Saturday, 23 December 2017

शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं के सुदृढ़ीकरण को मिले विशेष प्राथमिकता

नई सरकार से अपेक्षाएं
हिमाचल में हाल ही में सम्पन्न हुए प्रदेश विधानसभा चुनाव-2017 की मतदान प्रक्रिया के पूर्ण होते ही 13वीं विधानसभा का गठन कर लिया गया है। 13वीं विधानसभा चुनाव प्रक्रिया के दौरान न केवल प्रदेश की जनता ने बढ़चढ़ कर मतदान में भाग लेकर इस बार मतप्रतिशत्ता के पुराने रिकॉर्ड को ध्वस्त किया बल्कि जिस खामोशी व शांति के साथ नई विधानसभा का गठन किया गया है इसके लिए प्रदेश की तमाम जनता बधाई की पात्र है। यहीं नहीं इस तमाम चुनावी प्रक्रिया में नामांकन पत्रों के दाखिले से लेकर चुनावी प्रचार, मतदान व मतगणना की अंतिम प्रक्रिया तक प्रदेश में महज अपवाद को लेकर एक दो छुटपुट घटनाओं को छोडक़र तमाम चुनावी प्रक्रिया शांतिपूर्वक संपन्न हुई है, इसके लिए न केवल प्रदेश की जनता बल्कि तमाम प्रशासनिक मशीनरी के साथ-साथ राजनीतिक दल एवं प्रत्याशी भी बधाई के पात्र हैं।
लेकिन इस तमाम चुनावी प्रक्रिया के दौरान प्रत्याशियों की हार व जीत दो प्रमुख पहलू रहे हैं, जिंदगी का भी यही कड़वा सच है कि जीत व हार सिक्के के दो प्रमुख पहलू हैं जिन्हे न तो नजरअंदाज न ही नकारा जा सकता है। अगर यूं कहें कि हार व जीत के बिना न केवल जिंदगी अधूरी है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। विधानसभा चुनाव के दौरान कौन हारा व कौन जीता अब यह प्रश्न यहां महत्व नहीं रखता, जितना अहम नई सरकार द्वारा लोगों के उत्थान, जनकल्याण एवं उनके विकास से जुडी विभिन्न विकास योजनाओं व मुददों को धरातल तक ले जाना व जनआंकाक्षाओं की पूर्ति करना है। हिमाचल प्रदेश के एक छोटा सा पहाड़ी प्रदेश होने के नाते जहां सरकार के साथ-साथ लोगों की आय के साधन सीमित हैं तो वहीं प्रदेश की विकट भौगोलिक परिस्थिति भी यहां के जीवन को कठिन बनाती है। हिमाचल प्रदेश में विकास योजनाओं को धरातल में लागू करने के लिए जहां देश के मैदानी राज्यों के मुकाबले न केवल दुगुनी ऊर्जा व धनराशि की जरूरत रहती है बल्कि मूलभूत सुविधाओं को आमजन तक पहुंचानें की भी एक बड़ी चुनौती होती है। ऐसे में प्रदेश में नई सरकार को न केवल मूलभूत सुविधाओं को समाज के सबसे निम्नस्तर के व्यक्ति तक पहुंचाने की चुनौती रहेगी बल्कि जनकल्याण व विकास में आमजन की भागीदारी सुनिश्चित हो इसपर भी गंभीरता से प्रयास करने होंगे।
वैसे तो हिमाचल प्रदेश ने अपने गठन से लेकर आजतक विकास के क्षेत्र में कई नींव पत्थर रखे हैं तथा विकास का यह कारवां प्रदेश में समय-समय पर सत्तासीन रही लोकप्रिय सरकारों ने आगे बढ़ाने का भी भरसक प्रयास किया है। जिसकी बदौलत आज प्रदेश देश के पहाड़ी राज्यों में एक अग्रिम पंक्ति में खड़ा हुआ है। लेकिन विकास व जनकल्याण एक सतत् प्रक्रिया है तथा इन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति किए बिना सरकार व जनता दोनों के सपनें अधूरे ही रहते हैं। लेकिन ऐसे में नई सरकार द्वारा प्रदेश में शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ जनकल्याण को आम लोगों तक पहुंचे इसके लिए विशेष प्रयास करने की जरूरत है। आज प्रदेश में जहां स्वास्थ्य संस्थानों का दायरा प्रदेश के ग्रामीण व दूरदराज क्षेत्रों तक जरूर पहुंचा है तो वहीं प्राथमिक से लेकर कॉलेज स्तर की शिक्षा का भी खूब विस्तारीकरण हुआ है। लेकिन ऐसे में लोगों को घरद्वार के समीप गुणात्मक व बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं मिले इसके लिए नई सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में जहां शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में मूलभूत ढ़ांचे को मजबूती प्रदान करनी होगी तो वहीं स्टाफ की पर्याप्त तैनाती के साथ-साथ शिक्षा व ईलाज की तमाम सुविधाएं ग्रामीण स्तर पर मुहैया करवाने पर भी विशेष बल देना होगा।
वास्तविकता के धरातल में आज भी देखें तो लोगों को छोटे से छोटे इलाज के लिए जहां सैंकडों किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है तथा कई बार यह सफर लोगों के जीवन पर भारी भी पड़ जाता है। यहीं नहीं प्रदेश में आईजीएमसी शिमला व टांडा मेडिकल कॉलेज कांगडा को छोडक़र जिला व उपमंडल स्तरीय अस्पतालों में ही बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें इसके लिए विशेष प्रयास करने होंगे। ऐसे में जरूरत है सभी जिला स्तरीय अस्पतालों में वह तमाम आधुनिक सुविधाओं मुहैया करवाने की जिसके प्रति अभी भी हमें विशेष प्रयास की जरूरत महसूस हो रही है, इसके लिए न केवल जिला अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की तैनाती को प्राथमिकता देनी होगी बल्कि आधुनिक लैब की तमाम सुविधाएं जिला व उपमंडल स्तर पर ही लोगों को नसीब हो जाएं इस पर ध्यान देना होगा। सच्चाई यह है कि आज भी प्रदेश के लोगों को छोटे-छोटे इलाज के लिए या तो शिमला, टांडा या फिर पीजीआई चंडीगढ़ का रूख करना पड़ता है। इससे न केवल प्रदेश के लोगों को अनावश्यक परेशानी झेलनी पड़ती है बल्कि समय व धन की भी बर्बादी होती है। कई बार तो लोग थक हार कर निजी अस्पतालों की मंहगे इलाज के आगे नतमस्तक होते दिखाई देते हैं। रही बात शिक्षा क्षेत्र की तो आज शिक्षण संस्थाओं के आंकड़े जरूर सुकून दे रहे हैं, लेकिन यहां भी मूलभूत सुविधाओं सहित स्टाफ की कमी हमेशा खलती रही है जिस पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत होगी।
जनकल्याण हमेशा ही किसी भी सरकार का सबसे प्राथमिक उदेश्य रहा है तथा इसका लाभ समाज के सबसे निम्न व गरीब व्यक्ति तक पहुंचे इसके लिए भी धरातल स्तर पर एक ऐसा तंत्र विकसित करना होगा ताकि कोई भी पात्र लाभार्थी वंचित न रहे। इसके अलावा समाज के हर वर्ग व तबके की सरकार से अपनी-अपनी अपेक्षाएं व इच्छाएं रहती है जिनको सरकार ने पूरा करना होता है, लेकिन सरकार की योजनाओं व कार्यक्रमों से समाज का जरूरतमंद तबका लाभान्वित हो इसके लिए शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं को ओर मजबूती प्रदान करना नई सरकार की विशेष प्राथमिकता में हो ऐसी अपेक्षा है ताकि कोई भी बेहतर ईलाज के अभाव में न तो दम तोड सके, न ही बेहतर ईलाज के लिए निजी अस्पतालों के लिए मजबूर होना पड़े। साथ ही प्रदेश के ग्रामीण व गरीब तबके के बच्चों को विश्वस्तरीय स्कूल व कॉलेज की शिक्षा घरद्वार पर ही उपलब्ध हो इस पर 
भी विशेष ध्यान देना होगा ताकि प्रदेश की नौजवान पीढ़ी महज सरकारी नौकरियों के पीछे भागने के बजाए विश्व की खुली अर्थव्यवस्था की चुनौतियों को स्वीकर करने के योग्य बन अपनी प्रतिभा का डंका देश, दुनिया में स्थापित कर सकें।

(साभार: दैनिक न्याय सेतु 22 दिसम्बर, 2017 एवं दैनिक आपका फैसला, 28 दिसम्बर, 2018 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)

Wednesday, 6 December 2017

वर्ग विषमता व जातिगत छुआछूत मिटाकर समाज को समरस बनाएं

आज 6 दिसम्बर को राष्ट्र देश के महानायक एवं संविधान निर्माता डॉ0 भीमराव अंबेदकर जी की पुण्यतिथि मना रहा है। डॉ0 भीमराव अंबेदकर भारत के एक ऐसे महान सपूत थे जिन्होने देश से जातिप्रथा व छूआछूत के खिलाफ न केवल विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से जन जागरूकता फैलाई बल्कि वह स्वयं एक ऐसे परिवार से निकले जो इस कुप्रथा का शिकार रहे। ऐसे में हम यह सहज अनुमान लगा सकते हैं कि एक ऐसा व्यक्ति जो स्वयं वर्ग विषमता, जातिगत छुआछूत व भेदभाव की समस्या से पीडि़त रहा हो वह समाज को इस कुप्रथा से छुटकारा दिलाने के लिए कितना संघर्षरत व चिंतित हो सकता है। 
वास्तव में हमारा भारतीय समाज डॉ0 भीम राव अंबेदकर जी के जन्म व पुण्य तिथि को एक समरस समाज बनाने व समाज से वर्ग विषमता, जातिगत छुआछूत व भेदभाव को समाप्त करने का हर वर्ष प्रण तो लेता है, लेकिन आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी क्या हम एक ऐसा समाज का निर्माण कर पाए हैं जहां जातिगत भेदभाव व छुआछूत के लिए कोई स्थान न हो? क्या हम उन लोगों को समाज की मुख्यधारा में बिना किसी भेदभाव के जोड़ पाए हंै या फिर यूं कहें क्या हमारा समाज पूरी तरह से जातिगत भेदभाव व छुआछूत से मुक्त हो पाया है? कहने को तो ऐेसे अनगिनत प्रश्न हैं जो आज भी हमारे समाज में मुंहबाए खडे हैं और जातिगत भेदभाव व छुआछूत की ओर ईशारा कर रहे हों? लेकिन अब प्रश्न कितने लोगों का जीवन स्तर उठा, कितने लोगों का आर्थिक व सामाजिक सशक्तिकरण हुआ का नहीं है बल्कि प्रश्न भारतीय समाज को पूरी तरह से वर्ग विषमता, जातिगत छुआछूत व भेदभाव के उस चंगुल से बाहर निकालने का है जिसके लिए आज भी हमारा समाज किसी न किसी स्तर पर संघर्षरत है। 
भले ही वर्ग विषमता एवं जातिगत छुआछूत व भेदभाव को लेकर हमारे देश में न केवल समय-समय पर अनेक सामाजिक आंदोलन हुए बल्कि विभिन्न स्तरों पर भी समरस समाज बनाने के लगातार अनेक प्रयास होते रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में जातिगत छुआछूत व भेदभाव का यह जहर लोगों के मन मस्तिष्क से आज भी पूरी तरह से बाहर नहीं निकल पाया है जिसके लिए सीधे व परोक्ष तौर पर हम आजादी के इन सात दशकों से संघर्षरत हैं। यहां इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि हमारे समाज में इस दिशा में न केवल अबतक बेहतर प्रयास हुए हैं बल्कि बहुत से लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने व समाज की मुख्यधारा में जोडऩे के अनेक कदम भी उठाए हैं। लेकिन ऐसे में प्रश्न हमारे इन प्रयासों से लाभान्वित होने वालों के आंकड़ों का नहीं बल्कि प्रश्न इस कुप्रथा के शिकार समाज के सबसे निचले तबके को जोडऩे व समाज को वर्ग विषमता से मुक्त बनाने का है जिसकी तरफ शायद अभी तक हमने कोई सार्थक प्रयास करने की जहमत ही नहीं उठाई है। 
वास्तव में किसी भी समाज का उत्थान इस बात पर निर्भर करता है कि समाज के सबसे निचले स्तर के कितने लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाया गया है। वैसे तो भारतीय संविधान में वह सभी प्रावधान मौजूद हैं जो देश में वर्ग विषमता व जातिगत छुआछूत व भेदभाव को मिटाने में कारगर साबित हो सकते हैं। लेकिन वास्तव में क्या इन संवैधानिक प्रावधानों का एक समरस समाज स्थापित करने में बेहतर इस्तेमाल हो पाया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज में संविधान के मूल तत्वों व भावनाओं के साथ छेड़छाड़ कर इस सामाजिक समस्या को जड़ से उखाडऩे के बजाए निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए समाज को ही एक अन्य वर्ग व्यवस्था के तहत बांटने का तो प्रयास नहीं हो रहा है। इस पर भी समाज के बुद्धिजीवी वर्ग, राजनीतिक विश्लेषकों व चिंतकों को गौर फरमाने की आवश्यकता महसूस हो रही है।
वास्तव में हमारी वर्ग विषमता तथा जातिगत छुआछूत व भेदभाव के प्रति उस समय एक बड़ी जीत होगी जब देश का एक भी कोना ऐसा नहीं रहेगा जहां जाति विशेष के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव होता हो। ऐसा कोई भी समाज नहीं होगा जहां पर व्यक्ति की पहचान महज एक इन्सान व भारतीयता के अलावा कोई दूसरी रहे। ऐसे में प्रश्न उठ रहा है कि क्या वर्तमान परिस्थितियों में देश से यह समस्या खत्म हो पाएगी? लेकिन ऐसे में हम यह क्यों भूल रहे हैं कि यह वही भारतीय समाज है जहां के लोगों ने समय-समय पर अनेक सामाजिक बुराईयों व कुरीतियों के खिलाफ झंडा बुलंद किया तथा समाज को कई कुप्रथाओं से आजाद किया है। ऐसे में हमारे समाज से वर्ग विषमता व जातिगत छुआछूत की यह समाजिक बुराई पूरी तरह से समाप्त हो इसके लिए 21वीं सदी की हमारी युवा पीढ़ी न केवल सक्षम व समर्थ है बल्कि वह एक ऐसा भारतीय समाज स्थापित करने का भी सामथ्र्य रखती है जिसमें वर्ग विषमता, जातिप्रथा व छुआछूत के लिए कोई स्थान नहीं होगा। 
ऐसे में देश से वर्ग विषमता व जाति प्रथा को मिटाना एवं डॉ0 भीमराव अंबेदकर जी के बताए सिद्धांतों व सदमार्ग पर चलने का प्रण लेना ही आज भारतीय समाज की उनके प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी। आओ आज हम सब मिलकर अपने समाज को वर्ग व जातिगत विषमता से मुक्त बनाने का प्रण लेेकर भारत को दुनिया का एक आदर्श समाज बनाएं।

(साभार: दैनिक न्याय सेतु 6 दिसम्बर, 2017 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)