Tuesday, 22 October 2013

श्री साईं स्वयं सहायता समूह की महिलाएं लिख रही हैं सफलता की कहानी

जिला सिरमौर के विकास खंड पांवटा साहिब की ग्राम पंचायत पुरुवाला के कांशीपुर गांव की दस महिलाएं स्वयं सहायता समूह बनाकर आर्थिक व सामाजिक तौर पर सशक्त हो रही हैं। यह महिलाएं न केवल अपनी मेहनत व लगन से अपनी सफलता की कहानी स्वयं लिख रही हैं बल्कि हमारे समाज की अन्य महिलाओं के लिए भी प्रेरणा स्त्रोत बनकर खडी हुई हैं। इन महिलाओं द्वारा पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ कुछ हटकर करने की चाहत ने ही इन्हे आज अन्य महिलाओं के मुकाबले एक अलग पहचान मिल रही है।
जुलाई, 2012 में समूह की ही कुछ महिलाओं के अथक प्रयास के चलते स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना के अन्र्तगत खंड विकास कार्यालय पांवटा साहिब के सहयोग से श्री साईं स्वयं सहायता समूह का गठन किया गया। इस समूह ने सबसे पहले यूको बैंक की शाखा बद्रीपुर पांवटा साहिब में खाता खोला तथा प्रतिमाह 100 रुपये प्रति सदस्य बचत की शुरुआत की। आज यह महिलाएं काफी धनराशि बतौर बचत इक्टठा कर चुकी हैं। लेकिन इनके इस प्रयास को एक नई मंजिल तब मिली जब यूको-आरसेटी ने डीआरडीए जिला सिरमौर के सौजन्य से इन्हे मार्च 2013 में मिठाई के डिब्बे बनाने के लिए पांच दिन का प्रशिक्षण मिला। इसके बाद विभाग ने इन्हे अपना स्वयं का काम शुरु करने के लिए दस हजार रुपये की आर्थिक सहायता राशि मुहैया करवाई। आज इन महिलाओं ने मात्र 6-7 महीनों की मेहनत से ही जहां लगभग 30 हजार मिठाई के डिब्बे बनाकर लगभग 30-35 हजार रुपये का मुनाफा कमा लिया है तो वहीं अपनी मेहनत से समाज में अपनी एक अलग पहचान भी बना रही हैं।
बडे ही आत्मविश्वास से लबरेज इस समूह की प्रधान श्रीमति शीला देवी से बातचीत की तो उनका कहना है कि समूह की सभी सदस्य प्रतिदिन दो से पांच बजे तक मिठाई के डिब्बे बनाने का कार्य करती हैं। जबकि विशेष त्योहारों जैसे रक्षा बंधन, दशहरा, ईद, दिवाली इत्यादि के मौके पर दुकानदारों की अतिरिक्त मांग को पूरा करने के लिए अतिरिक्त समय लगाकर इस कार्य को पूरा करती हैं। साथ ही जानकारी दी कि अकेले रक्षा बंधन के पर्व के दौरान ही उन्होने दस हजार से ज्यादा डिब्बे बनाए हैं। समूह की सचिव श्रीमति ममता देवी का कहना है कि समूह की सभी सदस्य अपने घर के रोजमर्रा के कामकाज, खेतीवाडी, पशुपालन इत्यादि के कार्य निपटाने के बाद ही जो खाली समय बचता है उसी में ही वह यह डिब्बे बनाने का कार्य करती हैं। उनका यह भी कहना है कि यह कार्य करते हुए न केवल आत्मनिर्भरता व स्वावलंबन का एहसास हो रहा है बल्कि इस मंहगाई के दौर में परिवार की आर्थिकी हो मजबूत बनाने में भी सफल हो पा रही हैं।

इसी संबंध में इनका कहना है कि समूह की सभी सदस्य मिठाई के डिब्बे बनाने के लिए कच्चामाल बाजार से खरीदने से लेकर तैयार माल की सप्लाई तक के कार्य वह स्वयं ही करती हैं। साथ ही इनका कहना है कि यदि सरकार उनके इस तैयार माल के लिए मॉर्केटिंग की कुछ व्यवस्था कर दे तो वह इससे भी बेहतर कार्य कर सकती हैं। साथ उनकी सरकार से मांग है कि यदि उन्हे सरकार डिब्बे तैयार करने के लिए मशीन खरीदने के लिए कम ब्याजदर पर ऋण मुहैया करवाए तो उनका समूह जहां अच्छी गुणवता वाले मिठाई के डिब्बे तैयार कर पाएगा तो वहीं बाजार में भी उनके तैयार माल की डिमांड बढऩे के साथ-साथ आमदन में भी बढौतरी होगी। 

क्या कहते हैं अधिकारी:
इस संबंध में खंड विकास अधिकारी पांवटा साहिब श्री सतपाल सिंह राणा का कहना है कि पांवटा विकास खंड में वर्ष 2012-13 के दौरान स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना के तहत कुल 138 एेसे महिला स्वयं सहायता समूहों का गठन किया गया है। जिसमें से 20 समूहों को बैंकों से जोडकर लगभग 72 लाख रुपये का ऋण विभिन्न गतिविधियों को चलाने के लिए मुहैया करवाया गया है। जबकि 10 समूहों को अपनी छोटी मोटी गतिविधियों को चलाने के लिए दस-दस हजार रुपये का रिवोलविंग फंड भी मुहैया करवाया है। साथ ही जानकारी दी कि स्वयं सहायता समूहों के लिए समय-समय पर प्रशिक्षण शिविर भी लगाए जाते हैं जिसके माध्यम से समूूहों को बचत करना, कैश बुक मैंटेन करना, इंटरलोनिंग इत्यादि की जानकारी दी जाती है। साथ ही गरीब परिवारों से संबंध रखने वाली महिलाआें व युवतियों को यूको आरसेटी के माध्यम से भी स्वरोजगार से जुडे विषयों पर प्रशिक्षण दिया जाता है। 
(साभार: हिमाचल दस्तक 21 अक्तूबर, आपका फैसला, 20 अक्तूबर, हिमाचल दिस वीक 9 नवम्बर, हिंदुस्तान टाईम्स 25 नवम्बर तथा हिमप्रस्थ अंक नवम्बर, 2013 में प्रकाशित)

Tuesday, 7 May 2013

बदलते सामाजिक परिदृष्य में युवाशक्ति का योगदान

किसी भी देश, समाज व परिवार के उत्थान में युवाशक्ति एक अहम भूमिका निभाती है। ये युवा ही होते हैं जो समाज की विभिन्न समस्याओं से लड़ते-2 न केवल समाज को एक दिशा प्रदान करते हैं, बल्कि युवाशक्ति के दम पर ही देश व समाज जीवन की उंचाईयों को छूता है। अगर यूं कहें कि युवाशक्ति किसी भी राष्ट्र व समाज की रीढ़ होती है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
ऐसे में आज देश के लगभग 600 विश्वविद्यालयों व 30,000 महाविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर रही हमारी युवा पीढ़ी न केवल भारतीय समाज को एक दिशा प्रदान कर सकती है बल्कि इस युवाशक्ति के दम पर भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने से कोई नहीं रोक सकता है। अगर आंकडों की बात करें तो आज लगभग 54 फीसदी आबादी 15-30 आयु वर्ष वर्ग के युवाओं की है। ऐसे में अगर हम भारत को युवाओं का देश कहें तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। लेकिन ऐसे में अगर इतिहास के पन्नों को खंगालें तो पता चलता है कि जितने भी देश व सामाजिक व्यवस्थाओं का पतन हुआ है तो इसके पीछे भी युवाशक्ति का क्षीण होना ही रहा है। जबकि जिन राष्ट्रों ने सफलता की उंचाईयों को छुआ है इसके पीछे भी युवाशक्ति का सही दिशा में मार्गदर्शन तथा समाज की विभिन्न समस्याओं के प्रति जागरुकता तथा आवश्यकता पडनें पर आन्दोलनों की राह पर चलकर देश व समाज को न केवल एक दिशा दी बल्कि प्रगति व उन्नति के पथ पर अग्रसरता भी दिखाई। सन 1789 की फ्रांस की क्रांति ने दुनिया में छात्र राजनीति का जो इतिहास लिखा, उसे आज भी कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में याद किया जाता है। 1989 में बीजिंग (चीन) के थ्येन मन चौक पर छात्रों की भूख हडताल, देश में 1974-75 का जे0पी0 आन्दोलन, अस्सी के दशक में बांग्लादेशियों के खिलाफ असम में हुआ आन्दोलन ऐसे प्रमुख छात्र आन्दोलन रहे हैं। डॉ0 राम मनोहर लोहिया ने भी लिखा है, देश को इस समय ऐसे देश सेवकों की जरुरत है, जो तन-मन-धन सभी देश पर अर्पित कर दें तथा पागलों की तरह सारी उम्र देश की भयानक समस्याओं से लडने में गुजार दें। वर्ष 1960-62 में लोहिया जी ने देश गर्माओ का नारा दिया था, जिसका अर्थ है आम आदमी को अन्याय और अत्याचारपूर्ण रुतबे से लडने के लिए तैयार करना। ऐसे में देश की वह युवाशक्ति जो 15-30 वर्ष आयुवर्ग में आती है, का सही मार्गदर्शन कर देश के छात्र नेता व बुद्विजीवी वर्ग न केवल युवाशक्ति को एक सही दिशा देकर जहां समाज की विभिन्न समस्याओं के प्रति युवाओं को जागरुक कर अहम भूमिका निभा सकते हैं तो वहीं देश के नीति निमार्ताओं, शासकों व राजनेताओं के लिए एक बेहतर समाज निमार्ण में भी अहम कडी साबित हो सकते हैं।
अगर विगत वर्षों की बात करें तो देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन से लेकर अलगाववाद, नक्सलवाद, आतंकवाद जैसी अनेक समस्याओं को लेकर भी छात्र आन्दोलनों ने सकारात्मक भूमिका के तहत समय-समय पर एक मजबूत आवाज बुलन्द की है। आज देश को जो युवा नेतृत्व की ओर भारतीय राजनीति को एक दिशा दी है, इसके लिए भी कहीं न कहीं छात्र आन्दोलनों की ही भूमिका कही जा सकती है। जिसमें चाहे आम आदमी की रोजमर्रा से जुड़ी छोटी-2 समस्याओं को लेकर लड़ा गया छोटा सा ग्रामीण आन्दोलन रहा हो या फिर महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में देश की विभिन्न सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं को लेकर लड़े जाने वाले आन्दोलनों से लेकर जय प्रकाश नारायण जैसे अनेक राष्ट्रीय स्तर के आन्दोलनों तक छात्रों की सीधी सहभागिता कही जा सकती है। ऐसे में छात्र आन्दोलनों को केवल शैक्षणिक परिसरों में लड़े जाने वाले आन्दोलनों से जोडक़र देखा जाना एकांगी दष्टिकोण ही कहा जाएगा। वस्तुत: छात्र आन्दोलन भारतीय समाज की वह बुनियाद कही जा सकती है, जिस पर भावी भविष्य की प्राचीर ही नहीं खडी है बल्कि देश व समाज को दिशा देने वाली एक ऊर्जावान शक्ति भी कह सकते हंै। आज के इस बदलते दौर में भारतीय समाज कई तरह की सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है, जिसमें चाहे कन्या भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, महिला अत्याचार, युवाओं में बढ़ती नशाखोरी  की बात हो या फिर आम आदमी से जुड़ी स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसी अनेक ज्वलंत समस्यांए कही जा सकती है। लेकिन आज के इस बदलते दौर में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि छात्र आन्दोलनों के माध्यम से छात्र नेताओं की भूमिका महज विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में होने वाले छात्रसंघ चुनावों तक ही सीमित है। इस तरह की सोच के चलते यह देखने को मिल रहा है कि छात्र आन्दोलन मुददाविहीन और पथभ्रष्ट ही नहीं बल्कि सामाजकि दृष्टिकोण से मृतप्राय: हो चले हैं। यही नहीं अधिकतर छात्र आन्दोलनों की लड़ाई वैचारिक, सिद्धांतवादी व सामाजिक समस्यांए न होकर महज छात्रसंघ चुनाव जीतकर स्वार्थसिद्धि का मार्ग प्रशस्त करना रह गया लगता है।
वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक परिदृष्य को देखते हुए हम इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकते कि छात्र राजनीति में विद्रुपता और जड़ता बढ़ी है, लेकिन इन सब कारणों के वाबजूद हम यह अर्थ नहीं निकाल सकते कि वर्तमान समय में छात्र राजनीति व छात्र आन्दोलनों की प्रासंगिकता समाप्त हो चली है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों गठित पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे0एम0 लिंगदोह कमेटी की सिफारिसों ने जहां छात्रसंघ चुनावों में राजनीतिक दखलअंदाजी पर रोक लगाई है तो वहीं प्रत्येक विश्वविद्यालय व महाविद्यालय में छात्रसंघ चुनाव करवाने की वकालत भी की है। साथ ही छात्रसंघ चुनावों में धन, बल व अनुशासनहीनता के साथ-साथ आपराधिकरण पर भी लगाम कसी है। ऐसे में कह सकते हैं कि लिंगदोह कमेटी ने भी कहीं न कहीं देश व समाज के लिए छात्र राजनीति व छात्र आन्दोलनों के महत्व को केन्द्र में रखकर आवश्यक मानते हुए ही छात्रसंघ चुनावों की गाइड़लाइन निर्धारित की गई हैं। इतना ही नहीं हम यह क्यों भूल रहे हैं कि देश की सरकार चुनने का अधिकार भी 18 वर्ष या इससे अधिक आयु वर्ग के युवाओं को दिया गया है। ऐसे में यदि छात्र राजनीति मुददापरक और आदर्शवादी होकर छात्र आन्दोलनों को दिशा दें तो एक तरफ जहां देश की राजनीति में व्याप्त अनेक विसंगतियां जैसे आपराधीकरण, भ्रष्टाचार, गिरते मूल्य व आदर्श इत्यादि हाशिए पर चली जाएंगी तो वहीं देश व समाज को ज्यादा सशक्त, जुझारु तथा बेहतर नीतियां व दिशा देने वाले भविष्य के राजनेता मिल सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले जहां छा़त्र आन्दोलनों को राजनीति की विशात से बचाने की आवश्यकता है तो वहीं नि:स्वार्थ भाव से सामाजिक आन्दोलनों में छात्र नेताओं को अपनी भागीदारी सुनिश्चित किये जानेे की जरूरत महसूस होती है। छात्र नेताओं की प्रतिबद्धता भी समाज और देश की प्रगति, एकता व भाइचारे के प्रति होनी चाहिए न कि महज छात्रसंघ चुनाव जीत कर भविष्य की राजनीतिक गोटियां फिट करने वाली स्वार्थी व मौकापरस्त सोच होनी चाहिए। परन्तु अफसोस इसी मानसिकता से ग्रस्त हमारे छात्र नेता आज छात्रसंघ चुनावों में अपना परचम लहराने के लिए जहां एक दूसरे के खून के प्यासे बन बैठते हैं तो वहीं शिक्षा के परिसर बेहतर शिक्षा के स्थान न होकर पुलिस छावनियां बनकर रह जाते हैं। शिक्षा के परिसरों में अक्सर घटने वाली ऐसी हिंसात्मक घटनाओं को रोकने के लिए देश के छात्र नेताओं व आम छात्रों को स्वयं ही पहल करनी होगी ताकि छात्र राजनीति देश के भविष्य निर्माण व विकास में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ-साथ उच्च आदर्शों व मूल्यों से युक्त बेहतर इंसान बनाने वाली बन सके। इसके लिए आम छात्रों को भी अपनी भूमिका का निवर्हन कर छात्र राजनीति व छात्र आन्दोलनों को समाज के प्रति अपना कर्तव्य मानते हुए एक सार्थक दिशा देकर सफल बनाना होगा तभी छात्र राजनीति आम छात्रों की व्यथा को स्वर देने वाली और विभिन्न सामाजिक समस्याओं के साकारात्मक समाधान का माध्यम बन सकेगी।
आज देश में करोडों युवाओं के सामने उनके बेहतर भविष्य निर्माण को लेकर अनेक चुनौतियां खड़ी है। जिसमें चाहे शिक्षा क्षेत्र से जुडी अनेकों समस्याएं हों या फिर बढ़ती बेरोजगारी की मार हो। इस तरह की अनेकों समस्याओं के निदान के लिए देश के आम छात्रों को ही एक साकारात्मक पहल कर आगे आने की जरुरत लगती है। तभी देश के करोड़ों छात्र अपनी छात्र संसद, छात्र नेताओं व छात्र आन्दोलनों के माध्यम से ही देश में शिक्षा के क्षेत्र के साथ-साथ विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सार्थक व बेहतर हल निकालने में सरकार व प्रशासन के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम कर सकते हैं, वशर्ते उनकी यह लड़ाई राजनीतिक विचारधाराओं से प्रेरित न होकर समाज की उन्नति व विकास पर आधारित हो। इस दृष्टिकोण से न केवल समाज में राजनीतिक व प्रशासनिक निर्णयों में छात्र संघों व छात्र नेताओं की भूमिका प्रभावी होगी बल्कि उनके द्वारा देश, समाज व छात्रहित में लड़े जाने वाले आन्दोलनों की सार्थकता व प्रासंगिकता भी बढ़ेगी अन्यथा वर्तमान दौर में जो भारतीय छात्र राजनीति में बढ़ती हिंसात्मक गतिविधियों से जहां छात्र राजनीति के स्तर में गिरावट देखने को मिल रही है तो वहीं उच्च शिक्षा के यह संस्थान अपने मूल उदेश्यों से भटकते हुए नजर आ रहे हैं। जिसे भारतीय समाज व देश के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है। ऐसे में किसी ने खूब कहा है:
                चिराग जल तो गए हैं नजर न लग जाए
                नजर भी उनकी जिनके यहां अंधेरा है।
                        निगाहें बद से बचना है इन चिरागों को
                        अभी है पिछला पहर दूर अभी सवेरा है।

(साभार: दैनिक दिव्य हिमाचल 10 सितम्बर, 2012 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित) 

Friday, 26 April 2013

तम्बाकू सेवन से नष्ट हो रही लाखों जिंदगियां

आज के इस प्रगतिशील दौर में हमारे आसपास विशेषकर युवा पीढ़ी में नशे के तौर पर तम्बाकू सेवन का इस्तेमाल तेजी से बढा है। इसके सेवन के चलतेे जहां हमारी यह नौजवान पीढ़ी मानसिक, सामाजिक व आर्थिक तौर पर कमजोर बन रही है तो वहीें इसके लगातार सेवन से व्यक्ति अनेक प्रकार के रोगों से भी ग्रस्त होता जा रहा है। तम्बाकू का सेवन चाहे धूम्रपान के नाते बीडी, सिगरेट इत्यादि के तौर पर किया जाए या फिर धूम्ररहित तम्बाकू उत्पाद जैसे गुटखा, खैनी, पान इत्यादि। इन सबके इस्तेमाल के कारण जहां कैंसर, दमा, हृदय रोग, खांसी तथा गैंगरीन जैसे कई जानलेवा रोग पैदा होते हैं, तो वहीं तम्बाकू उत्पादों के धूम्रपान से फैलने वाले धुंए से अप्रत्यक्ष रुप से गर्भवती महिलायें, बच्चे व धूम्रपान न करने वाले लोग भी इन भयानक रोगों की चपेट में आ जाते हैं।
ऐसे में यदि वैश्विक वयस्क तम्बाकू सर्वेक्षण (गेटस)2009-10 की रिपोर्ट का विश्लेषण करें तो आज देश की लगभग 35 प्रतिशत वयस्क आबादी किसी न किसी प्रकार से तम्बाकू का उपयोग करती है। उनमें से 21 प्रतिशत वयस्क धूम्ररहित तम्बाकू का उपयोग करते हैं, 9 प्रतिशत धूम्रपान तथा 5 प्रतिशत वयस्क धूम्रपान व धूम्ररहित दोनों का उपयोग करते हैं। इस प्रतिशतता के आघार पर देश में 274.9 मिलियन लोग धूम्रपान करते हैं, जिसमें से 163.7 मिलियन धूम्ररहित तम्बाकू, 68.9 मिलियन धूम्रपान तथा 42.3 मिलियन धूम्रपान व धूम्ररहित दोनों प्रकार के तम्बाकू का उपयोग करते हैं। यदि ंिलंग के आधार देखें तो 48 प्रतिशत पुरुष व 20 प्रतिशत महिलाएं तम्बाकू का इस्तेमाल करती है। जबकि 24 प्रतिशत पुरुष व 3 प्रतिशत महिलायें धूम्रपान करती है। धूम्ररहित तम्बाकू पदार्थों का प्रचलन पुरुषों में 33 प्रतिशत व महिलाओं में 18 प्रतिशत है। यह सर्वेक्षण देश के 29 राज्यों व 2 केन्द्र शासित प्रदेशों चण्डीगढ व पुडुचेरी में करवाया गया है। इस सर्वेक्षण के अनुसार देश में तम्बाकू का उपयोग करने वालों में से यदि धूम्ररहित पदार्थो के उपयोग करने वालों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि 12 प्रतिशत खैनी, 8 प्रतिशत गुटखा, 6 प्रतिशत पान तथा 5 प्रतिशत मुखिक तम्बाकू का इस्तेमाल करते है, जबकि धम्रपान करने वालों में से 9 प्रतिशत बीडी, 6 प्रतिशत सिगरेट व 1 प्रतिशत लोग हुक्के का इस्तेमाल करते हैं।
एक अन्य जानकारी के अनुसार देश में प्रतिवर्ष 8-9 लाख लोगों की मृत्यु तम्बाकू के इस्तेमाल के कारण होती है। प्रत्येक आठ सेकण्ड में एक व्यक्ति तम्बाकू के कारण मौत के मुंह में चला जाता है। ऐसे में तम्बाकू सेवन के कारण जहां दमा, सांस की समस्या, मुंह व फेफड़ों का कैंसर इत्यादि बिमारीयां होती है, तो वहीं इसका इस्तेमाल करने वाले लोगों को आर्थिक तौर पर भी नुकसान उठाना पड़ता हैं। गेट्स सर्वेक्षण के अनुसार ही देश में सिगरेट पीने वाला एक वयस्क औसतन 399 रूपये प्रतिमाह सिगरेट पर और बीडी पीने वाला वयस्क औसतन 93 रूपये प्रतिमाह बीडी पर खर्च करता है। इससे पता चलता है कि धूम्रपान करने वाला न केवल स्वास्थ्य के तौर पर कमजोर बनता है बल्कि आर्थिक तौर पर भी उसे नुक्सान पहुंचाता है। देश में धूम्रपान के लिए तम्बाकू उत्पादों के बढ़ते इस्तेमाल तथा आम लोगों को जागरूक करने के लिये विभिन्न स्तरों मसलन स्कूल, महिला मण्डल, युवा मण्डल, सरकारी कार्यालयों, सार्वजनिक स्थानों आदि पर सरकार व विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा समय-2 पर जागरूकता अभियान भी चलाये जाते हैं। इन जागरूकता अभियानों के माध्यम से लोगों को तम्बाकू सेवन से होने वाले नुक्सान तथा आसपास पर पडऩे वाले प्रभावों से भी जागरूक किया जाता है।
कानूनी तौर पर इस सामाजिक बुराई से लडऩे के लिये सिगरेट एण्ड अदर टोबेको प्रोडक्ट एक्ट (सीओटीपीए-2003) को लागू किया गया है। इस कानून के तहत नाबालिगों को और नाबालिगों द्धारा तम्बाकू उत्पाद बेचने तथा किसी शैक्षिक संस्था के 100 गज के दायरे में किसी भी तरह के तंबाकू उत्पाद बेचने पर प्रतिबंध है। साथ ही सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करने व सभी प्रकार के तंबाकू उत्पादों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विज्ञापनों पर प्रतिबंध है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने भी अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए Óहिमाचल प्रदेश धूम्रपान प्रतिषेध और अधूम्रसेवी स्वास्थ्य संरक्षण अधिनियम-1997 को लागू किया है। इसके तहत सभागारों, अस्पताल परिसरों, मनोरंजन केन्द्रों, सार्वजनिक कार्यालयों, न्यायालय परिसरों, शिक्षण संस्थानों, पुस्तकालयों तथा सार्वजनिक सेवा वाहनों में धूम्रपान निषेध किया गया है। साथ ही मादक द्रव्य व नशीले पदार्थ अधिनियम-1985 के तहत भांग, अफीम, चरस आदि का नशा करते पाये जाने व नशे के प्रयोग में आने वाली आपतिजनक वस्तुओं के साथ पकडे जाने पर कानूनी कार्यवाही की जा सकती है। जिसमें 6 माह से 20 वर्ष तक की कैद व 10 हजार से 2 लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है।
इसलिए हमें इस सामाजिक बुराई से बचना चाहिए तथा इसका सेवन करने वालों विशेषकर अपने आस पडोस में यह जागरुकता फैलाने की आवश्यकता है कि तम्बाकू सेवन के कारण जहां हम अपनी जिन्दगी को तबाह कर रहे हैं तो वहीं दूसरों के लिए समस्या भी खडी करते हैं। ऐसे में हमें इस सामाजिक बुराई से लडने के लिए सबसे पहले शुरुआत अपने आप व अपने परिवार से करनी होगी ताकि कल कोई भी व्यक्ति तम्बाकू सेवन से मौत का शिकार न बन सके। क्या आप तम्बाकू सेवन छोड रहे है?

(साभार: आपका फैसला, 27 जुलाई, 2011 को संपादीय पृष्ठ में प्रकाशित)

Wednesday, 20 March 2013

गौरया एक खूबसूरत चिडिय़ा जिसे अब जरुरत है संरक्षण की

घरों में रहती, आंगन में फुदकती, घरों की छतों, आसपास के पेड़-पौधों की टहनियों में चीं-चीं कर कौतुहल मचाने और फंख फड़फड़ाते हुए चहल कदमी करने वाली गौरया यानि चिड़िया अब जहां ये शहरी क्षेत्रों से लगभग गायब सी हो गई है तो वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी इनकी संख्या में तेजी से गिरावट दर्ज हुई है। अक्सर हमारे घरों के आसपास नजर आने वाली ये गौरया अब कहीं-कहीं ही नजर आती है। घास के बीज, कीड़े-मकौड़े और अनाज खाकर अपनी बसर करने वाली इस सुन्दर चिड़िया (गौरया) के समूह घर के आसपास, बस स्टाॅप, रेलवे स्टेशन इत्यादि स्थानों पर अक्सर देखने को मिल जाते थे। परन्तु आज यह दुनिया की एक विलुप्त होने वाली प्रजाति बन गई है। भारत में ही नहीं अपितु दुनिया के कई देशों जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, फिनलैंड़ इत्यादि देशों में भी गौरया की संख्या में भारी कमी पायी गई है। गौरया की घटती संख्या को लेकर पूरे विश्व में 20 मार्च को विश्व घरेलू गौरया दिवस के रुप में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का मुख्य उदेश्य जहां लोगों को इसके बारे में जागरुक करना है तो वहीं उनकी समस्याओं पर भी रोशनी ड़ालना है। इसलिए 20 मार्च को दुनियाभर में गौरया को लेकर विभिन्न संगठनों, स्वयंसेवी व शैक्षणिक संस्थाओं, पर्यावरण व पशु-पक्षी प्रेमियों इत्यादि द्वारा जागरुकता कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है।
पूरी दुनिया में गाने वाली चिड़िया के नाम से मशहूर गौरया एक सामाजिक पक्षी भी है। यह पूरे साल भर समूह में रहती है तथा भोजन की तलाश में ड़ेढ़ से दो मील तक की दूरी तय कर सकती है। इस घरेलू गौरया को एक समझदार चिड़िया भी माना जाता है क्योंकि यह घोसलों की जगह, खाने और आश्रय स्थल के बारे में बदलाव की क्षमता रखती है। गौरया मुख्यरुप से हरे बीज, अन्न इत्यादि को ही अपना भोजन बनाती है, परन्तु खाद्यान्न न मिलने पर यह अपने भोजन में परिवर्तन लाने में भी सक्षम होती है। इसके अतिरिक्त यह कीड़े-मकोड़े भी खा लेती है। 
लंबाई में 14-16 सेंटीमीटर के इस पक्षी के पंखों की लंबाई 19-25 सेंटीमीटर तक होती है, जबकि इसका वजन 26-32 ग्राम तक होता है। नर गौरया का शीर्ष व गाल तथा अंदरुनी हिस्से भूरे जबकि गला, छाती का उपरी हिस्सा श्वेत होता है। इसी तरह मादा गौरया के सिर पर काला रंग नहीं पाया जाता है, बच्चों का रंग गहरा भूरा होता है। गौरया एक बार में कम से कम तीन अंड़े देती है। इसका गर्भधारण काल 10-12 दिन का होता है।
आज पूरी दुनिया में गौरया की घटती संख्या के पीछे कोई एक प्रमुख कारण सामने नहीं आया है। लेकिन वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों, पर्यावरण व पक्षी प्रेमियांे का मानना है कि हमारे शहरी पारिस्थितिक तंत्र में पिछले कुछ समय से आये कठोर बदलाव के चलते गौरया की संख्या को बुरी तरह से प्रभावित किया है तथा इनकी यह संख्या अब लगातार कम होती जा रही है। इसके अतिरिक्त मोबाईल टावरों से निकलने वाली विकिरण और आधुनिक खेती में रासायनिक उर्वरकों के ज्यादा प्रयोग के चलते भी इनकी समस्या में बढ़ौतरी की है। जिन्हे आज गौरया के मरने के लिए एक प्रमुख कारण के रुप में पहचाना गया है। इसके अतिरिक्त यह देखने में भी आया है कि कुछेक लोग गौरया को कामोत्तेजक और गुप्त रोगों के पक्के इलाज के लिए दवा के तौर पर बेचते हैं, जिससे भी इनका शिकार बढ़ा है। इसके अतिरिक्त सीसे रहित पैट्रोल का प्रयोग होना भी इनकी घटती संख्या के पीछे एक प्रमुख कारण के तौर पर सामने आ रहा है। क्योंकि पैट्रोल के जलने से मिथाइल नाइट्रेट जैसे खतरनाक पदार्थ निकलते हैं, जो छोटे कीड़े-मकोड़े के लिए जानलेवा होते हैं, जबकि यही कीड़े-मकोड़े गौरया के बच्चों के भोजन का मुख्य अंग होते हंै। इसके अलावा ग्रामीण परिवेश में भी बदलती जीवन शैली और भवन निर्माण में आधुनिक तरीकों से गौरया के अवास पर प्रभाव पड़ा है। क्योंकि गौरया अक्सर हमारे घरों की छतों व इसके आसपास ही अपना आवास बनाती है। इसके अतिरिक्त हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गौरया मुख्य जैव संकेतक पक्षी है और इनकी कमी शहरी पर्यावरण के क्षरण का सूचक तथा दीर्घकाल में मानव जाति पर आने वाले खतरे का सूचक भी है। ऐसे में अब समय आ गया है कि हम सब मिलकर दुनिया से विलुप्त होती इस खूबसूरत गौरया (चिड़िया) को बचाने के लिए जहां प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर पर स्वयं पहल करे तो वहीं अपने आसपास लोगों को भी जागरुक करने में अपनी भूमिका निभाए। ताकि दुनिया से विलुप्त होती इस खूबसूरत प्रजाति गौरया को बचाया जा सके।
(साभार: आपका फैसला, 20 मार्च, 2013 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)

Tuesday, 5 March 2013

बदलते सामाजिक परिदृष्य में बुजुर्गों की स्थिति

वृद्धावस्था मानव जीवन की एक ऐसी अवस्था होती है, जिसमें बुजुर्गों को न केवल आर्थिक बल्कि भावनात्मक व सामाजिक सुरक्षा की जरुरत होती है। परन्तु पिछले कुछ दशकों में तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य के कारण हमारे समाज में बुजुर्गों के प्रति न केवल संवेदनहीनता बढ़ी है बल्कि जीवन के अन्तिम पड़ाव में खड़े हमारे बुजुर्गों की स्थिति दयनीय हो चली है। कितने दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि जिन्होने बड़े लाड़-प्यार से बच्चों को पाला पोसा व बड़ा कर समाज में एक काबिल इन्सान बनाया वही लोग जीवन की आपाधापी, व्यस्तता व घरों से मीलों दूर बड़े-2 शहरों यहां तक कि विदेशों में जाकर अपने बुजुर्गों के प्रति कर्तव्यों को भूलते नजर आ रहे हैं। अब हम इसे समय की पुकार कहें या फिर जिन्दगी की लड़ाई में हारती मानवता। कारण कुछ भी हो सकते हैं, परन्तु यहां यह तर्क बिल्कुल ठीक बैठता है कि बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकरण व आधुनिकता की इस चकाचैंध में जहां हमारे समाज में संयुक्त परिवार की सदियों पुरानी संस्कृति एकल परिवारों की ओर बढ़ी है, तो वहीं घर व समाज में बड़े-बुजुर्गों के प्रति हमारे संबंध भी बदलते नजर आ रहे हैं। ऐसा एक वक्त था जब संयुक्त खुशहाल परिवार, जहां सारे सदस्य एक साथ खाना खाते थे, एक जगह एक ही देवी-देवता की पूजा पाठ में शरीक होते थे, दादा-दादी के मार्गदर्शन, लाड़ व प्यार में बच्चे बड़े होते थे, वहां अब इस प्रेम-मोहब्बत की जगह स्वार्थ और संकीर्णता का बोलवाला हो गया है और घर-परिवार, समाज में कल का सम्मानित बुजुर्ग बेगानेपन और बोझ समझे जाने की इस अहसनीय मानवीय पीड़ा से टूटता चला जा रहा है।
जनगणना-2011 के आंकड़ों के अनुसार देश में प्रजननदर घट रही है, जिससे बच्चों की आबादी घटनी और बूढ़ों की बढऩी शुरु हो गई है। अनुमान है कि वर्ष 2026 तक देश में बूढ़ों की संख्या लगभग 17.5 करोड़ हो जाएगी। वर्तमान में देश की कुल आबादी का 7.3 फीसदी हिस्सा बुजुर्गों का है जो लगभग 9 करोड़ बनता है जो 2026 में लगभग 12.4 प्रतिशत के साथ 17.5 करोड़ तक पहुंच जाएगा। ऐसे में आने वाले समय में देश के अन्दर 60 वर्ष या इससे अधिक उम्र के लोगों की आबादी को हम किसी भी सूरत में नजर अन्दाज नहीं कर सकते हैं। दूसरी तरफ  हकीकत तो यह है कि वक्त के साथ-साथ औसत आयु में भी वृिद्ध हुई है। एक जानकारी के अनुसार वर्ष 1947 में व्यक्ति की औसत आयु 31 साल थी जो वर्तमान में 65 साल से भी अधिक हो गई है। ऐसे में निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि आने वाले समय में 75-80 साल आयु वाले बुजुर्ग लोगों की संख्या में बढ़ौतरी होगी। साथ ही हमारे समाज में सार्वजनिक सेवाओं से सेवानिवृति की उम्र भी अब 60 वर्ष तथा कुछेक व्यावसायों जैसे उच्च शिक्षा व स्वास्थ्य में यह 65 व 70 वर्ष तक हो गई है। ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले वर्षों में 80 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों का यह आंकड़ा बढऩे वाला है। वल्डऱ् पॉपुलेशन प्रोस्पेक्टस-2006 के मुताबिक 2050 में हमारे देश में 80 वर्ष से ज्यादा उम्र के बुजुर्गों की संख्या मौजूदा करीब 80 लाख से 6 गुणा बढक़र करीब 51.4 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में अब प्रश्न यह उठ रहा है कि जहां समय के साथ-साथ बुजुर्गों की आबादी बढ़ेगी तो वहीं बढ़ती उम्र के साथ-साथ कई समस्याएं भी आएंगी।
ऐसे में भले ही समय-समय पर देश व विभिन्न प्रदेशों की सरकारों ने बुजुर्गों को समाज की मुख्यधारा में सम्मानजनक जीवनयापन के लिए माता-पिता भरण पोषण अधिनियम सहित कई कानून बनाए हैं, जिसमें वृद्ध मां-बाप की उपेक्षा करने वाले बच्चों के खिलाफ  कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। सरकारी व निजी क्षेत्र में वृद्धाआश्रम खोलने के अतिरिक्त उन्हे आर्थिक तौर पर मजबूत बनाने के लिए सामाजिक सुरक्षा पेंशन, सरकारी योजनाओं, बैंकों, अस्पतालों, परिवहन सेवाओं इत्यादि में कई रियायती सुविधाएं भी प्रदान की गई है। परन्तु इसके बावजूद इस बढ़ती उम्र के साथ-साथ हमारे बुजुर्गों को कई तरह की समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। जिसमें चाहे बुढ़ापे के दौरान होने वाली विभिन्न बीमारियां हों या फिर सामाजिक सुरक्षा के साथ-साथ बढ़ता एकाकीपन हो। ऐसे में यहां बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि जिन्दगी के अंतिम पड़ाव में खड़े हमारे बुजुर्गों को जहां अकेलेपन का जो दंश झेलना पड़ता है, यह हमारे समाज के लिए किसी भी गंभीर बीमारी से होने वाली पीड़ा से ज्यादा दु:खदायी ही है, तो वहीं महानगरों, शहरों और अब ग्रामीण परिवेश में भी हमारे बुजुर्ग अपनों की बेरुखी के कारण सुरक्षित नहीं रह गए हैं। जीवनयापन के लिए वे अपनी जिस पेंशन या जमापूुंजी पर निर्भर हैं, वह भी अपनों की बेरुखी तथा अकेलेपन के चलते सुरक्षित नहीं है। आए दिन बुजुर्गों के साथ मारपीट व हत्या कर संपति की लूट करने की घटनाएं इसका जवलंत उदाहरण हैं।
इस तेजी से बदलते परिदृष्य में भविष्य में बुजुर्गों की देखभाल व सुरक्षा की जिम्मेदारी परिवार, समाज, सरकार व समुदाय की सामूहिक इच्छाशक्ति, एकजुट प्रयास व जागरुकता के बगैर संभव नहीं होगी। ऐसे में अब यह जरुरी हो जाता है कि आने वाली पीढी़ को आधुनिक व व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारित, नैतिक मूल्यों व आदर्श विचारों से ओतप्रोत शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि इस बढ़ती सामाजिक समस्या का कोई बेहतर व स्थाई हल निकाला जा सके। ऐसे में हमारा सदियों पुराना पारिवारिक ढ़ांचा व समृद्ध संस्कृति बुजुर्गों को समाज की मुख्यधारा में बनाए रखने में एक अहम कड़ी का काम कर सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के विकसित व पश्चिमी संस्कृति से ओतप्रोत मुल्कों में आधुनिकता व विकास की दौड़ में जिस तेजी से पारिवारिक ढ़ांचा बिखरा आज वहां पर बच्चों व बुजुर्गों की स्थिति अत्यन्त दयनीय व दु:खदायी कही जा सकती है। कमोवेश कल हमारा समाज व देश भी उनमें से एक हो सकता है यदि हमने समय रहते इस दिशा में कठोर व प्रभावी कदम नहीं उठाए। इस संबंध में हाल ही में हिमाचल प्रदेश तकनीकि विश्वविद्यालय, हमीरपुर द्वारा हिमाचली संस्कृति में सामाजिक व्यवस्थाओं को टूटने से बचाने के लिए इंजीनियरिंग व अन्य व्यावसायिक व तकनीकी पाठयक्रमों में वैल्यूज एंड़ प्रोफेशनल एथिक्स नामक विषय को शुरु करने का निर्णय एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है।

(साभार: दैनिक आपका फैसला 15 फरवरी, 2013 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित) 

Friday, 15 February 2013

शहरी जीवन के आकर्षण में सूने होते गांव

आज का दौर विज्ञान] भूमण्डलीकरण] औद्योगिकरण तरक्की का है। जिसके चलते जगह-जगह शिक्षा के केन्द्र खुले हैं] व्यावसायिक तकनीकि शिक्षा हासिल करने के सुअवसर बढ़े हैं। तेजी से बढते औद्योगिकरण के कारण जहां हमारे आर्थिक विकास के साधन तेजी से विकसित हुए हैं तो वहीं शिक्षा के फैलाव के साथ&साथ रोजगार के नए-नए साधन भी सृजित हुए हैं। परन्तु जैसे&जैसे आर्थिक विकास की रफतार बढ़ी है वैसे&2 लोगों का रुझान गांव की नीरस] वीरान सुस्त लगने वाली जिन्दगी से शहरों की चकाचौंध  तड़क भड़क वाली रफतार की तरफ तेजी से देखने को मिल रहा है। यही कारण है कि आज समाज का हर व्यक्ति बेहतर सुख सुविधाओं की चाहत जिसमें चाहे अच्छी गुणवतायुक्त शिक्षा की बात हो या फिर रोजगार के बेहतर अवसरों की तलाश हो। हर कोई ज्यादा से ज्यादा सुख सुविधाओं की लालसा में आए दिन ग्रामीण क्षेत्रों को अलविदा कहकर शहरों की तरफ पलायन कर रहा है। लोग अपनी परम्परागत पशुपालन] कृषि] बागवानी के साथ-साथ गांव की शुद्ध हवा] पानी मिटटी को छोड़कर शहरों की तंग गलियों] धूल प्रदूषण से भरी सडकों दिन रात भागती जिन्दगी को अपना रहे हैं।
हकीकत तो यह है कि आज की नौजवान पीढ़ी आधुनिकता की चकाचौंध से इतनी प्रभावित है कि हमारे गांव बडे-बुजुर्गों तक ही सीमित होकर रह गए हैं। लेकिन दूसरी तरफ शहरी जीवन की हकीकत तो यह है कि जहां हमें दो वक्त की रोटी के लिए भी खूब पसीना बहाना पड रहा है तो वहीं सीमित होते साधनों के चलते प्रतिस्पर्धा भी कड़ी होती जा रही है। साथ ही शहरों में बढ़ती आबादी से रोजमर्रा की जरुरतों पर दबाव बढ़ने से मंहगाई की रफतार भी तेजी से बढ़ी है। जबकि दूसरी ओर गांव की हरी भरी धरती] लहलहाते खेत मिटटी की खुश्बू अपनों की विरानगी में जाने कहीं गुम होती जा रही है। लेकिन अब प्रश्न यह उठ रहा है कि आखिर यह पलायन क्यों बढ़ रहा हैA क्यों आज हर कोई बड़े़-2 शहरों में जाकर बसना चाहता है] क्या हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में सुख सुविधाओं बेहतर साधनों की कमी है या फिर महज दूसरों की देखा देखी में ही हम शहरी जीवन के मोहपाश में बंधे चले जा रहे हैंA खैर कारण कुछ भी हो] परन्तु यदि वास्तविकता के धरातल में देखें तो आज जहां हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा स्कूल] काॅलेज] व्यावसायिक] तकनीकि स्वास्थय संस्थान खुले हैं तो वहीं रोजगार के साधन सृजित करने के लिए मनरेगा जैसी योजनांए चलाई गई है। हकीकत तो यह है कि 4&5 हजार की नौकरी के लिए शहरों को पलायन करने वाले ग्रामीणों को मनरेगा ने जहां घर बैठे ही रोजगार सुनिश्चित कर दिया है तो वहीं सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं के तहत दिए जा रहे उपदान से संबंधित योजनाओं को अपनाकर आर्थिक तौर पर समृद्ध होने के साथ-साथ अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों का निर्वाह घर बैठे ठीक से कर पाएंगें। इतना ही नहीं पढ़े लिखे नौजवानों के लिए कृषि बागवानी के क्षेत्र में पाॅलीहाउस योजनाएं सब्जियों के साथ&2 फूलों की खेती एक बेहतर स्वरोजगार के साधन उपलब्ध करवा रही हैं। इसी तरह दुग्ध उत्पादन] मुर्गी पालन] मच्छली पालन] मधुमक्खी पालन] खुम्म की खेती के साथ&2 लघु कुटीर उद्यौगों के माध्यम से भी स्वरोजगार के नए&2 अवसर सृजित हो रहे हैं। हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य में पर्यटन भी एक बेहतरीन स्वरोजगार का विकल्प है। बस जरुरत है इस दिशा में व्यवाहरिक दृष्टिकोण अपनाने की।
इस तरह की अनेकों स्वरोजगार योजनाओं से जुड़ने के लिए जहां सरकार करोड़ों रुपयों का उपदान उपलब्ध करवा रही है तो वहीं आधुनिक तकनीकि ज्ञान उपलब्ध करवाने के लिए प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। बस जरुरत है नौजवानों को इन अवसरों को भुनाने की। आज हमारे पास सैंकडों ऐसे युवाओं के उदाहरण मिल जाएंगें जो ग्रामीण क्षेत्रों में ही रहकर स्वरोजगार के माध्यम से ज्यादा खुशहाल बन प्रगति के पथ पर तेजी से आगे बढ़े हैं। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों के बेहतर विकास हेतू जहां हमें मनरेगा जैसे कानून को ज्यादा प्रभावशाली बनाकर ज्यादा बल मिले तो वहीं स्वरोजगार योजनाओं को भी ज्यादा से ज्यादा युवाओं तक पहुंचाने की जरुरत है ताकि सरकारी नौकरी के इंतजार मे वर्षों बर्बाद करने वाली हमारी नौजवान पीढ़ी देश समाज के विकास में समय रहते सकारात्मक भूमिका में खडी हो सके। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा] स्वास्थ्य] जैसी मूलभूत सूविधाओं को ज्यादा सशक्त बनाकर शहरों की ओर बढ़ते इस पलायन को भी रोका जा सके।

(साभार: दिव्य हिमाचल 12 अप्रैल, आपका फैसला 30 अप्रैल, 2012 को संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित)