाली विभिन्न बीमारियां हों या फिर सामाजिक सुरक्षा के साथ-साथ बढ़ता एकाकीपन हो। ऐसे में यहां बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि जिन्दगी के अंतिम पड़ाव में खड़े हमारे बुजुर्गों को जहां अकेलेपन का जो दंश झेलना पड़ता है, यह हमारे समाज के लिए किसी भी गंभीर बीमारी से होने वाली पीड़ा से ज्यादा दु:खदायी ही है, तो वहीं महानगरों, शहरों और अब ग्रामीण परिवेश में भी हमारे बुजुर्ग अपनों की बेरुखी के कारण सुरक्षित नहीं रह गए हैं। जीवनयापन के लिए वे अपनी जिस पेंशन या जमापूुंजी पर निर्भर हैं, वह भी अपनों की बेरुखी तथा अकेलेपन के चलते सुरक्षित नहीं है। आए दिन बुजुर्गों के साथ मारपीट व हत्या कर संपति की लूट करने की घटनाएं इसका जवलंत उदाहरण हैं।
इस तेजी से बदलते परिदृष्य में भविष्य में बुजुर्गों की देखभाल व सुरक्षा की जिम्मेदारी परिवार, समाज, सरकार व समुदाय की सामूहिक इच्छाशक्ति, एकजुट प्रयास व जागरुकता के बगैर संभव नहीं होगी। ऐसे में अब यह जरुरी हो जाता है कि आने वाली पीढी़ को आधुनिक व व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारित, नैतिक मूल्यों व आदर्श विचारों से ओतप्रोत शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि इस बढ़ती सामाजिक समस्या का कोई बेहतर व स्थाई हल निकाला जा सके। ऐसे में हमारा सदियों पुराना पारिवारिक ढ़ांचा व समृद्ध संस्कृति बुजुर्गों को समाज की मुख्यधारा में बनाए रखने में एक अहम कड़ी का काम कर सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के विकसित व पश्चिमी संस्कृति से ओतप्रोत मुल्कों में आधुनिकता व विकास की दौड़ में जिस तेजी से पारिवारिक ढ़ांचा बिखरा आज वहां पर बच्चों व बुजुर्गों की स्थिति अत्यन्त दयनीय व दु:खदायी कही जा सकती है। कमोवेश कल हमारा समाज व देश भी उनमें से एक हो सकता है यदि हमने समय रहते इस दिशा में कठोर व प्रभावी कदम नहीं उठाए। इस संबंध में हाल ही में हिमाचल प्रदेश तकनीकि विश्वविद्यालय, हमीरपुर द्वारा हिमाचली संस्कृति में सामाजिक व्यवस्थाओं को टूटने से बचाने के लिए इंजीनियरिंग व अन्य व्यावसायिक व तकनीकी पाठयक्रमों में वैल्यूज एंड़ प्रोफेशनल एथिक्स नामक विषय को शुरु करने का निर्णय एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है।

(साभार: दैनिक आपका फैसला 15 फरवरी, 2013 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)